मन्नू जी (Mannu Bhandari) से आखिरी मुलाकात हंस के दफ्तर में हुई थी. उस समय वह न लिख पाने की गहरी टीस से जूझ रही थीं. अनेक कहानियां, उपन्यास उनके मन-मस्तिष्क में उमड़ रहे थे लेकिन कागजों तक आने में कोई बाधा थी, जिसे तोड़ने की कोशिश में वह खुद टूटती जा रही थीं. अपना दर्द, अपनी टीस को साथ लेकर वह हम सब से सदा के लिए विदा हो गईं.
आज लोदी रोड शवदाह गृह में उनको अन्तिम विदा देते हुए लोगों की जुबान पर एक ही बात थी कि मन्नू जी के साथ एक पूरा युग समाप्त हो गया.
नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव , मोहन राकेश और कमलेश्वर आदि पुरूष रचनाकारों की आरोप-प्रत्यारोप, एक दूसरे की कहानियों को लेकर उठा-पठक की हंगामाई दुनिया के बीच में बड़े सहज भाव से मन्नू जी की कहानियां और उन कहानियों की नायिकाएं कब आकर पाठकों के जीवन का हिस्सा बन जाती हैं, पता ही नहीं चलता.
उनकी नायिकाएं ऊपर से देखने पर अपनी संरचना में कुछ लोगों को परम्परागत लग सकती हैं, लेकिन अपने निर्णयों में पूर्णत: आधुनिक और अपराधबोध मुक्त स्त्री का प्रतिनिधित्व करती वे स्त्रियाँ नयी कहानी आन्दोलन में प्रगतिशील मूल्यों का दावा करने वाले रचनाकारों की पुरुष दृष्टि की सीमाओं को बिना किसी हंगामे के उजागर कर देती हैं।
‘यही सच है’ कहानी जिस पर पर बासु चैटर्जी ने ‘रजनीगंधा’ नाम से फिल्म का निर्माण भी किया था ऐसी ही यादगार कहानी है. कहानी की नायिका दीपा, विद्या सिन्हा के रूप में पर्दे पर साकार होकर दर्शकों के दिलों में हमेशा के लिए समा गई. इसी तरह एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, त्रिशंकु आदि संग्रहों में प्रकाशित मन्नू जी की अनेक कहानियां आज भी पाठकों के बीच उतनी ही लोकप्रिय हैं. यह कहना गलत न होगा कि वो हिन्दी की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली लेखिका थीं.
यहां जीवन और कला के बीच अन्तर नहीं
मन्नू जी की रचनार्मिता की विशेषता है कि वहाँ जीवन और कला के बीच अन्तर नहीं है. बल्कि उनके लिए जीवन और कला दोनों की सार्थकता का सवाल प्रबल है. न मन्नू जी अपने जीवन में संघर्षों और विपरीत स्थितियों से कभी भागीं, न उनकी नायिकाएँ ही पलायन करती दिखती हैं. दोनों सामना करने में विश्वास रखती थीं.
दरअसल मन्नू जी के भीतर की दृढ़ता ही उनकी नायिकाओं में विस्तार पाती है. इस सन्दर्भ में दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक ‘रजनी’ को याद किया जा सकता है. अन्याय और गलत के विरूद्ध खड़ी ‘रजनी’ मन्नू जी के ही व्यक्तित्व का विस्तार है.
आपका बंटी उपन्यास पर आधारित फिल्म की कहानी में परिवर्तन करने के खिलाफ मन्नू जी भी कोर्ट-कचहरी तक जाने से भी नहीं कतराईं. दरअसल मन्नू जी थोड़ा-थोड़ा करके अपनी नायिकाओं में और उनकी नायिकाएं थोड़ा- थोड़ा उनके भीतर समाई हुईं थीं.
मन्नू जी के लेखन का दायरा मध्यवर्गीय जीवन और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का द्वन्द ही रहा है. इस विषय पर लिखा उनका उपन्यास ‘आपका बंटी’ बहुचर्चित है. लेकिन अपने ही दायरे और सीमाओं का अतिक्रमण करके मन्नू जी राजनीति और उसके चरित्र को आधार बनाकर लिखे ‘महाभोज’ से चुपचाप उस पूर्वाग्रह का जवाब भी दे देती हैं जो मान कर चलता था कि स्त्री रचनाकारों के सरोकार बहुत ही सीमित है या राजनीति जैसे विषय उनके लेखन का क्षेत्र नहीं है.
1979 में लिखा ‘महाभोज’ दलित नरसंहार की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास है, जो नौकरशाही और राजनीति के भ्रष्टाचार में दबे साधारण व्यक्ति की पीड़ा को बयान करता है. उपन्यास की भूमिका के रूप में लिखा गया उनका कथन लेखन के प्रति एक सजग रचनाकार की प्रतिबद्धता और साहित्य की सामाजिक भूमिका का बेहतरीन उदाहरण हैं.
“अपने व्यक्तिगत दुख-दर्द, अन्तर्द्वन्द्व या आन्तरिक नाटक को देखना बहुत महत्वपूर्ण, सुखद और आश्वस्ति-दायक तो मुझे भी लगता है , मगर जब घर में आग लगी हो तो सिर्फ़ अपने अन्तर्जगत में बने रहना या उसी का प्रकाशन करना क्या खुद ही अप्रासंगिक, हास्यास्पद और किसी हद तक अश्लील नहीं लगता? ...” कोई अचरज नहीं कि इस उपन्यास का नाट्य रूपांतर आज भी मंचों पर अक्सर दिखता रहता है.
मन्नू जी आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन लेखन और कला की जिस सामाजिक भूमिका को उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत किया है वह आज भी जीवित है. लेखन के अतिरिक्त मन्नू जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा हाऊस में लम्बे समय तक अध्यापन भी किया. अपने विद्यार्थियों के जीवन पर जिस तरह से उन्होंने असर डाला वह आज भी मिरांडा हाउस के हिन्दी विभाग की मूल्यवान विरासत है और उन विद्यार्थियों के लिए एक अनमोल स्मृति है.
(लेखिका बलवन्त कौर मिराण्डा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)