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दिल्ली में क्राइम : आंकड़ों से जाहिर नहीं होती हालात की हकीकत 

थानों में हादसे और सड़कों पर हो रही वारदातों के लिए कहीं ना कहीं किसी की लापरवाही तो जिम्मेवार है

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नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो ने गुरुवार को देश में अपराध के आंकड़े जारी किए. जैसे ही दिल्ली के आंकड़े सामने आए पुलिस कमिश्नर ने अखबारों को दूसरे दिन तपाक से इंटरव्यू दिया और दावा किया कि मुकदमों को दर्ज करने की पुलिस नीति यानि ओपेन केस रजिस्ट्रेशन की वजह से यहां अपराध ज्यादा दिख रहे हैं. हकीकत तो यह है कि राजधानी में बड़े अपराध घटे हैं.

18-20 साल से क्राइम कवर कर रहे मेरे मन में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के इंटरव्यू से कई सवाल जाग गए हैं. सवाल ये कि एनसीआरबी के आंकड़ों में ऐसा क्या था कि आमतौर पर मीडिया से दूरी रखने वाले पुलिस कमिश्नर को अखबारों में सफाई देनी पड़ी. गौरतलब है कि एनसीआरबी के आंकड़े खुद गृह मंत्री के सामने जारी किए गए थे.

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पुलिस कमिश्नर साहब कहते हैं कि चूंकि मुकदमे दर्ज हो रहे हैं इसलिए आंकड़े बढ़े हैं इसलिए इससे दो सवाल निकलते हैं पहला यह कि क्या पहले के पुलिस कमिश्नरों के राज में मुकदमे दर्ज नहीं होते थे. दूसरा सवाल यह कि वारदातें हो रही हैं तभी तो मुकदमे दर्ज हो रहे हैं. ऐसा तो है नहीं कि बिना मामले के मुकदमे दर्ज कर आंकड़े बढ़ाए जा रहे हैं.

थानों में हादसे और सड़कों पर हो रही वारदातों के लिए कहीं ना कहीं किसी की लापरवाही तो जिम्मेवार है
अपराध हो रहे हैं तभी तो मुकदमे दर्ज हो रहे हैं
(फोटो: iStock)

अचानक ही इस समय के उतराखंड के माननीय राज्यपाल और एक जमाने में दिल्ली के पुलिस आयुक्त रहे डाक्टर के के पॉल की एक बात याद आ रही है. निजी भेंट में उन्होंने कहा था कि आबादी बढ़ती है तो क्राइम बढ़ता है घटता नहीं. बात जायज भी है अक्सर पुलिस आंकड़ों की बाजीगरी में उलझी रहती है. इसमें कोई शक नहीं कि केस दर्ज ना करने की प्रवृति में कमी आई है मगर वारदातें नहीं हो रही हैं ऐसा नहीं है.

हर दिन किसी ना किसी एप, सामुदायिक पुलिसिंग या कार्यक्रम का उद्घाटन में व्यस्त रहने वाली पुलिस की दिल्ली में इस साल हुए दो तीन घटनाओं पर गौर फरमाएं. यह घटना अक्टूबर की है. दिल्ली के बिंदापुर थाने के अंदर से एक एएसआई का सरकारी रिवॉल्वर चोरी हो गया. एक और घटना . विवेक विहार थाने के एसएचओ अपनी कुर्सी पर विवादास्पद राधे मां को घंटों बिठाए रहे. घटना नंबर 3. इस साल 21 अगस्त को अंबेडकर नगर थाने में जांच अधिकारी के कमरे में हत्या हो जाती है. गिनती में ये तीन ही नहीं बल्कि कई और वारदातें हैं जो सुरक्षा के भरोसे की नींव हिला देती हैं.

जाहिर सी बात है कि पुलिस अधिकारी कहते हैं कि ज्यादातर मामले सुलझा लिए जाते हैं और अनुशासनहीनता पर कार्रवाई भी हो जाती है. मगर एक सवाल है कि विवादास्पद राधे मां को अपने कमरे में बिठाने वाले एसएचओ के खिलाफ कार्रवाई तो हो गई. मगर ये कौन बताएगा कि इन जनाब एसएचओ  की पहले जिस थाने में तैनाती थे वहां से भी गंभीर आरोप में हटाए गए थे. फिर इन्हें नए थाने की कुर्सी किसकी मेहरबानी से मिली.

दिल्ली में क्राइम रिकार्ड की बात करें तो सोचने का मुद्दा ये नहीं कि आंकड़ें बढ़े या घटे हैं बल्कि मुद्दा ये है कि ऐसे अपराध कितने हो रहे हैं जो पुलिस की रोकथाम की कमी का नतीजा हैं. थाने में सरकारी पिस्टल की चोरी, विवादास्पद साध्वी को कुर्सी पर बिठाना और जांच अधिकारी के कमरे में हत्या जैसी वारदातें प्रिवेंटिव थीं. ये रोकी जा सकती थीं.

सोचने वाली बात ये है कि 15 नवंबर तक हत्या की 430, डकैती की 34 , लूटपाट की 2597, फिरौती की13, स्नैचिंग की 7669 के अलावा कार चोरी की 35401 वारदातों में ऐसी कितनी थीं जिनको पुलिस की सुस्ती का परिणाम कहा जा सकता है.

सोचने वाली बात ये भी है कि अभी एक साल पहले ही पुलिस के 25 हजार जवानों की तरक्की हुई थी. दिवाली की रात खुद पुलिस कमिश्नर साहब ने सड़कों पर जवानों को मिठाई बांटते हुए फोटो खिंचवाई थी. फिर क्या वजह है कि पुलिस वालों के मनोबल इतने ऊंचे नहीं रहे कि सरेराह गोलीबारी, झपटमारी करने वालों को समय रहते रोक सकें.

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दिल्ली में दिनदहाड़े सरेराह गोलीबारी हत्या और लूटपाट की भी दर्जनों वारदातें हो रही हैं. इसलिए ये सवाल जहन में उठता है कि क्या दिल्ली पुलिस में सब कुछ ठीक-ठाक है. चलिए इस सवाल का जवाब वर्तमान और पूर्व पुलिस अधिकारियों से जानने की कोशिश करते हैं.

इस सवाल के जवाब में दिल्ली पुलिस के स्पेशल पुलिस कमिश्नर और मुख्य प्रवक्ता दीपेन्द्र पाठक का कहना है कि कुछ घटनाएं अपवाद हैं. निजी मामले हैं . अगर कुल मिलाकर देखा जाए तो दिल्ली पुलिस का प्रदर्शन बेहतर हुआ है. सारे अहम मामले रिकार्ड समय में सुलझा लिए जाते हैं. नए पुलिस आयुक्त ने बेसिक पुलिसिंग पर फोकस किया है और इसके परिणाम भी सामने आ रहे हैं. मनोबल बढ़े इसके लिए कई योजनाएं शुरू की गई है. पुलिस मित्र जैसी योजनाओं को मजबूत किया गया है.

पाठक कहते हैं कि जरा सी सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी वाली बात हो जाती है लेकिन ऐसे मामलों पर सख्त कार्रवाई भी होती है. 
थानों में हादसे और सड़कों पर हो रही वारदातों के लिए कहीं ना कहीं किसी की लापरवाही तो जिम्मेवार है
सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी
(फोटो: istock)
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दिल्ली पुलिस के पीआरओ आईपीएस मधुर वर्मा भी साफ साफ कहते हैं कि सनसनीखेज वारदातों में भारी कमी आई है. पुलिस वेलफेयर की कई योजनाओं पर काम हो रहा है और अनुशासन के लिए जिला स्तर पर परेड जैसे कार्यक्रम की फिर से शुरूआत की गई है जिसे अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त स्तर के अफसर देखेंगे.

उपरोक्त दोनों बातें सही हैं. दिल्ली पुलिस का ये दावा भी सही है कि संगीन अपराधों में 25 फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई है. फिर वही सवाल है कि यदि सब कुछ ठीक ठाक है तो थाने के अंदर हो रही लापरवाहियों के अलावा सरेराह होने वाले अपराध बंद क्यों नहीं हो रहे. इसी सवाल का जवाब जब रिटायर हो चुके पुलिस अफसरों से मांगा जाता है तो ज्यादातर के मुंह से यही निकलता है कि अच्छा है कि हम वर्तमान हालात से पहले ही रिटायर हो गए नहीं तो बड़ी मुश्किल होती.

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दिल्ली पुलिस के सेवानिवृत एसीपी महेश चंद्र शर्मा के मुताबिक हथकड़ी पर पाबंदी अपराधियों से हाथ में हाथ डालकर चलने पर मजबूर करती है और पुलिसवालों के अंदर अपराध वाले गुण आ ही जाते हैं. इसीलिए कैदियों को अदालती कार्रवाई के लिए पेश करने आदि का काम करने वाले पुलिसकर्मीं अपराध में लिप्त पाए जाते हैं. उनका कहना है नकारात्मक प्रचार और माहौल की वजह से पुलिस का मनोबल गिरा रहता है. नतीजतन वो अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाते.

यहां तीनों पुलिस अधिकारी अपनी जगह सही हो सकते हैं. मगर सही ये भी है कि बेशक रिकार्ड पर मौजूद आंकड़े ये बताते हों कि वारदातों की संख्या में कमी आ रही है मगर कुछेक वारदातों का ही उदाहरण ले लें तो ये बताने के लिए काफी है कि बहुत कुछ करने के लिए बाकी है.

थाने में जांच अधिकारी के कमरे में हत्या की वारदात शायद ही आज से पहले किसी ने सुनी या देखी हो. ना ही थाने के अंदर से सरकारी रिवाल्वर चोरी होने की वारदात सामान्य है. अनुशासनात्मक कार्रवाई के नाम पर निलंबन या लाइन हाजिर कर देने भर से इसका हल निकलता तो ये घटनाएं ही नहीं होतीं.

माहौल, गिरते मनोबल या लापरवाही तीनों के लिए जिम्मेवार कौन है. हम संगीन अपराधों के आंकड़ों की कमी को आधार बना कर अपनी पीठ जरूर थपथपा सकते हैं मगर थाने में हो रहे हादसों और सड़कों पर हो रही वारदातों के लिए कहीं ना कहीं किसी की लापरवाही तो जिम्मेवार है ही. जब तक उच्च स्तर पर जिम्मेदारी तय करने की परंपरा जोर-शोर से नहीं शुरू की जाती तब तक दिल्ली में अपराधों पर अंकुश लगाना मुश्किल है.

( आलोक वर्मा जाने-माने जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है )

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