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जामिया में 'जिन्ना की औलाद' नहीं, प्रेमचंद के आशिक हैं, बापू के बच्चे हैं

Jamia में 15 दिसंबर 2019 को हथियारों से लदे वो लाइब्रेरी की ओर जा रहे थे, काश कोई रुक कर बाईं तरफ देखता

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12 दिसंबर,2019 की शाम, दिल्ली की बढ़ती सर्दी में, जब मैं कम्बल ओढ़ कर सो रहा था, मेरी यूनिवर्सिटी की लड़कियां हॉस्टल का गेट तोड़ कर CAA के विरोध में सड़क पर प्रदर्शन करने पहुंच चुकी थीं. वो मलयाली भी थी, बंगाली भी और कश्मीरी भी.

कुछ समय बाद उस सर्दी का साथ देने के लिए तेज बारिश भी आ पड़ी, लेकिन उस सड़क पर लोग बढ़ते गए और कुछ बुलंद नारों के बीच एक बड़े आंदोलन की शुरुआत हुई.

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जामिया मिलिया इस्लामिया के गेट नंबर 7 और करीब के शाहीन बाग के विरोध स्थल अपने आप में ऐतिहासिक साबित हुए, लेकिन उससे पहले एक बदकिस्मत शाम इस आंदोलन के शुरू होने की बड़ी वजह बनी.

15 दिसंबर की वो शाम...

15 दिसंबर के बारे में लिखना मुश्किल है, क्योंकि बहुत कुछ पहले लिखा जा चुका है और बहुत कुछ कभी लिखा नहीं जा सकता. लेकिन एक बात बार-बार खटकती है. पुलिस के उस बेरहम हमले के दौरान उनकी इस्लाम और मुसलमानों से नफरत साफ जाहिर थी. वो जाहिर हुई उनकी लाठियां चलाने की फुर्ती से, कभी-कभी ही दिखने वाले जोश से, और खास कर उनकी गालियों से. इसमें भी कोई ताज्जुब नहीं है. लेकिन जब छात्रों को हाथ ऊपर करके परेड करवाया जा रहा था, उन्हें बहुत सी चीजों के साथ एक नाम से बहुत बार बुलाया गया- 'जिन्ना की औलाद'.

पता नहीं वो पुलिसकर्मी कहां तक पढ़े थे, लेकिन काश वो कुछ देर अगर रुक कर सुनते, तो हमारी यूनिवर्सिटी उन्हें हमारे बारे में बहुत कुछ कहती.

'जिन्ना नहीं, प्रेमचंद को पढ़ा है'

जब हथियारों और नफरत से लदे वो उस लाइब्रेरी की ओर जा रहे थे, काश कोई रुक कर बाईं तरफ देखता, तो एक तख्ती पर यूनिवर्सिटी की तारीफ लिखा पाता. किसी सज्जन ने इसके तामीर होने पर खुशी जतायी है और शुभकामनाएं व्यक्त की है. नीचे अपना नाम लिखा है 'प्रेमचंद'. मैं यहां ऐसे किसी को नहीं जानता जो जिन्ना के विचार को मानता हो, या कभी पढ़ता भी हो. लेकिन मैं जनता हूं कि अंदर अपने जख्मी दोस्त के खून को रोकने की कोशिश में, टॉयलेट में छुपे उस कांपते लड़के ने, प्रेमचंद को जरुर पढ़ा है. वो शायद ये भी जानता ही होगा कि इंसाफ के लिए आवाज उठाने की सजा यहां किस तरह से दी जाएगी, लेकिन खुद से पूछ लिया होगा शायद कि "क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?"

उसने बचपन से अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों को नजरअंदाज करके अपनी दादी के लिए चिमटा लाना सीखा है, ताकि उनके हाथ न जलें. आज अफवाह फैलाई जा रही है कि कैसे उसने एक बस के अंदर लोगों को जिंदा जला दिया.

क्या सोचते बापू?

थोड़ा पीछे पलटकर आते तो उन आंसू गैस के सफेद धुएं के पीछे एक और काली तख्ती छुपी मिलती. इस वाले के नीचे बस सादगी से लिखा है 'बापू'.

कहते हैं गांधी जी ने कहा था के मैं पूरे देश में भीख का कटोरा लेकर घूमूंगा लेकिन जामिया बंद नहीं होना चाहिए. पता नहीं आज ये सब देख कर कितने दिनों के लिए अपना खाना बंद कर देते. लेकिन क्या अब उनकी जिद के आगे हाथियार डालकर कोई माफी मांगने आता? इस बार जिन्होंने हिंसा की है वो तो बस वही बात फिर दोहराते कि "ऊपर से कुछ आदेश नहीं है." और अगर भूख हड़ताल के बाद भी बापू जिंदा बच जाते तो इस बार भी गोली से ही मरते. बस इस बार गोली 3 से ज्यादा पड़ती, क्योंकि उसका आदेश मंत्री जी ने खुद मंच से दिया है.

कुछ देर पहले एक लड़की के यहां नारे लगाने पर पुलिस की तरफ से उसपर पत्थर उछाल दिए गए. उसके दंगाई होने की पहचान जरुर उसके कपड़ों से की गई होगी. लेकिन उसने भी अपनी ओर आते उस पत्थर की पहचान कर ली है. बहुत बार पढ़ा है उसने इस पत्थर के बारे में. ये वही पत्थर है जो सावित्रीबाई और फातिमा ने अपने ऊपर खाया था, ताकि आज वो यहां पहुंच सके. वो जानती है कि अब खामोश रहना उनकी कोशिशों को बरबाद करना है.

गालिब को भी बहुत दर्द हुआ होगा

वैसे इस पूरे मंजर को जो खामोश रहकर एक ऊंचाई से देख रहे थे वो थे खुद गालिब. उसी लाइब्रेरी और गेट नं. 7 के बीच है गुलिस्तान ए गालिब, और उसके बीच-ओ-बीच वो बुत बनकर खड़े हैं. अलोचकों का कहना है कि 1857 में भी ऐसे ही बुत बन चुके थे गालिब. मैं नहीं मानता. हर रोज तमाशा होता होगा उनकी इस बच्चों के बाग दिखने वाली दुनिया में, लेकिन उनकी दिल्ली को छावनी में तबदील होते देख उन्हें बहुत दर्द हुआ था. आज भी हो रहा होगा. यहां भी तो रह ही रहे हैं कई सालों से. किसी रात में जब चांद पूरा निकलता और कोई अपने महबूब का हाथ पकड़े उस गुलिस्तान से गुजरता है, मैंने देखा है सबसे ज्यादा मिर्जा चमक उठते थे. अब रंग उड़ा हुआ सा लगता है. लगता है अब शेर कहना छोड़ दिया है. बस यही उम्मीद है कि वक्त पर शराब मिलती होगी.

क्या इनके करीब खड़े रहकर जो बंदूक चला रहा है उसने उनका कोई शेर पढ़ा होगा? अगर हां तो उनके किसी मोहब्बत भरे मिसरे ने उसके अंदर की नफरत कम कैसी नहीं की? लेकिन क्या ऐसा कुछ होना मुमकिन भी है? शायद हां. मिर्जा नौशा के मिसरों ने जो मोहब्बत घोली है, शायद उसके नशे में भी ये लोग नफरत के खिलाफ खड़े हुए हैं. बस यही उम्मीद है कि नशा टिका रहे.

गालिब के पैर यहां जमे रहने की शायद एक और वजह है. सड़क के उस पार वाले आहाते में, जहां वो देख रहे हैं, एक छोटी सी मस्जिद है. वो तो कब पहुंचेंगे वहां पता नहीं, लेकिन सुना है ये लाठी लेकर वहां पहुंच चुके हैं, और उसकी दीवारों में घुसकर नुकसान भी पहुंचा दिया है.

गुलशन-ए-खुसरो के फूलों को रौंदा गया

उस मस्जिद के ठीक सामने है गुलशन-ए-खुसरो. यहां दीवारे नहीं हैं. बस लोग आकार सुकून से बैठ जाते हैं. यहां फूल भी पीले और जाफरानी रंग के हैं अहले चिश्त के पसंदीदा रंग. आज वो भी collateral damage का शिकार बन गए. लाठियां इतनी जोर से चली यहां कि वो उखड़ के बिखर गए. कुछ शायद उस बंदूक से निकले हुए धुएं के जहर से मुरझा गए, और कुछ ये सब देख कर. लेकिन एक फूल ने उखड़ने से पहले जो ताज्जुब जताया है वो बड़ा दिलचस्प है. वो ये समझ नहीं सका कि जो लाठी उसकी ओर आ रही है वो भी तो उसके और इन पत्तों के बीच से निकली है. फिर क्या होता है उस कारखाने में ऐसा जहां इनकी मरम्मत करके एक रंग ओ रूप का बना दिया जाता है? क्या होता है उसके साथ जो वो उसके चलाने वाले हाथ के अलावा किसी को अब पहचानता ही नहीं?

इसके ठीक बगल में एक और बाग है, बाग-ए-नानक. यहां भी हर कोई बैठ जाता है सुकून से आकार. आज सबको लाइन से खड़ा किया है यहां, उन्हें भी जिनके पैर शायद कई महीनों तक अब खड़े नहीं रह पाएंगे. गाड़ी आने का इंतजार है, जो कहां ले जाएगी पता नहीं.
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सेवा की भावना से आए लोग

उस दिन के बाद से इस बाग में बैठ कर बहुत चर्चा और बहस होती रही है. और जब चाय पीने का दिल करता है, कैंटीन के बजाये लोग गेट नं. 7 के पास जो सरदार भाई प्रदर्शनकारियों को चाय बांट रहे हैं, वहां चले जाते हैं. वो अलग अलग राज्यों से आए हैं. कहते हैं उन्होंने जब से सुना है यहां क्या हो रहा है, बस सेवा करने आ गए. कहते हैं, नहीं आते तो गुरु नानक की हिदायत और भगत सिंह की शहादत का क्या मतलब रह जाता.

इन्होंने बंटवारे के परेशानियों को करीब से जाना है. उस बंटवारे में जिसमें जिन्ना का बड़ा हाथ था. लेकिन और भी कई विचारधारा और व्यक्ति थे जिन्हें मजहब के आधार पर देश का निर्माण चाहिए था. जिन्ना का सीधा समर्थन करने वाले बहुत चंद लोग, बहुत ढूंढने पर शायद मिल भी जाएंगे इतनी बड़ी आबादी में. लेकिन मजहब को नागरिकता का आधार मानने वाले तब भी वो ही थे और आज भी वो ही हैं. बल्की आज वो तख्त पर बैठे हैं.

कुछ जख्मी छात्र यहां चाय पीते हुए मुस्कुरा कर बात कर रहे हैं. जिस मंत्री ने उस फौज को यहां भेजा था वो अब स्टेज पर खड़े होकर भाषण दे रहे हैं. और इसीलिए वो पुलिसकर्मी अपने बंदूकों को दोबारा साफ कर रहे हैं.

लेखक इमाद उल हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं और जामिया मिलिया इस्लामिया के मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर के पूर्व छात्र हैं.

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