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क्या RBI के कामकाज में सरकारें शुरू से ही ‘दखल’ देती रही हैं? 

रिजर्व बैंक को मॉनेटरी पॉलिसी बनाने और करेंसी मैनेज करने का जिम्मा दिया गया है, जबकि वित्तीय नीतियां सरकार बनाती है.

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कहा जा रहा है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) का कद छोटा कर दिया गया है. उसके दो पूर्व गवर्नरों ने यह बात कही है. वहीं नोबेल अवॉर्ड जीतने वाले अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा है कि अब सारे फैसले मोदी करते हैं और रिजर्व बैंक की बिल्कुल नहीं चलती. पूर्व गवर्नर सही हैं, लेकिन अमर्त्य सेन की बात गलत है.

1937 के बाद से सभी बड़े फैसले सरकारें करती आई हैं और इसमें अभी भी कोई बदलाव नहीं हुआ है. इतना ही नहीं, चार गवर्नरों का कार्यकाल बीच में ही खत्म किया जा चुका है. रिजर्व बैंक के पहले गवर्नर सर ऑसबोर्न स्मिथ को 1937, सर बेनेगल रामा राव को 1957, केआर पुरी को 1977 और आरएन मल्होत्रा को 1990 में कार्यकाल खत्म होने से पहले हटाया दिया गया था.

आज रिजर्व बैंक का जलवा कम होने की जो बातें हो रही हैं, उन्हें इनसे जोड़कर देखना चाहिए. सच तो यह है कि 1935 के बाद सभी गवर्नरों को सरकार के साथ तालमेल बिठाने में दिक्कत हुई है. दरअसल, उनकी जो जिम्मेदारियां हैं, उसके कारण दोनों में नहीं बनती.

रिजर्व बैंक को मॉनेटरी पॉलिसी बनाने और करेंसी मैनेज करने का जिम्मा दिया गया है, जबकि वित्तीय नीतियां सरकार बनाती है. इसलिए आरबीआई और सरकार के बीच टकराव होता है और यह बात किसी से छिपी नहीं है.
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1957 में वित्तमंत्री टीटी कृष्णमाचारी से विवाद के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आरबीआई गवर्नर बेनेगल रामा राव का इस्तीफा मंजूर किया था. तब से आरबीआई एक हद तक वित्त मंत्रालय का एक विभाग बनकर रह गया. आरबीआई को 2002 में फिर आजादी मिली, जब वित्तीय क्षेत्र में हुए सुधारों ने फाइनेंशियल इकोनॉमी के एक बड़े हिस्से को बदल डाला था.

दरअसल, गवर्नर सरकार के सेवक होते हैं. इसलिए केंद्र के साथ तालमेल बिठाना उनकी जिम्मेदारी है. सरकार के साथ झगड़े से कोई फायदा नहीं होगा, जैसा कि एक पूर्व गवर्नर ने कहा भी था कि उसे (आरबीआई को) जो आजादी मिली है, उसकी सीमाएं सरकार ने तय की हैं.

हिंदू परिवार की ‘पत्नी’ है आरबीआई!

रिजर्व बैंक के जितने भी गवर्नर हुए हैं, सबने माना कि मॉनेटरी पॉलिसी सिर्फ वही बना सकते हैं और इसका सरकार से कोई लेना-देना नहीं है. जब वे गवर्नर का पद संभालने के लिए रजिस्टर पर साइन करते हैं, तब उन्हें 1935 में मॉन्टाग्यू नॉर्मन की कही गई बात याद दिलानी चाहिए. उन्होंने कहा था कि आरबीआई को एक हिंदू संयुक्त परिवार की पत्नी की तरह होना चाहिए, जो सलाह तो दे सकती है, लेकिन उसे करना वही होगा, जैसा करने को कहा जाएगा.

नॉर्मन 1920 से 1944 तक बैंक ऑफ इंग्लैंड के गवर्नर थे. वह बहुत ताकतवर थे और सरकार गिराने का दम रखते थे. उनका मानना था कि बैंक ऑफ इंग्लैंड और आरबीआई के बीच ‘हिंदू मैरिज’ जैसा रिश्ता होना चाहिए, जिसमें बैंक ऑफ इंग्लैंड पति के रोल में होगा और आरबीआई की भूमिका ऐसी पत्नी की होगी, जो चुपचाप अपना काम करती है.

आपको शायद पता न हो आरबीआई का भी राष्ट्रीयकरण हुआ था. नेहरू सरकार ने 1949 में यह काम किया था. उससे पहले तक रिजर्व बैंक के प्राइवेट शेयरहोल्डर हो सकते थे.

उस समय आरबीआई ने राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था. उसने कहा था कि उसे समझ में नहीं आ रहा है कि राष्ट्रीयकरण क्यों किया जा रहा है, जबकि ‘सरकार के पास उससे अपनी बात मनवाने की सारी शक्तियां हैं.’

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रिजर्व बैंक को मॉनेटरी पॉलिसी बनाने और करेंसी मैनेज करने का जिम्मा दिया गया है, जबकि वित्तीय नीतियां सरकार बनाती है.
1980 के दशक की शुरुआत में जब मनमोहन सिंह आरबीआई गवर्नर बने, तो संस्थान और कमजोर हुआ.
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पूर्ण समर्पण

सरकार ने रिजर्व बैंक को अपनी ताकत पहली बार 1957 में दिखाई थी, जब टीटी कृष्णमाचारी वित्त मंत्री थे. उस समय जाने-माने आईसीएस ऑफिसर सर बेनेगल रामा राव गवर्नर थे. पहले दिन से ही उनकी कृष्णमाचारी से नहीं बनी और दोनों के रिश्ते कभी सामान्य नहीं हुए. राव अक्सर नेहरू से कृष्णमाचारी के रूखे व्यवहार की शिकायत करते थे.

दिलचस्प बात तो यह है कि एक बार टीटीके ने राव की मौजूदगी में खुद मौद्रिक नीति का ऐलान कर दिया, जैसे वह वहां हो ही नहीं. हैरानी की बात यह है कि रिजर्व बैंक ने जो मौद्रिक नीति बनाई थी, वह उससे बिल्कुल अलग थी. कई महीने तक दोनों के बीच झगड़ा चलता रहा. उसके बाद एक दिन टीटीके ने कहा कि बिल्स ऑफ एक्सचेंज पर स्टैंप ड्यूटी लगेगी. उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि इसका सरकार की आमदनी से कोई लेना-देना है और न ही उन्होंने इस बारे में संसद को सूचना दी.

राव ने टीटीके को मनाने की कोशिश की, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला. टीटीके ने संसद को बताया कि यह एक वित्तीय उपाय है और इसका मकसद आमदनी बढ़ाना नहीं है. अगर आपको टीटीके की बात समझ में न आई तो इसमें आपका कोई कसूर नहीं है क्योंकि इसका कोई मतलब है ही नहीं.

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इसके बाद राव ने एक चिट्ठी जारी की, जिसमें उन्होंने बताया था कि ‘अब से दो अथॉरिटीज बैंक रेट तय करेंगी.’ नेहरू के दखल देने के बाद यह विवाद खत्म हुआ, लेकिन कैबिनेट रूम में इस पर विचार करने के लिए एक मीटिंग बुलाई गई. टीटीके और राव का बाहर ही आमना-सामना हो गया. बीके नेहरू ने अपनी किताब में लिखा है, ‘टीटीके ने कहा कि राव को बता दिया जाए कि जहां तक उनकी बात है, रिजर्व बैंक वित्त मंत्रालय का एक विभाग है.’

इससे आहत और अपमानित राव ने इस्तीफा दे दिया, हालांकि नेहरू के मनाने पर वह इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी हो गए. इसके बावजूद टीटीके ने उन पर हमले जारी रखे. एक बार फिर राव ने इस्तीफा दिया और इस बार नेहरू को टीटीके का साथ देना पड़ा. उन्होंने राव से कहा- अगर आप जाना ही चाहते हैं तो जाइए. आप चाहें तो अपना औपचारिक इस्तीफा वित्त मंत्रालय को भेज सकते हैं. विडंबना यह है कि इस घटना से कुछ ही समय पहले नेहरू ने को-ऑपरेटिव्स लीडर वैकुंठ लाल मेहता को लिखा था कि आरबीआई के पास स्वायत्तता होनी ही चाहिए.

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इंदिरा गांधी और आरबीआई

12 साल बाद यह समस्या फिर खड़ी हुई, जब इंदिरा गांधी ने 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. इन बैंकों की पावर आरबीआई से केंद्र सरकार के हाथों में आ गई. जहां तक बैंकिंग की बात है तो आरबीआई गवर्नर को इसके बाद हाल ही में बने बैंकिंग डिपार्टमेंट के अदने ज्वाइंट सेक्रेटरी की बात मानने को मजबूर होना पड़ा. उस वक्त आरबीआई से बस करने के लिए राय ली जाती थी. अब वह बैकग्राउंड में और पीछे चला गया. उसका काम सिर्फ मॉनेटरी हाउसकीपिंग तक सीमित हो गया और वह सरकार का हुक्म बजाने वाला संस्थान बनकर रह गया था.

सिर्फ बैंकिंग पर ही आरबीआई का कंट्रोल खत्म नहीं हुआ था, उससे ब्याज दरें तय करने की आजादी भी छीन ली गई थी. यह भी सच है कि इस मामले में रिजर्व बैंक को कभी स्वायत्तता नहीं मिली. 1935 से 1952 तक बैंक रेट 3 पर्सेंट बना रहा, जबकि रिजर्व बैंक इस बीच रेट कई बार बढ़ाना चाहता था. हालांकि इंदिरा गांधी ने जिस तरह से यह अधिकार छीना, वह उससे काफी अलग था.

आरबीआई की पावर में अचानक भारी कमी की गई और इससे उसे जोरदार झटका लगा. यह शॉक ऐसा था कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कुछ दिनों बाद 23 जुलाई 1969 को जब आरबीआई बोर्ड की मीटिंग हुई तो उसका कोई रिकॉर्ड नहीं रखा गया. पूरी मीटिंग की डिटेल सिर्फ एक लाइन में दी गई, ‘बैंक राष्ट्रीयकरण अध्यादेश पर संक्षिप्त चर्चा हुई.’

1980 के दशक की शुरुआत में जब मनमोहन सिंह आरबीआई गवर्नर बने तो संस्थान और कमजोर हुआ. वह सरकार के प्रति पूर्ण समर्पण और उसकी हर आज्ञा मानने में यकीन रखते थे. हालांकि 1983 में वह भी सरकार के साथ टकराव से नहीं बच सके, जब आरबीआई की बैंक लाइसेंस देने की पावर करीब-करीब छीन ली गई थी. इस मामले में इस्तीफे की पेशकश करने के बाद मनमोहन सिंह ने वही किया, जो उनसे कहा गया.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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