महमूद फारूकी को बलात्कार के आरोपों से बरी करने के फैसले का कोई अर्थ नहीं है. फैसले के पहले 101 अनुच्छेदों का अगले दो अनुच्छेदों में निकाले गए अंतिम निष्कर्ष से न के बराबर संबंध है: फारुकी को संदेह का लाभ मिलना चाहिए और इसलिए उन्हें दोषमुक्त करना चाहिए.
फैसला अपने आप में इतना ज्यादा विरोधाभासों और निराधार तर्कों से भरा है कि फारूकी के वकीलों को भी इसका बचाव करने में मुश्किल आएगी. ये उतना ही बड़ा मजाक है, जितना कर्नाटक हाइकोर्ट का वो फैसला था, जिसमें आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में जयललिता को 'अंकगणित' के आधार पर दोषमुक्त कर दिया गया था. ये फैसला सुप्रीम कोर्ट में तुरंत खारिज होने लायक है.
अपराध संहिता में सिद्धांत है कि आरोपी को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि अभियोजन पक्ष मामले को बिना किसी संदेह के साबित न कर दे. लेकिन ये जज की अपनी मर्जी नहीं, बल्कि सबूतों की बारीक छानबीन के आधार पर तय होता है.
फारूकी के मुकदमे में ट्रायल कोर्ट ने गवाहों के बयानों और सभी सबूतों की बारीकी से जांच की थी. अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि पीड़िता फारूकी के साथ उस वक्त अकेली थी, जिस वक्त ये घटना होने का आरोप लगाया गया था.
ट्रायल कोर्ट ने घटना के बाद पीड़िता के व्यवहार, दोस्तों, परिवार और यहां तक कि फारूकी को भेजे गए मेसेज की जांच की थी. अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि पीड़िता के आरोप में सच्चाई है. कोर्ट ने पाया कि यौन संबंध बनाने की पुख्ता और निर्विवाद सहमति नहीं थी और इस वजह से फारूकी को बलात्कार का दोषी ठहराया.
हाइकोर्ट ने इनमें से किसी पर सवाल नहीं उठाए. ऐसा कोई तथ्य हाइकोर्ट को नहीं मिला, जो सबूतों के आधार पर स्पष्ट रूप से गलत, निराधार या अनुचित हो. इसके विपरीत कोर्ट की खोज इस विकृत धारणा के आधार पर थी कि फारूकी को ये समझ नहीं आया कि पीड़िता की तरफ से सहमति नहीं थी.
इस खोज को भी तथ्यों के आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि दस्तावेज साफ तौर पर दिखाते हैं कि पीड़िता ने ‘नहीं’ कहा था, एक से ज्यादा बार कहा था, और उसका शुरुआती व्यवहार भी संकेत देता था कि वो यौन संबंध के लिए सहमत नहीं थी.
मानसिक रूप से बीमार नहीं थे फारूकी
हाइकोर्ट ये भी मानता है कि फारूकी मानसिक रूप से इतने बीमार भी नहीं थे कि वो सहमति का मतलब न समझें, फिर भी कोर्ट ने उन्हें संदेह का लाभ दे दिया.
ये फैसला सहमति की कानूनी परिभाषा की पूरी तरह से गलत व्याख्या करता है, जो भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 375 में हाल ही में लाए गए एक्सप्लेनेशन 2 में दी गई है. कानून में साफ-साफ स्वैच्छिक सम्मति की बात कही गई है, लेकिन हाइकोर्ट ने सहमति के साफ-साफ और स्वैच्छिक होने की कोई खोजबीन नहीं की.
कोर्ट ने सहमति के बारे में अजीब धारणाओं के आधार पर फैसला किया और पीड़िता के पक्ष में दिए फैसले को पलटते हुए तर्क दिया कि जब तक मजबूती से 'नहीं' न कहा जाए, ये असहमति नहीं है!
फैसले में सहमति पर इसके सवालिया दावों के बारे में अध्ययन की बात एक से ज्यादा बार कही गई, लेकिन न तो कोई हवाला दिया गया, न ही ऐसे किसी अध्ययन का लिंक. ऐसी लापरवाही तो वकालत पढ़ रहे पहले साल के छात्र के लिए भी अस्वीकार्य है, हाइकोर्ट के जज के बारे में क्या कहा जाए.
क्या ऐसे ही मामलों में किसी और शख्स को, जिसके पास फारूकी के समान विशेषाधिकार और हैसियत नहीं है, संदेह का लाभ मिलेगा? फैसले को पढ़कर तो ऐसा नहीं लगता. फैसले को पढ़ते हुए बार-बार ऐसा लगता है कि कोई खुद को समझाने की कोशिश कर रहा है कि फारूकी जैसा कोई शख्स ऐसा जुर्म कर ही नहीं सकता. पीड़िता के निर्दोष व्यवहार, उसकी अकाट्य गवाही, पुलिस की विस्तृत जांच और ट्रायल जज के नतीजे, हाइकोर्ट को इनमें से किसी पर यकीन नहीं है क्योंकि वो करना नहीं चाहता है.
ताकत और विशेषाधिकार रखने वाले पुरुष यौन अपराध और यौन शोषण इसलिए करते हैं, क्योंकि पूरी व्यवस्था उनकी सुरक्षा करती है. अपने आप में ये कम बड़ी विडंबना नहीं है कि फारूकी को बचाने के लिए वो लोग भी आगे आए, जिन्होंने निर्भया बलात्कार मामले के बाद देश की अपराध संहिता में संशोधन की वकालत की थी.
ट्रायल कोर्ट जज ने इस मामले में कानून में बदलाव को अच्छी तरह समझा था— कानून महिला की असहमति पर जोर देता है, न कि बलात्कार के तरीके पर. ये शर्मनाक है कि हाइकोर्ट ने इसे समझने से इनकार कर दिया.
(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु में एडवोकेट हैं. उनसे @alokpi पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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