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आर्टिकल 370:संधि तोड़ना आसान है,भारत ने अमेरिका और चीन से सीख लिया

इसी अधिकार के तहत अब्दुल्ला को सत्ता से बेदखल किया गया था. इसी ताकत का इस्तेमाल कर J&K का मौलिक ढांचा बदला गया

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भारत हमेशा पूर्व रियासत जम्मू और कश्मीर पर अधिकार का दावा करता रहा है. दावे की बुनियाद महाराजा हरि सिंह के साथ की गई संधि थी. ये संधि दो स्वतंत्र निकायों के बीच आपसी सहमति से हुई थी. अधिकतर रियासतों के साथ संधि में बाद में उनके भारत में विलय पर सहमति बनी थी. लेकिन जम्मू और कश्मीर के साथ धारा 309 के तहत संधि हुई, जिसने बाद में संविधान की आर्टिकल 370 का रूप ले लिया. इस संधि में जम्मू और कश्मीर में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भारत के अधिकार की रूपरेखा शामिल थी.

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1953 में शेख अब्दुल्ला के निलंबन से आज तक

अपनी प्रामाणिक किताब Article 370: A Constitutional History of Jammu and Kashmir में एजी नूरानी ने लिखा था कि ये संधि विवादास्पद थी. जम्मू और कश्मीर के मामले में राष्ट्रपति को दिए गए अधिकार के मुताबिक दूसरे राज्यों की तुलना में जम्मू और कश्मीर की स्वायत्तता कम है. शेख अब्दुल्ला ने ये सवाल फौरन जवाहरलाल नेहरू और वीपी मेनन के सामने उठाया था.

इसी अधिकार के तहत अब्दुल्ला को 1953 में सत्ता से बेदखल कर दिया गया था और अब सरकार ने इसी ताकत का इस्तेमाल जम्मू और कश्मीर का मौलिक ढांचा बदलने के लिए कर दिया है.

पहला मामला एक मुखौटा की तरह था. 1951 में बनी जम्मू और कश्मीर संविधान सभा अपना काम करती रही, जिसके तहत 1954 में भारत में शामिल होने की औपचारिकता पूरी होने का रास्ता साफ होता रहा. 1957 में आर्टिकल 370 के तहत राज्य का संविधान लागू किया गया.

आज वो मुखौटा भी उतार फेंका गया. जम्मू और कश्मीर विधानसभा से कोई मशविरा नहीं किया गया. चयनित सदस्यों को उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया. जम्मू और कश्मीर पर आज लिए गए फैसले में थोड़ी भी वैधता शामिल नहीं है. ये मुमकिन भी नहीं है, क्योंकि पूरे कश्मीर में संचार के साधन ठप कर दिए गए हैं. सुरक्षा चैनल के अलावा संचार के सभी साधन बंद कर दिए गए हैं.

चीन ने किस प्रकार तिब्बत पर 17 सूत्री संधि तोड़ा था

कई तरह से ये हरकत 1951 में तिब्बत के प्रतिनिधियों और चीन के बीच 17 सूत्री संधि तोड़ने के समान थी. उस संधि में स्थानीय स्वायत्तता को मान्यता प्रदान की गई थी और स्थानीय राजनीति में बीजिंग की दखलंदाजी नहीं किए जाने की बात थी. 1959 में निर्वासन के बाद दलाई लामा ने इसका विरोध किया था, लेकिन उस वक्त तक चीन ने संधि की हर शर्त तोड़ दी थी.

दलाई लामा विरोध न भी करते तो संधि की सारी वैधता समाप्त हो चुकी थी. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो चीन और तिब्बत के बीच रिश्तों को परिभाषित करने वाले सभी दस्तावेज रद्दी का टुकड़ा बन चुके थे. तिब्बत में अपने शासन का विस्तार करते हुए चीन ने धीरे-धीरे सभी 17 सूत्रों की अनदेखी कर दी. उसकी ‘एक चीन’ नीति किसी संधि पर नहीं, बल्कि इस तर्क पर आधारित थी कि तिब्बत हमेशा से चीन का भाग रहा है. इस नीति को लागू करने के लिए सिर्फ और सिर्फ ताकत का इस्तेमाल किया गया.

चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के इस फैसले को चीन की कोई भी कोर्ट चुनौती नहीं दे सकती थी, क्योंकि चीन में न्यायपालिका पार्टी के अधीन थी. हालांकि भारत में ये स्थिति नहीं है, लेकिन इस फैसले को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को काफी निडरता दिखानी होगी.
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मूल अमेरिकी vs संयुक्त राज्य अमेरिका, “The Trail of Tears”

अब दूसरे विशाल लोकतंत्र, अमेरिका का उदाहरण लेते हैं. 1830 में अमेरिका ने Indian Removal Act पारित किया. इसके तहत अमेरिका के पांच मूल निवासी जनजातीयों को उनकी जमीन से बेदखल करना था (उनके अलावा किसी भी अफ्रीकी-अमेरिकी या गैर-श्वेत समुदाय शामिल थे). इन जनजातीयों को संयुक्त राज्य और अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट के साथ की गई संधि के आधार पर संरक्षण देना था. 1832 में Worcester vs Georgia केस के फैसले में साफ कहा गया था कि जॉर्जिया राज्य को चेरोकी प्रांत (पांच में से एक जनजातीय समुदाय) के साथ हुई संधि के मुताबिक उनकी स्वायत्तता में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है.

लेकिन इस फैसले की परवाह न तो जॉर्जिया को और न ही संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैकसन को थी. दरअसल उस इलाके में सोने की खोज हुई थी और सोना कानून से ज्यादा अहमियत रखता था. जैकसन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट “चाहे तो नया कानून बना सकता है. लेकिन ये कदम उठाना ही होगा.” इसके बाद जनजातीयों के साथ हुए संघर्ष में हजारों लोगों की मौत हुई, जो इतिहास के पन्नों में The Trail of Tears के नाम से मशहूर है.

तिब्बत के समान जिन लोगों ने सद्भाव में या मजबूरी में संधि पर दस्तखत किए थे, उन्होंने पाया कि जब सत्ता पर बहुमत के साथ तानाशाह नेतृत्व काबिज होता है, तो उसे कानून को परवाह नहीं होती.

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स्थानीय भावनाओं के अनादर की कीमत चुकानी पड़ेगी

कश्मीर मामले में इन्हीं प्रक्रियाओं के कुछ हिस्सों के फिर से सिर उठाने का जोखिम है. अमेरिका और चीन ने साबित कर दिया था कि इन परिस्थितियों में संधि और स्थानीय लोगों की भावनाओं को सम्मान देने के बजाय ताकत के इस्तेमाल से उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ. न तो अमेरिका के मूल जनजातीय निवासी और न ही तिब्बत सत्ता पर किसी प्रकार का गंभीर खतरा पैदा कर सके थे.

हालांकि अमेरिका में मूल निवासियों ने करीब एक सदी तक संघर्ष जारी रखा, लेकिन वो गरीब से गरीबतर होते गए, और उनकी संख्या भी कम होती गई. क्योंकि यूरोप से प्रवासियों का आना लगातार जारी रहा.

हालांकि चीन अपनी ‘एक चीन नीति’ को वैध ठहराने के लिए दुनिया के सामने अलग तर्क रखता है. उसका तर्क है कि वो तिब्बत के विकास के लिए भारी संसाधन खर्च करता है, जिनमें धार्मिक संस्थानों के सम्मान से लेकर तिब्बतियों के जानवरों को चराने के लिए चारागाह उपलब्ध कराना हो या फिर उनके रहने के लिए घरों का निर्माण करना हो.

1989 में अंतिम पंचेम लामा की मृत्यु के बाद उनके वारिस की तलाश के लिए एक सर्च कमेटी का गठन किया गया. बीजिंग की बनाई इस सर्च कमेटी की अध्यक्षता कैडरल रिनपोच के पास थी. CCP के नियंत्रण और निगरानी के बावजूद उन्होंने दलाई लामा के साथ संवाद जारी रखा और वारिस की तलाश की, जो बीजिंग को रास नहीं आया. उस बच्चे को फिर कभी नहीं देखा गया. चीन ने खुद पंचेम लामा की नियुक्ति की, जिसकी विश्वसनीयता हमेशा से कम रही.

केंद्र सरकार कितनी भी ताकतवर क्यों ना हो, स्थानीय भावनाओं का सम्मान करना जरूरी है. इसे ही लोकतंत्र कहते हैं. इसकी अनदेखी की भारी कीमत चुकानी पड़ती है.
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बंदूक के जोर पर ताकत

इस कदम के बाद मुख्यधारा में कश्मीर के सभी राजनीतिक नेताओं की वैधता खत्म हो जाएगी. दशकों से अलगाववादियों और आतंकवादियों का दावा रहा है कि वो सिर्फ कठपुतलियां हैं, जो अपने ही लोगों को गुलाम बनाने का साधन रहे हैं. हम कश्मीर पर अपना अधिकार बनाए रख सकते हैं. इसके लिए हमारे पास सैन्य ताकत है. 1989 में आतंकवाद शुरु होने के बाद से सेना की ताकत काफी बढ़ी है, लेकिन हमें स्थानीय लोगों की पसंद के मुताबिक कश्मीरी नेतृत्व देखने को नहीं मिलेगा.

वो कैडरल रिनपोच की तरह मान्यता प्राप्त नेतृत्व के दायरे से बाहर वैधता की तलाश करते रहेंगे. ये तलाश राज्य के उन्हीं स्थानीय निवासियों के बीच होगी, जिन्हें केंद्र ने दुश्मन करार दे रखा है. और जिनके साथ निर्ममता से ताकत का इस्तेमाल होगा, जो किसी भी शांतिपूर्ण राजनीतिक बदलाव और सामान्य माहौल स्थापित करने की कोशिशों के विरुद्ध होगा.

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सरकार का माओ की तरह कानून या संविधान में भरोसा कम है. माओ ने कहा था, ‘Power flows from the barrel of a gun.’ अब सिर्फ बंदूक की नोक ही बची है, लोकतंत्र नहीं.

(ओमैर अहमद भारतीय लेखक हैं, जिनकी किताब Jimmy the Terrorist का चयन 2009 के मैन एशियन लिटरेरी पुरस्कार के लिए किया गया था. उन्हें @OmairTAhmad पर ट्वीट किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके निजी हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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