कांग्रेस पार्टी के बारे में लिखने में सबसे बड़ी मुश्किल ये होती है कि विश्लेषण और समालोचना की जगह समीक्षक पार्टी को सलाह दे बैठते हैं, जिसकी इसे जरूरत नहीं है. इसलिए मैं खुद को विश्लेषण तक सीमित रखूंगा.
सिंधिया ने क्यों किया कांग्रेस छोड़ने का फैसला?
ज्योतिरादित्य सिंधिया की शिकायत थी कि उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया गया. मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का मौका हाथ से जाने के बाद वह दुखी थे और मुख्यमंत्री कमलनाथ ने उनके साथ बातचीत बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं समझी और उन्हें खुश रखने के लिए सत्ता में साझेदारी करने का भी कोई मौका नहीं दिया. कमलनाथ हमेशा इस गलतफहमी में रहे कि सिंधिया विधायकों के छोटे गुट को भी अपने पाले में करने में कामयाब नहीं होंगे - जो कि उनकी सरकार गिराने के लिए काफी हो - क्योंकि सभी विधायकों से वह सीधे संपर्क में थे. इन दोनों नेताओं के दिल कभी नहीं मिल पाए.
दिल्ली में बैठकर फैसला लेने वाले कांग्रेस के नेता जानते थे कि सिंधिया, दूसरे युवा नेताओं की तरह, दुखी हैं और हमेशा उनसे बातचीत जारी रखनी चाहिए और जरूरत पड़ने पर इस मामले में दखल देना चाहिए.
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की बनावट अंदर के नेताओं के लिए भी इतनी उलझी हुई है कि किसी को पता नहीं किस मसले पर किससे बात करनी है. कमलनाथ और अशोक गहलोत सोनिया गांधी के करीबी माने जाते हैं, ऐसे में राहुल गांधी को लगा होगा कि इन राज्यों में पार्टी के मामलों पर फैसला लेना उनकी जिम्मेदारी नहीं है.
बीजेपी से पार्टी को बचाने में कांग्रेस क्यों नाकाम रही?
बीजेपी लगातार कांग्रेस पर चौतरफा हमले करती रही है, हालांकि कांग्रेस कम ही पलटवार करती है. इसकी बड़ी वजह है नेतृत्व की बनावट की समस्या का हल नहीं हो पाना. पिछले दो दशकों से पार्टी में उत्तराधिकारी के लिए ट्रांजिशन फेज थमा नहीं है.
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी के कामकाज और रवैये में बहुत फर्क है. राहुल राजनीतिक फैसलों से पहले विचारधारा की स्पष्टता चाहते हैं. इसमें लंबा समय लगता है इसलिए सोनिया और दूसरे वरिष्ठ और अनुभवी नेता चाहते हैं कि पार्टी का संचालन चलता रहे, विचारधारा का व्याकरण बाद में भी ढूंढा जा सकता है.
कुल मिलाकर पार्टी नेता अंधेरे में ऐसा रास्ता तलाश रहे हैं जो कि लोगों को अपील करे, जिससे जवाबी रणनीति और रोजाना के कामकाज की नीति साफ हो. कभी-कभार पार्टी में गतिविधियां और बयानबाजी तेज जरूर होती हैं लेकिन वो बीजेपी की तरफ से रोज-रोज और घंटे-घंटे जारी रहने वाले प्रोपेगैंडा के शोर में दब जाती हैं.
विपक्ष की राजनीति के लिए हमेशा जगह और मौके होते हैं. अगर कोई नया विचार ना भी हो तो मोदी के कायदों की नकल से भी इतना मौका तो मिल ही जाता है कि खेल में बना रहा जाए, लेकिन कांग्रेस को ये भी नहीं समझ में आता. क्यों? सिर्फ इसलिए क्योंकि पार्टी के लिए फैसले लेने वाले नेताओं की बड़ी फौज हर स्तर पर होने वाली अंदरूनी लड़ाइयों को संभालने में ही लगी रहती है और विडंबना ये है कि इन छोटे-छोटे गुटों की जनता में कोई पकड़ नहीं है लेकिन एक-दूसरे के खिलाफ शिकायतों का अंबार लगा रहता है.
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ऊर्जा इन सब बातों में ही खत्म हो जाती है, जबकि पार्टी में ऐसी शार्प मेमोरी वाले लोग कम ही हैं जो बीजेपी की चुनौतियों को ठीक तरह से समझ सकें, जिसने राजनीति को डायरेक्ट मार्केटिंग का खेल बना दिया है.
बीजेपी का शिकार यहीं नहीं खत्म होने वाला
नेहरू-गांधी परिवार से चलने वाली कांग्रेस का सफाया बीजेपी की प्राथमिकता है. बीजेपी को पता है कि देश में हवा का रुख बदलते ही सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस को होने वाला है और नेहरू-गांधी वंशावली इसकी बहुत बड़ी वजह मानी जाती है. बीजेपी हर तरह की विपक्षी पार्टियों से, हर तरह के कांग्रेसी नेताओं से भी, समझौते के लिए तैयार है लेकिन गांधी परिवार से नहीं. अगर आप बीजेपी के नेताओं को गौर से सुनें तो वे कांग्रेसी नेताओं को पार्टी से बगावत करने या इसे छोड़ने के लिए उकसाने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
बीजेपी बहाली कैसे करती है?
जगन रेड्डी, हेमंत बिस्वा शर्मा और दूसरे नेताओं के बाद सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना इस पार्टी के लिए काफी बड़ा नुकसान है. उधर बीजेपी कांग्रेस के नेताओं को पार्टी में मिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. स्वर्गीय एनडी तिवारी, एसएम कृष्णा और नारायण राणे तो आपको याद ही होंगे. पार्टी की हर चाल पूरी तरह सोची समझी और समय के मुताबिक होती है.
ऐसी बहाली के लिए बीजेपी का पैमाना बिलकुल साफ है – कोई शख्स पार्टी क्यों छोड़ना चाहता है? क्या वो महत्वाकांक्षी है और उसमें सत्ता की भूख है? क्या वो भावनात्मक वजहों से पार्टी में दुखी है और अगर उसे सम्मान मिले तो पार्टी छोड़ सकता है? क्या वो भ्रष्ट है और पैसे के लिए पार्टी या सरकार में कोई पद मिले बिना भी शामिल हो सकता है? क्या उसकी कोई कमजोरी या कोई राज है? और बीजेपी को उसे शामिल करने से क्या फायदा होगा?
सबसे बड़ी बात ये है कि सिंधिया जैसे लोगों को पार्टी में शामिल करने से पहले बीजेपी बहुत गंभीर तरीके से गुणा-भाग करती है. फायदे का असर भी दिखना चाहिए. सबसे ताजा मामले में, बीजेपी को मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्य में दोबारा सरकार मिलती दिख रही है. इसके बदले में सिंधिया को केंद्र सरकार में मंत्री पद दिया जा सकता है.
बीजेपी के अगले लक्ष्य के बारे में हमें नहीं पता. राजस्थान में मामला कुछ ऐसा ही है लेकिन महाराष्ट्र की कहानी अलग है. जो हम जानते हैं वो ये कि सिंधिया के कद के नेता के लिए बीजेपी में रहना और उसकी संस्कृति में ढलना बड़ी मशक्कत वाला काम होगा.
अगर सिंधिया बीजेपी में शामिल होते हैं तो राजनीतिक गलियारों में यह सवाल तो उठेगा कि उन्होंने थोड़ा नेगोशिएट कर अपनी एक छोटी पार्टी बनाकर एनडीए में शामिल होने की बात क्यों नहीं सोची?
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