जब भी भारतीयों को कहीं दंगा खड़ा करना होता है, देश को टुकड़ों में बांटना होता है या फिर देश की आर्थिक प्रगति में रुकावट डालनी होती है, तो आरक्षण के मुद्दे को हवा देने से बेहतर रास्ता उन्हें मिल ही नहीं सकता.
हाल ही में आंध्र प्रदेश में ओबीसी का दर्जा दिए जाने की मांग करता कापू आंदोलन इस यकीन को मजबूत करता है.
31 जनवरी को कापू प्रदर्शनकारियों ने रत्नाचंल एक्सप्रेस की 8 बोगियों को आग लगा दी, पुलिस थाने जला दिए, ड्यूटी पर तैनात पुलिस अफसरों पर हमले किए, रेलवे यातायात को बाधित किया और सरकारी संपत्ति को जान-बूझकर नुकसान पहुंचाया.
इस दौरान देश को 650 करोड़ का नुकसान हुआ. पिछले साल जुलाई-सितंबर में हार्दिक पटेल ने भी यही किया था. उसने भी हजारों पाटीदारों को ओबीसी दर्जे की मांग के लिए भड़काया. उसके बाद जो हुआ, वह किसी हादसे से कम न था.
पुलिस फायरिंग में प्रदर्शनकारियों की जानें गईं, ट्रेनों पर हमले हुए, बसों और इमारतों में आग लगा दी गई और दुकानों को लूट लिया गया. कई शहरों में कर्फ्यू लगाने की नौबत आ गई थी. अंत में देश को 850 करोड़ का नुकसान हुआ.
इसी तरह सरकारी नौकरियों में ओबीसी वर्ग के अंतर्गत आरक्षण मांगने के आंदोलन को जाटों ने भी सालाना रिवाज बना लिया है. वे राष्ट्रीय राजमार्गों का चक्काजाम करके, रेलवे यातायात बंद करके, देश की राजधानी को देश के पश्चिमी हिस्से से काट देते हैं.
पड़ोसी राजस्थान में भी ओबीसी दर्जा न दिए जाने की स्थिति में जाटों ने आंदोलन को और भीषण बनाने की धमकी दी है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसके विपरीत आदेश दिए हैं.
आरक्षण आंदोलनों की बढ़ती ‘कीमत’
विद्रोही रिटायर्ड कर्नल की अगुवाई में 2007 से गुर्जर भी ओबीसी कोटे के तहत सरकारी नौकरियों में 5 फीसदी आरक्षण की मांग करते आ रहे हैं. मई 2015 में कर्नल के लुटेरे दस्ते ने 10 दिन चक्का जाम करके खजाने को 280 करोड़ का नुकसान पहुंचाया था, जबकि 50 लोगों की जान गई थी और 100 घायल हुए थे.
महाराष्ट्र में मराठे अलग 16 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहे हैं. हास्यास्पद रूप से ब्राह्मण, ठाकुर, वैष्णव, सिंधी, कौसर, सोनी और रघुवंशी भी आरक्षण के खरबूजे में अपना हिस्सा मांगने लगे हैं.
कभी न खत्म होने वाले आरक्षण आंदोलन
- सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग आर्थिक प्रगति के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है. नौकरी में आरक्षण की सबसे ताजा मांग आंध्र प्रदेश के कापू समुदाय से उठी है.
- पिछले कुछ सालों में हरियाणा के जाट, राजस्थान के गुर्जर, गुजरात के पाटीदार, महाराष्ट्र के मराठे आदि भी ओबीसी कोटे की मांग करते रहे हैं.
- यह कहने की जरूरत नहीं कि आरक्षण आंदोलनों की आग पर राजनेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं, जिसका हर्जाना टैक्स भरने वालों के पैसे से चुकाया जाता है.
- आंदोलनों में होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए सरकार को अलग से टैक्स लगाने के बारे में सोचना चाहिए.
आरक्षण और राजनीति का घालमेल
आरक्षण को अमीर होने का आसान जरिया समझने वाले इन समुदायों के इस लालच को राजनेताओं ने बहुत जल्दी समझ लिया. चंद्रबाबू नायडू ने वादा किया था कि वे सत्ता में आए, तो कापू समुदाय को ओबीसी का दर्जा दिया जाएगा.
कापू कार्यकर्ता जगमोहन रेड्डी और पद्मनाभन अब नायडू को याद दिला रहे हैं कि वादा पूरा करने का वक्त आ चुका है.
2003 में कांग्रेस के भूपेंदर सिंह हुड्डा ने हरियाणा के जाटों को ओबीसी का दर्जा दे दिया था, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने राजस्थान के जाटों को ओबीसी का दर्जा दिया, जिसे बाद की अशोक गहलौत की कांग्रेस सरकार और वसुंधरा राजे की बीजेपी सरकार ने बनाए रखा.
राजे ने एक कदम आगे बढ़कर आर्थिक रूप से पिछड़ी, ऊंची जातियों को भी 14 फीसदी आरक्षण दिया. महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी ने मिलकर मराठाओं को 16 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक सामने रख दिया, जिसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेद्र फड़नवीस ने जुलाई 2014 में पास भी करा लिया. पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी.
सियासी फायदा उठाने के इस खेल में कमोबेश हर राजनेता एक षड्यंत्रकारी जैसा है. पर आश्चर्यजनक रूप से गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने पाटीदारों से ऐसा कोई वादा नहीं किया, जिसकी सियासी कीमत शायद उन्हें जल्दी चुकानी पड़ जाए.
50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता आरक्षण
साफ है कि राजनेता आरक्षण का झंडा उठाकर चलने वाले मुखियाओं को बेवकूफ बना रहे हैं. सभी जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ओबीसी/एसटी/एससी को 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दे सकता. पर लोग फिर भी इस झूठी आस के साथ आंदोलन कर रहे हैं कि एक दिन सुप्रीम कोर्ट तंग आकर इस सीमा को बढ़ा देगा.
दूसरी कड़वी हकीकत यह है कि वर्तमान ओबीसी/एसटी/एससी नेता कभी भी दूसरे समुदायों को अपने हिस्से के आरक्षण को साझा नहीं होने देंगे. तो फिर कापू, जाट, पटेल या मराठों की मांग कैसे पूरी हो सकती है?
एक तरीका यह है कि राज्य भी आंदोलनकारियों के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाए. लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट ने यह दबाव स्वीकार करने से इनकार कर दिया, तो कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों को देश की संपत्ति और अर्थव्यवस्था बचाए रखने के लिए नाकों चने चबाने पड़ जाएंगे.
एक और टैक्स की जरूरत?
दूसरा उपाय है कि कापू जैसे समुदायों को पहले से मौजूद ओबीसी ढांचे में जगह दे दी जाए. हालांकि हमेशा आपस में लड़ते रहने वाले देश में इस व्यवस्था को स्वीकार करने की संभावना भी कम ही है.
एक आखिरी रास्ता: 29 फरवरी को जब वित्तमंत्री अरुण जेटली आम बजट पेश करें, तो ऐसे आंदोलनों के दौरान होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए एक नए टैक्स की घोषणा करें, क्या पता इस बहरे समाज को कुछ सुनाई दे जाए.
(लेखक केंद्रीय सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं.)
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