सोशल मीडिया में कमेंट आना ही है. कुछ चुनिंदा अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए (बेहद असभ्य अपशब्द, जिनके इस्तेमाल की इजाजत कम से कम हमारी परंपराएं तो नहीं देतीं), हम या तो कांग्रेसी दलाल, या भाजपाई भक्त करार दे दिए जाते हैं. इन संज्ञाओं का चयन लेखन के आधार पर तय होता है. बिना ये सोचे कि जो लिखा गया है, वो कितना दमदार है.
इन टिप्पणियों में कोई गहन आलोचना नहीं होती, जिन्हें हम सम्मान के साथ ग्रहण करें और उस पर सोचें, तर्कों की अयोग्यता की ओर कोई संकेत नहीं होता, ना ही उन तर्कों के काट के रूप में दमदार तर्क रखे जाते हैं.
बल्कि मतभेद बताने वाली प्रतिक्रियाएं एक जंग के समान होती हैं, जिनमें पूरी तरह कुचल डालने का उतावलापन होता है. प्रसिद्ध ब्रिटिश उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल के अनमोल शब्दों का सार याद करें, तो “ये अनिवार्य जुर्म है (उनके शब्दों में वैचारिक जुर्म) जो स्वयं में सभी को सन्निहित किये रहता है.”
वैचारिक जुर्म को इतनी बुरी तरह कुचलने का उतावलापन क्यों है? ये सवाल तब तक मेरे जेहन में कौंधता रहा, जब तक जॉर्ज ऑरवेल का मशहूर उपन्यास 1984 मेरे हाथों में नहीं आया. करीब 25 साल बाद पहले मैंने इस पुस्तक पर नजर डाली थी, लेकिन उस वक्त ज्यादा कुछ मेरे पल्ले नहीं पड़ा था.
ये किताब एक तानाशाह सत्ता की कहानी है, जो हर चीज अपने कब्जे में रखना अपना अधिकार समझता था. चाहे मूलभूत आवश्यकताएं हों (भोजन, पेय या नींद लेना), या अतीत की समझ, या फिर वर्तमान की वास्तविकता.
और ये सोचना भी अनिवार्य था कि बिग ब्रदर जो कह रहे हैं, वही सही है.
‘अज्ञानता ताकत है और आजादी गुलामी है’
बिग ब्रदर के राज को तीन नारों से समझा जा सकता है: युद्ध ही शांति है, आजादी ही गुलामी है और अज्ञानता ही ताकत है. हर बात के प्रबंधन के लिए चार मंत्रालय हुआ करते थे. सच्चाई मंत्रालय खबरों से संबंधित था (पढ़ें: पूर्ण असत्य का प्रचार), मनोरंजन, शिक्षा (पढ़ें: जो भी अब तक सीखा उसे भूल जाएं) और ललित कला.
शांति मंत्रालय बाहरी हमलों से निपटता था, चाहे वो हमले वास्तविक हों या मनगढ़ंत. प्रेम मंत्रालय का काम कानून व्यवस्था बनाए रखना था. उसकी अहम जिम्मेदारियों में वैचारिक जुर्म से सख्ती से निपटना भी शामिल था.
सम्पन्नता मंत्रालय की जिम्मेदारी दरिद्रता का वितरण करना था, ताकि ये संदेश प्रसारित हो सके कि सब कुछ दुरुस्त है और हमेशा दुरुस्त रहेगा. क्या हम अपने आसपास इन मंत्रालयों के क्रियाकलाप महसूस कर सकते हैं?
नफरत के दिन, हफ्ते और महीने के रूप में जलसे होते थे. जलसों का मकसद था एक पथभ्रष्ट की परिकल्पना और उसे सभी अनचाही घटनाओं का जिम्मेदार ठहराना.
क्या हमारे आसपास की फिजां कुछ ऐसे ही संदेश नहीं बिखेर रही? हम सब अपनी पीड़ा के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराने के आदी हो चुके हैं. मुद्दा जितना बड़ा होता है, ध्यान भटकाने और अन्याय को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश उतनी ही गहरी होती है. जाति और धर्म पर नाम पर विभाजन रेखाएं और उनसे जुड़ी हिंसा इन्हीं गहन प्रयासों का नतीजा हैं.
‘वैचारिक जुर्म सभी जुर्मों की जड़ है’
अगर मैंने ऑरवेल को सही समझा है, तो वैचारिक जुर्म को कागज किसी टुकड़े में लिखा एक ऐसा नोट माना जा सकता है, जिसमें किसी मुद्दे पर मतभेद हो सकते हैं, बिग ब्रदर की पोशाक पसंद न आने जैसे विचार हो सकते हैं, या किसी महत्त्वपूर्ण समारोह में उनके व्याख्यान पर नाखुशी हो सकती है. ऑरवेल की सोच के मुताबिक व्याख्या किये गए इस वैचारिक जुर्म को कुछ उदाहरणों की मदद से समझते हैं.
अगर हम बिग ब्रदर राज के मॉडल का अनुसरण करते हैं, तो हमारे ऊपर गंभीर वैचारिक जुर्म का दोषी होने का खतरा मंडराता है. मसलन अगर हम बिग ब्रदर और उनके नुमाइंदों के विमुद्रीकरण या अन्य फैसलों से इत्तेफाक नहीं रखते, तो निश्चित रूप से हम दोषी करार दिये जाएंगे.
मसलन, मेरा जन्म बिहार में हुआ है. राज्य में मद्यनिषेध लागू होने के बाद अगर मैं वहां जाकर मद्यपान करने की सोचता भी हूं, तो मुझे सलाखों में डाला जा सकता है.
किताब में सर्वाधिकारवादी सत्ता की परिकल्पना इस किस्म की सभी पूर्ववर्ती सत्ताओं से भिन्न है, क्योंकि ये सत्ता अनंत काल तक शासन करना चाहती है. लिहाजा इस लक्ष्य की प्राप्ति में किसी भी रूप में विरोध उसे स्वीकार्य नहीं है. आप जीना चाहें तो भी और मरना चाहें तो भी आपको उस सोच पर विश्वास करना ही होगा. अन्यथा आपके लिए कोई चारा नहीं. आपके लिए कोई जगह नहीं बनी है – ना स्वर्ग में और ना नरक में.
पुस्तक का एक विशाल अंश बिग ब्रदर की सोच को उकेरता है. वो कहता है: “हम विधर्मी को नष्ट नहीं करते क्योंकि वो हमारा विरोध करता है. जब तक वो हमारा विरोध करता है, हम उसे नष्ट नहीं करते. हम उसकी सोच बदलते हैं. हम उसके अंदरूनी दिमाग पर कब्जा करते हैं, उसे नया आकार देते हैं.”
हम उसके भीतर की सारी बुराइयों और सारे भ्रम को जला डालते हैं; हम उसे अपने पक्ष में लाते हैं. दिखावे के तौर पर नहीं, बल्कि दिल और आत्मा से. उसे मार डालने से पहले हम उसे अपनों में एक बनाते हैं. ये हमारे बर्दाश्त के बाहर है कि दुनिया में कहीं भी एक मिथ्या सोच पलती रहे, चाहे वो कितनी भी गोपनीय और असमर्थ क्यों न हो.1984, जॉर्ज ऑरवेल
ट्रोल करने वालों से एक अनुरोध
लिहाजा सभी ट्रोल करने वालों से मेरी गुजारिश है कि एक बार अपने अंदर झांककर देखें. क्या आप बिग ब्रदर के काल्पनिक सत्ता से प्रभावित नहीं हैं, जिसमें थोड़े से भी मतभेद अपमानित किया जाता है, कुचला जाता है और अंत में मार डाला जाता है? आप निश्चित रूप से ये समझते होंगे कि किसी बिग ब्रदर और उसकी सोच का अस्तित्व नहीं है. कम से कम लोकतंत्र में तो कतई नहीं.
हमें आपके विचारों से असहमत होने का उतना ही हक है, जितना आपको हमारे विचारों से. हमें अपमानित करना या धमकी देना उसी तानाशाही सत्ता के समान है, जो हम न तो वास्तव में हैं और न हमें कभी होना चाहिए.
हमारे पास हर मामले पर प्रश्न करने का मौलिक अधिकार है. हमें संविधान से जवाबदेही सुनिश्चित करने पर सवाल करने का हक मिला है. आखिर सवाल करना देशद्रोह की परिभाषा के दायरे में कब से आ गया?
प्यारे भक्तगण, याद रखें. जून 1975 में भी एक तानाशाही तूफान ने देश में आपातकाल लगाया था. लेकिन तानाशाही का वो ताना-बाना कितनी तेजी से चूर-चूर हो गया?
लिहाजा बिग ब्रदर से प्रेरणा प्राप्त करने वाले तमाम ट्रोल करने वालों से मेरी गुजारिश है कि वो मशहूर पुस्तक 1984 के कुछ पन्ने जरूर पलटें (संयोग से जॉर्ज ऑरवेल की पैदाइश भी बिहार के पूर्वी चम्पारण में हुई थी) और कल्पना करें कि क्या आप भी उपन्यास के मुख्य किरदार विन्स्टन स्मिथ का जीवन जीना चाहेंगे?
उन्हें यातनाएं दी गईं, क्योंकि उन्होंने बिग ब्रदर को हर बात पर सही मानने से इंकार कर दिया. उनपर सितम ढाए गए, क्योंकि उन्हें प्यार में विश्वास था.
उन्हें सताया गया, क्योंकि उनका भरोसा था कि सत्ता मिथ्या प्रचार की एक ऐसी मशीन है, जो उन उपलब्धियों का बखान करती है जिनका कहीं, कोई अस्तित्व नहीं. उन्हें प्रेम मंत्रालय ने सलाखों के पीछे डलवा दिया, क्योंकि उन्होंने सोचने की गुस्ताखी की थी, लिहाजा वो वैचारिक जुर्म के दोषी थे.
क्या आप चाहते हैं कि हमारा देश भी उसी रंग में रंग जाए?
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