पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर के चुनावी रण (Manipur Election) में कई दल मैदान पर हैं इस वजह से यहां बहुकोणीय मुकाबला दिख रहा है. इस राज्य में दो चरणों में 28 फरवरी और 5 मार्च को मतदान होगा. इस बार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी (BJP) ने सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं. वहीं पार्टी को न सिर्फ दूसरी बार सरकार बनाने का भरोसा है, बल्कि BJP यह भी दावा कर रही है कि वह अपने दम पर बहुमत हासिल करेगी. लेकिन राज्य में जमीनी हकीकत क्या है?
केंद्र में रूलिंग पार्टी होने का लाभ
उत्तर-पूर्वी राज्यों में यह एक पैटर्न रहा है कि केंद्र में काबिज पार्टी को सबसे अधिक समर्थन प्राप्त होता है, क्योंकि वे वित्तीय सहायता के लिए केंद्र पर काफी हद तक निर्भर होते हैं. हालांकि इसके अपवाद भी रहे हैं, लेकिन मणिपुर कोई अपवाद नहीं है.
अतीत में देखें तो केंद्र में सत्ताधारी पार्टी होने के नाते कांग्रेस को अक्सर राज्य के चुनावों में लाभ मिलता था. लेकिन जब 2017 के चुनाव आए तो परिणाम अलग थे, 2007 और 2012 में मणिपुर चुनाव में खाता खोलने में विफल रहने वाली बीजेपी को 2017 में 36.28 फीसदी वोट मिले, जो कांग्रेस के 35.11 फीसदी से ज्यादा थे.
न केवल कांग्रेस या बीजेपी, बल्कि केंद्र में सत्ता साझा करने वाली पार्टियों ने भी कई बार उत्तर-पूर्वी राज्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है.
यहां तक कि बिहार की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD), जो उस समय यूपीए का घटक थी, उसने 2007 के चुनावों में 6.67 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ तीन सीटें जीतीं थी. वहीं 2012 में यूपीए की एक अन्य पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) 17% वोट शेयर के साथ सात सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
2017 से पहले मणिपुर में बीजेपी के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की बात करें तो पार्टी ने 2000 के चुनाव में बढ़िया प्रदर्शन किया था. तब बीजेपी ने 11.28% वोट शेयर के साथ 6 सीटें जीती थीं, गौर करने वाली बात यह है कि उस समय वह केंद्र में एनडीए सरकार का नेतृत्व कर रही थी.
जबकि 2002 के चुनाव में बीजेपी ने 9.55 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 4 सीटें जीतीं, वहीं एनडीए की एक अन्य घटक समता पार्टी ने 8.33 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 3 सीटें हासिल करते हुए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था.
बीजेपी का दांव : डबल इंजन, विकास और शांति
बीजेपी द्वारा जिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात की जा रही है उनमें से एक यह है कि मणिपुर और दिल्ली के बीच की दूरी कम हो गई है और राज्य ने कनेक्टिविटी के मामले में राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थान हासिल किया है.
दशकों के इंतजार के बाद 2016 में आखिरकार राज्य में पहली बार ब्रॉड गेज ट्रेन पहुंची थी. इस साल रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने पहली जन शताब्दी एक्सप्रेस को हरी झंड़ी दिखाई जो मणिपुर के जिरीबाम को अन्य पूर्वोत्तर राज्यों, असम और त्रिपुरा से जोड़ती है.
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जनवरी में नौ परियोजानाओं की आधारशिला रखने के अलावा करोड़ों रुपये की 13 परियोजनाओं का उद्घाटन किया.
इन सबके जरिए भगवा पार्टी का संदेश यह है कि मोदी सरकार में मणिपुर और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की अब उपेक्षा नहीं की जा रही है.
“गो टू हिल्स मिशन” के जरिए बीरेन सिंह सरकार ने पहाड़ियों के अलगाव को कम करने का प्रयास किया है, जो बीजेपी के लिए एक प्रमुख चुनावी मुद्दा है. भगवा पार्टी भी कांग्रेस प्रशासन के दौरान प्रचलित नाकेबंदी को समाप्त करके राज्य में शांति लाने के अपने प्रयासों पर जोर दे रही है.
मोदी सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के अलावा बीरेन सरकार का "गो टू विलेज मिशन" जो कि सेवाओं के वितरण को सुनिश्चित करने के लिए सेवाओं को नागरिकों के दरवाजे तक पहुंचाने का एक अभियान है, वह भगवा पार्टी की मददगार हो सकता है. इन सबसे चुनावी लाभ मिलने की संभावना है.
असंतुष्ट नेताओं का गुस्सा
भगवा पार्टी द्वारा एक बार में ही सभी सीटों के टिकटों का ऐलान करने के बाद उन कैंडिडेट्स और उनके समर्थकों द्वारा विरोध प्रदर्शन किया गया, जो टिकट से वंचित रह गए. उनमें से एक वर्ग के अनुसार पार्टी (BJP) के लिए काम करने वालों को कथित तौर पर उपेक्षित करते हुए उनकी अनदेखी की गई, जबकि पाला बदलने वालों को प्राथमिकता दी गई. जिन उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिया गया, उनमें से कई जनता दल (यूनाइटेड) और नेशनल पीपुल्स पार्टी में शामिल हो गए हैं. इसके अलावा, भगवा पार्टी के भीतर आंतरिक कलह भी रही है. वहीं राज्य के शक्तिशाली मंत्री थोंगम बिस्वजीत सिंह की बीरेन के साथ लंबे समय से प्रतिद्वंद्विता जग जाहिर है.
मणिपुर जैसे राज्य में जहां जीत बहुत कम अंतर से तय होती है, वहां बीजेपी से टिकट पाने की आशा लिए बैठे उम्मीदवार अगर जद (यू), एनपीपी और अन्य छोटी पार्टियों से या निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ते हैं तो वे बीजेपी की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
पिछले बार के चुनाव में विधानसभा की 18 सीटें ऐसी थीं जहां पर 1000 से भी कम वोटों से जनादेश का फैसला हुआ था. उन सीटों में से बीजेपी और कांग्रेस ने क्रमशः 7 और 9 पर जीत हासिल की, जबकि एनपीपी और नागालैंड पीपुल्स फ्रंट (NPF) ने एक-एक सीट जीती थी. 8 और 6 सीटों पर क्रमश: बीजेपी और कांग्रेस दूसरे और तीसरे स्थान पर रही. 3 सीटों पर एनपीपी दूसरे स्थान पर रही, जबकि शेष सीट पर एक निर्दलीय प्रत्याशी दूसरे स्थान पर रहा था.
पहाड़ियों और मैदानियों के मुद्दे
मैदानी इलाकों में 40 सीटें हैं, जिन पर मैतेई मणिपुरियों का नियंत्रण है, जिनमें से अधिकांश वैष्णव हिंदू हैं. जबकि नागा और कुकी के प्रभुत्व वाली पहाड़ियों में 20 सीटें हैं. इस तथ्य के बावजूद कि नागा और कुकी दोनों ईसाई हैं, लेकिन अक्सर कई मुद्दों पर ये सहमत नहीं होते हैं. पहाड़ियों में नगाओं के बीच एनपीएफ सबसे लोकप्रिय पार्टी रही है, जबकि कांग्रेस कुकियों के बीच सबसे लोकप्रिय रही है. नए कुकी पीपुल्स एलायंस से कांग्रेस की संभावनाओं को नुकसान हो सकता है.
एक अन्य मुद्दा जो राज्य में विशेष रूप से पहाड़ियों के बीच है, वह सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (AFSPA) को हटाने की मांग है. बीजेपी छोड़कर लगभग सभी पार्टियां इसको हटाने के पक्ष में हैं. बीजेपी ने अब तक इस मुद्दे पर अपना अस्पष्ट रुख अपनाया है.
मैतेई मणिपुरियों ने लंबे समय से इनर लाइन परमिट (ILP) को लागू करने की मांग की थी, जिसे 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा दिया गया था. इस मुद्दे को बीजेपी द्वारा हाईलाइट किया जा रहा है. इस समुदाय द्वारा इन्हें एसटी का दर्जा देने की भी मांग की जा रही है. फिलहाल इस जटिल मुद्दे पर बीजेपी किसी निर्णय पर नहीं पहुंची है, जबकि जबकि एनपीपी ने इस मांग का समर्थन किया है.
मैदानी इलाकों में मुसलमान भी रहते हैं, जिन्हें मैतेई पंगल के नाम से जाना जाता है. 2017 के विधानसभा चुनाव में लिलोंग, वाबगई, वांगखेम, एंड्रो जैसी मैतेई मणिपुरियों से प्रभावित सीटों पर सबसे पुरानी पार्टी ने जीत हासिल की थी.
दो अन्य मुस्लिम-प्रभावित सीटों, क्षेत्रगांव और केइराव पर भी बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, हालांकि जीत 1,000 से कम मतों के मामूली अंतर से हुई थी.
कांग्रेस और अन्य फैक्टर
2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को 2017 के चुनावों की तुलना में 2 फीसदी के नुकसान के साथ 34.33 फीसदी वोट मिले और पार्टी ने इनर मणिपुर लोकसभा क्षेत्र में जीत हासिल की. कांग्रेस को 24.71 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन 2014 में जीती दो सीटों में से वह किसी को भी बरकरार नहीं रख पायी, जबकि एनपीएफ ने 22.55 प्रतिशत वोट के साथ आउटर मणिपुर लोकसभा क्षेत्र पर जीत दर्ज की.
बीजेपी और कांग्रेस क्रमश: 26 और 20 विधानसभा सीटों पर आगे चल रहे थे, जबकि एनपीएफ और सीपीआई क्रमश: 11 और तीन सीटों पर आगे चल रहे थे. इसलिए कांग्रेस को पूरी तरह से खारिज करना बेवकूफी होगी, जिसने उत्तर-पूर्वी राज्य में भाकपा सहित पांच छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया है. गौर करने वाली बात यह है कि एनपीएफ, जो स्पष्ट रूप से कह रहा है कि वह एनडीए का एक घटक है, लेकिन वे 10 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है.
बेरोजगारी अभी भी राज्य में एक ज्वलंत मुद्दा है :
इस तथ्य के बावजूद कि मणिपुर में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक है, राज्य ने चुनावी राजनीति में महिलाओं की कम संख्या देखी है. पार्टी अध्यक्ष के रूप में ए. शारदा देवी को नियुक्त करने के साथ भगवा पार्टी को उम्मीद है कि वह महिला मतदाताओं को आकर्षित करने में सक्षम होगी.
1972 में मणिपुर के राज्य बनने के बाद से पार्टियों ने बहुमत पाने के लिए संघर्ष किया है. अब यह देखना बाकी है कि क्या बीजेपी उत्तर-पूर्वी राज्य में फिर से सरकार बना पाती है और बहुमत से जीत हासिल कर पाती है?
(सागरनील सिन्हा, एक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं. वे @SagarneelSinha से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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