कहते हैं कि वक्त बलवान होता है. वह कुछ भी करा सकता है. मुल्क के पाॅलिटिकल सिनेरियो में ऐसा कुछ नजर आ रहा है जो इस बात की जमानत है कि ‘वक्त सब पर भारी है’. कभी नदी के दो किनारे की तरह नजर आने वाली समाजवादी पार्टी(SP) और बहुजन समाज पार्टी (BSP) आज गठबंधन बनाकर एक साथ चुनाव मैदान में उतरने जा रही हैं.
मेन स्ट्रीम की पाॅलिटिक्स को ना-ना करने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा कांग्रेस की महासचिव बन कर उत्तर प्रदेश के उस पूर्वांचल को हैंडल कर रही हैं, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी आता है. प्रियंका का राजनीति में उतरना और एसपी-बीएसपी के गठबंधन की खिचड़ी बीजेपी को हजम नहीं हो रही है. हजम होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि यह राजनीति की जंग है और इसमें सब जायज है. ऐसे में अदालत जैसे पाक साफ प्लेटफाॅर्म या सीबीआई जैसी जांच एजेंसी के इस्तेमाल से भी किसी को गुरेज नहीं है.
एसपी-बीएसपी गठबंधन में दरार डालने की कोशिश
ताजा मामला बीएसपी सुप्रीमो मायावती से जुड़ा है. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लखनऊ और नोएडा में तमाम सार्वजनिक स्थानों पर लगायी गयी मायावती, कांशीराम और उनके चुनाव चिन्ह हाथी की प्रस्तर प्रतिमाओं को जनता के पैसों की फिजूलखर्ची माना और कहा कि इस मामले की पड़ताल कर 14 सौ करोड़ रूपये की राशि को मायावती से वसूला जाए. दिल्ली के एक अधिवक्ता की रिट पिटीशन पर दिये गये इस निर्देश पर खुद मायावती और बीएसपी के अलावा शायद किसी को कोई आपत्ति न हो. गठबंधन के बाद अब शायद एसपी के अध्यक्ष और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी एतराज न हो. लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक पेंच है. अखिलेश यादव ने सरकार में रहते हुए इन मूर्तियों और उस पर हुए खर्च पर काफी हाय तौबा मचाई थी. उन्होंने इस मसले की पड़ताल भी करायी थी, पर अफसोस की सरकार बदलने के साथ बुआ को अपने पाले में लेने की उनकी सारी प्लानिंग फेल हो गयी.
अब हालात दूसरे हैं. बुआ-भतीजे के अंदाज भी बदले हुए हैं. राग गठबंधन की जुगलबंदी कर रही ये जोड़ी अगले चुनाव में किंग मेकर होने का ख्वाब पाले हुए थी. ये दोस्ती कांग्रेस को भी रास नहीं आयी थी. क्योंकि दोनों दलों ने सबको साथ मिलाया, पर कांग्रेस को जरा भी लिफ्ट नहीं दी. दलील जरूर दी कि कांग्रेस के वोट इनके फेवर में तब्दील नहीं हो पाते और कांग्रेस को इनका एडवांटेज मिल जाता है. बहरहाल, गठबंधन के जश्न में डूबे लोगों को इस बात का जरा भी इल्म नहीं था कि कोई तो है जो इसमें दरार डालने का मौका साधे बैठा है.
मूर्ति प्रकरण उछलने से बुरे फंसे अखिलेश
इस पूरे प्रकरण में सबसे बुरी फंसी है अखिलेश यादव की. उनसे अब न तो थूकते बन रहा है और न निगलते. अब वो उस रिपोर्ट को गलत भी नहीं ठहरा सकते. गलत बताया तो अपने सारे पुराने फैसलों को कठघरे में खड़ा कर लेंगे. सही बताया तो गठबंधन से सत्ता हासिल करने का जो दिवास्वप्न देखा था, उस पर कुठाराघात होगा. ऐसे में एसपी-बीएसपी में रिश्ता बनने के साथ ही खटास आ जाने का अंदेशा हो गया है.
ये अलग बात है कि फिलहाल अखिलेश यादव ने चुप्पी साध रखी है तो मायावती ने भी खामोशी अख्तियार कर रखी है. दोनों ही लोग शायद एक दूसरे के अगले कदम की बाट जोह रहे हैं.
चुनाव आते ही वाड्रा के खिलाफ सक्रिय हो गई ED
ऐसा ही कुछ मसला कांग्रेस के साथ है. तकरीबन पांच साल से मनी लॉन्ड्रिंग केस अखबारों में उठता रहा, पर राॅबर्ट वाड्रा को ईडी के सामने तक न ला सकने वाली सीबीआई अचानक से कैसे सक्रिय हो जाती है यह देखना दिलचस्प था.
वाड्रा की पेशी की खबर को कुछ इलेक्ट्राॅनिक चैनल्स और अखबारों में दी जा रही हाइप इस बात की तस्दीक है कि वक्त बदल चुका है और कभी मिशन समझी जाने वाली पत्रकारिता अब पूरी तरह से बिक चुकी है.
फिलहाल प्रियंका गांधी का ये बयान बहुत अहम है कि, “अगर वो ये समझते हैं कि मेरे पति को परेशान किये जाने से मैं डर जाउंगी तो मैं उन्हें बता देना चाहती हूं कि डर मेरे खून में है ही नहीं. जनता इस पूरे प्रकरण को देख रही है और वो आने वाले चुनाव में इन सबका जवाब देगी.”
(लेखक विश्वनाथ गोकर्ण वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं. आलेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट की इससे सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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