पूर्ण बहुमत लोकतंत्र में स्थिरता के लिए जरूरी होता है. लेकिन, कई बार पूर्ण बहुमत की वजह से चुनावी विश्लेषण में कई जरूरी मुद्दों पर बात ही नहीं हो पाती है. कुछ ऐसा ही दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भी हुआ है. चर्चा सिर्फ पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी और दूसरे स्थान पर रहने वाली आम आदमी पार्टी की हो रही है. कांग्रेस की कोई चर्चा करने को ही तैयार नहीं है. कांग्रेस की चर्चा हो भी रही है तो, सिर्फ इसलिए कि अजय माकन ने इस्तीफे की पेशकश की है. कांग्रेस की बात मैं क्यों कर रहा हूं, इसे समझने की जरूरत है.
दिल्ली नगर निगम में अपने सारे उम्मीदवारों को निकम्मा मानकर उन्हें बदलने की रणनीति बीजेपी के लिए ब्रह्मास्त्र बन गई. 2012 से भी ज्यादा सीटें दिल्ली के तीनों निगमों में बीजेपी को मिल गईं.
ये साफ है कि दिल्ली नगर निगम का चुनाव नगर निगम के मुद्दों पर लड़ा ही नहीं गया. 270 में से 183 सीटें साफ बता रही हैं कि भारतीय जनता पार्टी के पास नरेंद्र मोदी जैसी एक पॉलिसी जो कम से कम 2019 तक तो बीजेपी को बाकायदा लाभांश देती रहेगी.
लाभांश कम-ज्यादा हो सकता है लेकिन, मिलता रहेगा, इतना पक्का है. 5 साल की इस पक्की पॉलिसी को जनता अगले 5 साल के लिए फिर से लेती है या नहीं, ये देखने वाली बात होगी. फिलहाल तो बीजेपी विजय रथ पर सवार है.
आंकड़ों के लिहाज से 270 में से 183 सीटों वाली बीजेपी के बाद आम आदमी पार्टी को सिर्फ 47 सीटें मिल सकी हैं. कांग्रेस के हिस्से सिर्फ 29 सीटें आई. 2012 के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस की आमने-सामने की टक्कर थी. बीजेपी को तीनों निगमों में मिलाकर 142 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 77. इस आधार पर कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत बुरा रहा. 77 से घटकर 29. इस आधार पर प्रथम दृष्टया अजय माकन का नैतिक आधार पर इस्तीफा देना बनता है.
ये सीधे-सीधे किया गया विश्लेषण है, जिसमें निगम चुनावों में तीसरे स्थान पर चले जाने और पिछले चुनाव से बहुत कम सीटें पाने की वजह से कांग्रेस की चर्चा नहीं की जानी चाहिए. और उसके प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन का इस्तीफा पक्के तौर पर बनता है. लेकिन, ये विश्लेषण करते हम ये भूल जा रहे हैं कि 2012 और 2017 के बीच में 2013, 2014 और 2015 भी आया था. 2013 के विधानसभा चुनावों में पहली बार दिल्ली में चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी तेजी से उभरी और 40% मतों पर कब्जा जमा लिया. आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिलीं थीं. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. बीजेपी को 45.7% मत मिले और सीटें मिलीं 32. कांग्रेस एकदम से गायब हो गई. कांग्रेस को सिर्फ 11.4% मत मिले थे और सिर्फ 8 विधायक चुनकर पहुंचे. 8 विधायक चुनकर आए थे लेकिन, कांग्रेस के खात्मे की भविष्यवाणी राजनीतिक विद्वानों ने करना शुरू कर दिया था. उसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव हुए और नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार बीजेपी ने 46.4% मत हासिल करके दिल्ली की सातों लोकसभा सीटें जीत लीं. आम आदमी पार्टी को 32.9% मत मिले लेकिन, सीट एक भी नहीं मिल सकी.
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का मत प्रतिशत भी थोड़ा बढ़ा. कांग्रेस को 15.1% मत मिले. यहां एक बात समझने की थी कि मोदी की लहर और केजरीवाल के दिल्ली में तत्कालीन करिश्मे के बीच भी कांग्रेस का मत प्रतिशत विधानसभा चुनावों के मुकाबले बढ़ा.
इसके बाद केजरीवाल की सरकार गिरने की वजह से हुए चुनाव में केजरीवाल के पक्ष में सहानुभूति लहर ऐसी चली कि सब साफ हो गए. 2015 विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी 54.3% मतों के साथ 67 विधानसभा सीट जीतने में कामयाब रही. बीजेपी को 32.2% मत मिले लेकिन, सीट मिली सिर्फ 3 और कांग्रेस को मत मिले 9.7% लेकिन, सीट के मामले में खाली हाथ रह गई.
अभी नगर निगम के चुनाव में जो मत प्रतिशत दिख रहा है, उसपर नजर डालिए.
पूर्वी दिल्ली में बीजेपी को 38.61% मत मिले हैं. आम आदमी पार्टी को 23.4% और कांग्रेस को 22.84%. दक्षिणी दिल्ली में बीजेपी को 34.87% मत मिले हैं. आम आदमी पार्टी को 26.44% और कांग्रेस को 20.29% मत मिले हैं. उत्तरी दिल्ली में भी कमोबेस यही स्थिति है. बीजेपी को 35.63% मत मिले हैं. आम आदमी पार्टी को 27.86% और कांग्रेस को 20.73%. कुल मिलाकर अगर तीनों नगर निगमों के ताजा चुनाव की बात की जाए तो बीजेपी को 36.08% मत मिले हैं. आम आदमी पार्टी को 26.23% और कांग्रेस को 21.09% मिले हैं.
दरअसल यही समझने की बात है.
कांग्रेस पार्टी अपना खोया हुआ आधार वापस हासिल कर रही है. भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन के गुबार में खड़ी हुई आम आदमी पार्टी पर लोगों का भरोसा तेजी से घट रहा है.
ये बात पंजाब और गोवा के चुनावी नतीजों से साफ हो गई थी. पंजाब में बड़ी आसानी से कांग्रेस ने सरकार बना ली. और गोवा में कांग्रेस के चुनाव प्रबंधकों की गलती और लापरवाही का फायदा बीजेपी ने उठा लिया. मणिपुर में भी लगभग यही रहा कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हताशा से उबर ही नहीं पा रहा है और भारतीय जनता पार्टी अपनी मजबूती का फायदा लगातार उठा रही है.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी की प्रचण्ड जीत के सामने कांग्रेस के अपने आधार मत को वापस पाने की चर्चा लगभग ना के बराबर हुई. और अब यही दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजों पर भी हो रहा है.
जिस पार्टी का पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ठीक चुनाव के बीच विरोधी पार्टी में चला जाए और बड़े-बड़े नेता पार्टी छोड़ने की कतार में लग जाएं, अगर उस पार्टी का मत प्रतिशत 2015 के विधानसभा चुनावों से करीब ढाई गुना बढ़ गया हो तो इसकी चर्चा होनी चाहिए. और इसका श्रेय भी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन को देना चाहिए. इसलिए अजय माकन को इस्तीफा देने की कतई जरूरत नहीं है. हां, इतना जरूर है कि कांग्रेस राज्यों में अपना खोया आधार वापस पाने की लड़ाई मजबूती से लड़ रही है और दिल्ली जैसी जगह में तो एक बार अरविन्द की छवि कमजोर होने लगी तो बड़ी आसानी से कांग्रेस उसी जगह पर खड़ी हो जाएगी. लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को अपना नेता तलाशना होगा, वरना 2019 में ये सारी बढ़त फिर गायब हो जाएगी.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)