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लव जिहाद: कानून की बात से याद आते हैं इतिहास के कुछ काले अध्याय  

लव जिहाद पर कानून भारत के सामाजिक ताने-बाने को जो नुकसान पहुंचाएंगे, वो डरावना है  

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अंतरधार्मिक जोड़े अपने समुदाय के बाकी लोगों से ‘तिरस्कार और उत्पीड़न का हर दिन सामना करते हैं.’ छोटी-छोटी घटनाएं जैसे दंपति को परेशान करना, तब तक परेशान करना जबतक कि वो साथ........ जाना न छोड़ दें, नियमित तौर पर होती रहीं. कुछ टकराव हिंसक भी हुए जब.......... पुरुष और उनकी महिला मित्र पर सड़क पर हमला किया गया और अलग...... के व्यक्ति के साथ उनके सामाजिक और यौन संबंधों का ऐलान कर उन्हें शहर में घुमाया गया. सामुदायिक अस्वीकृति ...............कानून लागू होने के पहले से ही शुरू हो गए थे, उनके पारित होने के कारण अंतरधार्मिक जोड़ों ने ये तय किया कि जब उनका रिश्ता एक बोझ और खतरे का कारण बन गया है तो अलग होना ही बेहतर होगा.”

इस बात की संभावना है कि ऊपर की खाली जगहों को भरना आपके लिए काफी आसान होगा, इसके लिए ‘लव जिहाद’ कानून के बारे में आ रही खबरों का धन्यवाद जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सहित कई भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य लागू करने की योजना बना रहे हैं.

हालांकि जो अंश यहां लिखा गया है वो मौजूदा भारतीय आतंक से संबंधित नहीं है बल्कि रिचर्ड डी हेइडमैन के शब्द हैं, जिसमें नाजी जर्मनी के न्यूरेमबर्ग लॉ के प्रभावों के बारे में पैट्रिसा सोबोर के विस्तृत रिसर्च का हवाला दिया गया है. अगर आप अभी न्यूरेमबर्ग शब्द को सुनते हैं तो इसकी संभावना है कि आप खुद ही 1946 के न्यूरेमबर्ग ट्रायल्स के बारे में सोचेंगे जहां इंटरनेशनल मिलिट्री ट्राइब्यूनल्स ने प्रमुख नाजियों पर मानवता के खिलाफ अपराध और युद्ध अपराध के लिए मुकदमा चलाया था.

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हालांकि, उन सुनवाइयों के एक दशक पहले न्यूरेमबर्ग एक दूसरे कारण से बदनाम हो गया-जो उन सुनवाइयों के लिए इस शहर को चुने जाने की पसंद को प्रभावित नहीं करता था.

1935 में उस समय की अपनी प्रथा के मुताबिक होने वाली वार्षिक रैली में, नाजियों ने दो कानूनों, रीच सिटिजनशिप लॉ और लॉ फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्मन ब्लड जर्मन ऑनर का एलान किया, जो उनके सिद्धांत के लिए जरूरी था. इन कानूनों को सामूहिक रूप से न्यूरेमबर्ग लॉज के नाम से जाना गया.

रीच सिटिजनशिप लॉ जर्मनी को लेकर उनके विजन की साफ तौर पर आधारशिला थी. इसमें जर्मनी की नागरिकता को जर्मन के या संबंधित खून वाले व्यक्ति तक सीमित कर दिया गया जिसके कारण यहूदी (और रोमा जैसे समुदाय भी) इससे बाहर हो गए थे.

इसमें नागरिकता के लिए ये भी शर्त रखी गई थी कि एक व्यक्ति को अपने व्यवहार से ये साबित करना होगा कि वो जर्मनी के लोगों और देश (रीच) की ईमानदारी सेवा करना चाहते हैं और इसके लिए योग्य थे -जिसका प्रभावी तौर पर मतलब ये है कि विरोध (आर्यन वंश के लोगों के बीच भी) करने पर आपकी नागरिकता जा सकती है जो कि एक सत्तावादी सरकार के लिए शक्तिशाली हथियार है.दूसरी तरफ लॉ फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्मन ब्लड एंड जर्मन ऑनर के दायरे सीमित थे लेकिन ये किसी तरह से कम महत्वपूर्ण नहीं थे.

इस कानून में यहूदियों और ‘जर्मन ब्लड’ के लोगों के बीच शादी और शादी के बाद के संबंधों पर पाबंदी थी. कानून का उल्लंघन करने वालों को कठोर श्रम के साथ जेल की सजा दी जानी थी.

इस कानून के पीछे का उद्देश्य जर्मन महिलाओं और जर्मन लड़कियों की ‘जाति को अपवित्र होने से रोकना’ था और इस तरह शुद्ध जर्मन लोगों को बचाना सुनिश्चित करना था. सामान्य रूप से महिला-पुरुषों में अंतर न करने वाला होने बावजूद, यहूदी पुरुषों के आर्यन महिलाओं को निशाना बनाने का डर इस बात में देखा जा सकता है कि कैसे कानून ने विशेष रूप से यहूदियों पर 45 साल से कम उम्र की जर्मन महिलाओं के उनके घरों में काम करने पर रोक लगाई थी, साथ ही साथ कानून को लागू करने को लेकर प्रचार भी किया गया था.

उदाहरण के लिए नाजी मीडिया के चहेते जूलियस स्ट्रीचर ने ये कानून क्यों जरूरी है इसपर अपने अखबार के स्पेशल एडिशन के प्रमोशन के लिए छापे गए पोस्टर में लिखा “ यहूदी क्यों जर्मन महिलाओं को बड़े स्तर पर व्यवस्थित तरीके से जाति को अपवित्र करने के लिए उकसाते हैं.”

आप इस डर से परिचित होने वाले अकेले नहीं होंगे

नस्लों की मिलावट के खिलाफ कानूनों की शर्मनाक परंपरा

नाजी जर्मनी शायद ही पहला देश हो, जहां नस्लों की मिलावट- यानी अलग-अलग नस्लों के बीच शादी और संबंधों को रोकने के लिए कानून थे जो नस्लीय शुद्धता को प्रभावित करने वाले माने जाते थे.

 लव जिहाद पर  कानून भारत के सामाजिक ताने-बाने को जो नुकसान पहुंचाएंगे, वो डरावना है  

नाजी जर्मनी से काफी पहले अमेरिका के अधिकांश राज्यों में अलग-अलग नस्लों के बीच शादी (खासकर गोरों और अफ्रीकन अमेरिकन के बीच) रोकने को लेकर कानून थे. बाद में कई राज्यों ने इन कानूनों को खत्म कर दिया लेकिन 16 राज्यों ने नाजियों के हारने के बाद भी ऐसे कानूनों को खत्म नहीं किया था.

1967 में आखिरकार अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कानूनों को लविंग वर्सेस वर्जीनिया मामले में फैसला देते हुए खत्म कर दिया, इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग नस्लों के बीच संबंधों को रोकने के पीछे के अप्रमाणिक विज्ञान की व्यापक आलोचना की और शादी के मौलिक अधिकार को मान्यता दी.

रंगभेद के दौर में दक्षिण अफ्रीका में कानून तोड़ने वालों के लिए आपराधिक दंड के साथ अपने चार नस्लीय वर्गीकरण (श्वेत, अश्वेत, भारतीय और काले) के बीच शादी को रोकने वाला एक कानून भी था।

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ये समझना अहम है कि इस कानून की बारीकियां वास्तव में प्रासंगिक नहीं हैं

किस नस्ल को वास्तव में निशाना बनाया गया, उनमें कितनी नस्लें रखीं गईं, ठीक-ठीक सजा क्या थी- इन विवरणों में से कोई भी दरअसल ठीक नहीं था, क्योंकि विवरणों को तोड़ा-मरोड़ा जा सकता था और अगर जरूरी हो तो कानून के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उनमें बदलाव किया जा सकता था.

ये अमेरिकी अदालतों में देखा जा सकता था कि कैसे अफ्रीकी-अमेरिकियों के श्वेत महिलाओं से शादी करने से रोकने वाले कानून का उल्लंघन करने के आरोपी पुरुषों के होंडुरास और हैती के होने की दलीलों को नजरअंदाज कर दिया जाता था या कैसे नाजी यहूदियों के कोई और धर्म अपना लेने के बाद भी किसी न किसी तरह से यहूदी ही मानते रहे.

इन कानूनों के पीछे उद्देश्य कुछ समुदायों को अलग करना और सत्ता (अमेरिका और जर्मनी दोनों में बहुसंख्यक समुदाय) में रहने वाले समुदाय के मुकाबले उसे कमतर वर्गीकृत करना था और सत्ता में रहने वाले समुदायों के साथ उनके मिश्रण को रोकना था.

इससे उनके खिलाफ नफरत को बढ़ाने और उनके साथ भेदभाव करने में आसानी होगी क्योंकि उन्हें अब बराबर वालों के रूप में नहीं देखा जाएगा। बदले में कानूनों का दंडात्मक पहलू भय और उत्पीड़न का माहौल पैदा करेगा जो इन अन्य उद्देश्यों को लागू करेगा.

उन सभी के बीच एक और समानता एक शातिर पितृसत्तात्मक विकृति थी, जिसने इस बात के आधार पर ऐसी शादियों का हिस्सा बनने वाली महिलाओं की स्वतंत्रता की अवहेलना की कि उन्हें दूसरे समुदाय के पुरुषों द्वारा अपवित्र किया जा रहा है और निशाना बनाया जा रहा है.

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प्रस्तावित लव जिहाद कानून

लव जिहाद, जिसकी फिलहाल देश के पांच राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और असम में बात चल रही है. इस बात को देखते हुए कि ‘लव जिहाद’ अपने आप में एक अपरिभाषित, अमान्य अवधारणा है, यहां तक कि बीजेपी के लिए भी, ये स्वाभाविक है कि प्रस्तावित कानून (कम से कम उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लिए) धर्मांतरण पर सवाल उठाने और विवाह के लिए धर्मांतरण को अवैध बनाने पर केंद्रित है.

शुरुआत में ही, ये साफ कर दें कि ऐसे किसी भी कानून के लिए कोई कानूनी आधार नहीं है, चाहे इसमें जरूरत से ज्यादा पाने की चाह शामिल होने के कारण या ये तथ्य कि वास्तविक अवैधता पहले से ही मौजूद कानूनों, जैसे जबरदस्ती धर्मांतरण और आइपीसी के तहत आपराधिक धमकी के आरोप के खिलाफ राज्य सरकारों के कानूनों के तहत आते हैं.

जब तक आपसी सहमति वाले दो वयस्क शामिल हैं, निजता का अधिकार और अपनी पसंद के किसी धर्म या मत के पालन का अधिकार राज्य, कोर्ट, दक्षिणपंथी गुंडों और यहां तक कि दंपति के परिवारवालों के हस्तक्षेप को भी रोक देता है-कानून के लिए कितने भी रचनात्मक शब्द क्यों न लिखे जाएं इसे बदला नहीं जा सकता.

लेकिन जब लव जिहाद कानून की बात आती है तो वैधानिकता पर विचार नहीं किया जाता और इसका प्रचार करने वालों के लिए ये कभी चिंता का विषय नहीं रहा. और यही वो जगह है जहां नए प्रचारित किए जा रहे कानून नस्लों की मिलावट विरोधी कानूनों जैसे दूसरे न्यूरेमबर्ग कानून या अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद कानून के जैसे नजर आते हैं.

हम क्या खतरा उठाने जा रहे हैं

अब आप ये भी बोल सकते हैं कि दोनों की बराबरी नहीं हो सकती, क्योंकि वो कानून धर्म के बजाए नस्ल पर आधारित थे. हालांकि जैसे कि पहले चर्चा की गई है उन कानूनों की बारीकियां कभी मुद्दा नहीं थी. उनका उद्देश्य एक विशेष समुदाय को निशाना बनाना था, उनके और जो समुदाय सत्ता में है उनके बीच विभाजन को बढ़ाना था और भेदभाव को आसान बनाना था. लव जिहाद की बहस भी ठीक यही करती है.

मुस्लिम पुरुषों से डर पर जोर देते हुए ये मानने के लिए मजबूर किया जा रहा है कि हिंदू महिलाओं और उनके सम्मान की ‘रक्षा’ के लिए ये कानून जरूरी है-इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा रहा है कि अलग-अलग धर्मों के दो वयस्कों को आपसी सहमति से शादी करने का हक है.

इन नए ‘लव जिहाद’ कानूनों के जरिए अंतरधार्मिक दंपतियों के उत्पीड़न को शक्ति देना भी एक और समानता है. क्या आपको इस आर्टिकल की शुरुआत का वो हिस्सा याद है जिसमें खाली जगहें थीं?

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अंतरधार्मिक जोड़े अपने समुदाय के बाकी लोगों से ‘तिरस्कार और उत्पीड़न का हर दिन सामना करते हैं. सामुदायिक अस्वीकृति न्यूरेमबर्ग कानून लागू होने के पहले से ही शुरू हो गए थे, उनके पारित होने के कारण कई अंतरधार्मिक जोड़ों ने ये तय किया कि जब उनका रिश्ता एक बोझ और खतरे का कारण बन गया तो अलग होना ही बेहतर होगा

ऐसे बिना किसी कानून के ही हम एंटी रोमियो स्क्वाड से लेकर बजरंग दल और दूसरे दक्षिण पंथी समूहों के हाथों लोगों का उत्पीड़न देख चुके हैं और हमें नहीं भूलना चाहिए शंभू लाल रैगर (जिसके समर्थन में स्थानीय समुदाय के लोग बड़ी संख्या में आ गए थे और लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार भी बनाया था) के हाथों मोहम्मद अफरजूल की भयानक हत्या.

अगर किसी कानून के जरिए इस तरह के उत्पीड़न को वैधता दी जाती है तो भारत में भी अलग धर्म में शादी करने वाले दंपति इस तरह के उत्पीड़न से बचने के लिए अलग होने को मजबूर हो जाएंगे जिसमें अब जेल जाने का खतरा भी शामिल हो जाएगा और भारत की खराब आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ संघर्ष करने को मजबूर होना पड़ेगा.

अंतर धार्मिक शादियों पर वास्तविक पाबंदी की कमी अप्रासंगिक है-कि एक आपराधिक कानून को सिर्फ इसलिए लागू किया जा सकता है क्योंकि मूल रूप से अलग-अलग धर्मों से संबंध रखने वाले एक जोड़े को पर्याप्त सजा होती है.

ये कानून भारत के सामाजिक ताने-बाने को जो नुकसान पहुंचाएंगे वो डरावना है. समाज जिन्हें मंजूर नहीं करता उन दंपतियों के सामाजिक उत्पीड़न को राज्य की मंजूरी, आपसी सहमति से शादी करने वाले दो वयस्कों की जिंदगी में दखलंदाजी, दो समुदायों के बीच अविश्वास, महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा, ये परिणाम मुस्लिम समुदाय पर हमले के अलावा काफी दूर तक जाएंगे.

महिलाओं को फैसले लेने के काबिल नहीं समझना और इस विचार का प्रभावी समर्थन कि एक समुदाय का सम्मान उनके यौन विकल्पों में रहता है देश भर में प्रतिगामी लैंगिक रूढ़ियों का मुकाबल करने और महिलाओं को सशक्त बनाने के प्रयासों को पीछे छोड़ देगा जिससे पुरुषों को अपने जीवन स्तर पर और भी अधिक नियंत्रण मिलेगा. शायद ये समझाता है कि लव जिहाद कानून की मांग को लेकर पुरुष ही सबसे आगे क्यों हैं, और खुद महिलाएं नहीं.

पिछले कुछ सालों में लव जिहाद के हास्यास्पद बहस और इसपर कानून बनाने की तैयारी के एलान से काफी नुकसान हो चुका है और लेकिन इस नुकसान की भरपाई करने का समय अभी भी बचा हुआ है.
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कानूनों को लागू करने के बाद अदालतों द्वारा रद्द करने का इंतजार करना समय की ब होगी (जैसा कि कानून के मुताबिक उन्हें करना होगा), यही नहीं क्योंकि संभावना है कि कोर्ट फैसला लेने में काफी समय लगा देंगे और इसे बदला नहीं जा सकेगा.

लेकिन अगर हम यहां से वापस नहीं लौटे तो हम इकलौते संवैधानिक लोकतंत्र होंगे, जिसमें ऐसे कानून लागू रहेंगे जो हमें नस्लों की मिलावट विरोधी शर्मनाक अतीत की याद दिलाएंगे. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसा करने से अल्पकालिक लाभ क्या हो सकता है यहां तक कि बीजेपी को भी ये महसूस करना होगा कि इस परंपरा की आरजू करना सही नहीं होगा.

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