2004 में 60 कम्युनिस्ट सांसदों के समर्थन से यूपीए की पहली सरकार बनवाने और फिर भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर समर्थन वापस लेने से लेकर अब तक, भारत की लेफ्ट पार्टियां 'कांग्रेस बनाम बीजेपी' के द्वंद्व में उलझी हैं. प्रकाश करात / केरल गुट 'मजबूत गैर-कांग्रेसवाद' की लाइन पर लौटने को आतुर है, जबकि सीताराम येचुरी/ बंगाल गुट 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ एक 'खुले और पारदर्शी गठजोड़' की वकालत कर रहा है.
इस रस्साकशी में अब तक कांग्रेस विरोधी खेमे ने दिसंबर 2017 की पोलित ब्यूरो बैठक और जनवरी 2018 की सेंट्रल कमेटी मीटिंग के दो अहम मौकों पर जीत हासिल की है. दोनों गुटों की फाइनल और अंतिम टक्कर अगले कुछ दिनों के भीतर सीपीआई (एम) की 22वीं पार्टी कांग्रेस में होगी.
ईमानदारी से बताऊं तो मैं अब तक समझ नहीं पाया कि सारा झगड़ा आखिर है किस बात पर! देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के प्रति लेफ्ट के 'कभी इश्क तो कभी नफरत' वाले दुविधा भरे रवैये को एक तरफ रख दें, तो सवाल ये है कि राहुल गांधी की 'नई कांग्रेस' को आखिर इस गठबंधन से हासिल क्या होगा? कांग्रेस को अगर इस मुद्दे पर कोई जवाब देना ही हो, तो वो 'गॉन विद द विंड' के मशहूर डायलॉग की तर्ज पर कुछ ऐसा होना चाहिए, "साफ-साफ सुन लो कॉमरेड, हमें तुम्हारे फैसले की रत्ती भर भी परवाह नहीं है."
मैं आपको वो चार जरूरी, कठोर और अकाट्य कारण बताऊंगा, जिनके मद्देनजर कांग्रेस को चाहिए कि वो लेफ्ट को एक कमजोर राजनीतिक विरोधी मानकर चले, जिसे काबू में रखना या खत्म करना जरूरी है, न कि उसे एक सहयोगी मानकर फिर से जिंदा करने का काम करे.
पहली वजह: कम्युनिज्म की कट्टर विचारधारा का अंत हो चुका है
रूसी क्रांति से लेकर बर्लिन की दीवार के गिरने तक, 20वीं सदी के आठ दशकों के दौरान कम्युनिज्म एक ताकतवर विचारधारा रही. उस 'वामपंथी धारा' में दो ऐसी अहम विशेषताएं थीं, जो दुनिया के बारे में अमेरिका की अगुवाई वाले 'दक्षिणपंथी' दृष्टिकोण के ठीक उलट थीं.
कम्युनिज्म की ‘धर्मनिरपेक्षता’ इस मायने में संपूर्ण थी कि उसने धर्म को खारिज करके निरीश्वरवादी नास्तिकता का समर्थन किया, जबकि अमेरिकी दक्षिणपंथी विचारधारा ने लोगों के उपासना के अधिकार का जोर-शोर से समर्थन करने के साथ-साथ सभी धर्मों के बीच समानता की वकालत की.
कम्युनिज्म ने प्राइवेट प्रॉपर्टी यानी निजी मिल्कियत के अधिकार को भी खारिज कर दिया और कहा कि सभी आर्थिक संसाधनों पर मालिकाना हक राज्य यानी सरकार का होना चाहिए. इसके विपरीत, अमेरिकी दक्षिणपंथ ने बाजार को पूरी आजादी देने, दुनिया की कारोबारी सीमाओं को खोल देने और निजी मिल्कियत पर कोई रोक-टोक नहीं लगाने की वकालत की.
इस तरह, लगभग पूरी 20वीं सदी के दौरान 'लेफ्ट' और 'राइट' यानी वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच एक साफ लकीर खिंची रही. दोनों विचारधाराएं एक-दूसरे से इतनी अलग और परस्पर विरोधी थीं कि उनके समर्थक और आलोचक भी पूरी तरह दो हिस्सों में बंटे रहे. दरअसल, सारी दुनिया ही इन विचारधाराओं के दो बिलकुल अलग-अलग खेमों में बंटी रही.
लेकिन सोवियत संघ और बर्लिन की दीवार के पतन के बाद 'लेफ्ट' और 'राइट' को बांटने वाली लकीर धुंधली पड़ने लगी. इस बात को समझने के लिए आप खुद से एक आसान सवाल पूछकर देखिए : आज कम्युनिज्म के सबसे बड़े झंडाबरदार कौन हैं? वो शी जिनपिंग और व्लादिमिर पुतिन ही तो हैं न? लेकिन ये दोनों महानुभाव तो सरकारी पूंजीवाद चलाने वाले तानाशाह हैं, जिन्होंने अपने सामने नतमस्तक होने वाले अमीर कुलीन पूंजीपतियों को खूब पाला-पोसा है.
इन्होंने सिर्फ एक रणनीति के तहत धर्म से दूरी बना रखी है. इनमें और भारत के कट्टर लेफ्ट में उतना ही फर्क है, जितना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और महात्मा गांधी के सपनों के उस भारत में, जिसमें सबको सम्मान के साथ जगह दी जाए!
दूसरी वजह: कट्टर कम्युनिज्म ‘नव-उदारवाद’ में बदल चुका है
जाहिर है, 21वीं सदी में दुनिया नई परिभाषाओं और विचारधाराओं की तरफ बढ़ चुकी है. आज 'दक्षिणपंथ' का मतलब है प्राइवेट प्रॉपर्टी की वकालत, संरक्षणवाद और बढ़ता सांस्कृतिक अलगाववाद (इसमें ट्रंप की अगुवाई वाले अमेरिका और मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी की झलक मिलती है न?). जबकि 'वामपंथ' का नया मतलब है एक ऐसी उदारवादी सोच, जिसमें खुले बाजार वाले पूंजीवाद को 'मानवीय चेहरे' के साथ लागू करने की वकालत की जाती हो.
यानी बेहतर जन कल्याण के साथ खुले व्यापार, न्यायपूर्ण नियम-कायदों और दो देशों के बीच नागरिकों की आवाजाही के ज्यादा उदार नियमों पर जोर. (ये बातें मैक्रों के फ्रांस और राहुल की कांग्रेस से मेल खाती हैं न?)
तो इन हालात में भारत का वो कट्टर लेफ्ट कहां खड़ा नजर आता है, जो अब तक लेनिनवादी विचारधारा की 'अड़ियल नास्तिकता और सारे अधिकार सरकार के हाथ में रखने की राज्यवादी सोच' में फंसा हुआ है? एक ऐसी सोच, जिसका अंत दशकों पहले हो चुका है.
मुझे कहना ही होगा कि मौजूदा हालात में ऐसे लेफ्ट के लिए कहीं कोई जगह नहीं है.
तीसरी वजह: कम्युनिस्टों के वोट तेजी से घट रहे हैं
चुनावों का अंकगणित भी कम्युनिस्टों का मर्सिया पढ़ रहा है: पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे पुराने गढ़ों में भी लेफ्ट के वोट शेयर में 15-20 फीसदी की भयानक गिरावट आई है (1989 के 47% के ऊंचे स्तर के मुकाबले). इनमें से ज्यादातर वोट बीजेपी की तरफ चले जाएंगे, अगर कांग्रेस ने स्थानीय तौर पर एक ऐसा आधुनिक/उदारवादी विकल्प पेश नहीं किया, जो लेफ्ट को छोड़कर भाग रहे कैडर को ज्यादा आकर्षक लगे.
कांग्रेस को अगर ऐसा करना है, तो उसे एक युवा और नया नेतृत्व तैयार करना होगा (कुछ उस तरह, जैसे आम आदमी पार्टी ने 2013 में दिल्ली में किया था). उसे तृणमूल कांग्रेस के साथ रणनीतिक गठजोड़ करना होगा, ताकि सीपीआई (एम) पूरी तरह खत्म हो जाए और बीजेपी को बढ़ने से रोका जा सके. कांग्रेस के लिए ये सेमीफाइनल की रणनीति होगी, ताकि बाद के चुनावों में वो टीएमसी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनकर उभर सके.
केरल में तो कांग्रेस अगर लेफ्ट के साथ मेल-जोल बढ़ाती दिख भी गई, तो ये उसके लिए आत्मघाती साबित होगा. इससे वहां बीजेपी के लिए रास्ता खुल जाएगा (त्रिपुरा की तरह). इसलिए, वहां तो कांग्रेस का एक मजबूत और जुझारू विरोधी दल बने रहना जरूरी है, ताकि विपक्ष की पूरी जमीन पर उसका कब्जा कायम रहे.
देश के बाकी हिस्सों की बात करें तो ओडिशा, बिहार, झारखंड, पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे छिटपुट असर वाले सभी इलाकों में लेफ्ट के वोट शेयर में चौंकाने वाली गिरावट आई है. इन सभी इलाकों को मिलाकर लेफ्ट का वोट शेयर 1989 के 3.6% से घटकर 2014 में महज 0.6% रह गया है. इन तमाम इलाकों में कांग्रेस को लेफ्ट से निराश तमाम नेताओं, कैडर और मतदाताओं को अपने साथ जोड़ने की पूरी कोशिश करनी चाहिए, ताकि इन बचे-खुचे इलाकों से वामपंथ का पूरी तरह सफाया हो जाए.
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में लेफ्ट को सिर्फ 0.2% वोट मिले ! यानी पूरे राज्य में कुल मिलाकर महज 1 लाख 30 हजार वोट ! हो सकता है ये सुझाव आपको बेरहमी भरा लगे, लेकिन ये वक्त लेफ्ट के साथ गठजोड़ करने का नहीं, बल्कि तरस खाए बिना उसे पूरी तरह खत्म कर देने का है !
सभी आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि आगे बढ़ने की ख्वाहिश रखने वाले युवा वोटरों के बीच लेफ्ट का समर्थन पूरी तरह खत्म हो चुका है. 1996 से 2014 के दरमियान छोटे कारोबारियों और कुशल मजदूरों के बीच लेफ्ट का वोट शेयर तकरीबन 10% से गिरकर 2% के आसपास रह गया. साफ है कि लेफ्ट पार्टियां अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में हैं और तेजी से खात्मे की ओर बढ़ रही हैं.
हमें ये भी याद रखना चाहिए कि 'आधुनिक उदारवाद' की सोच को अपनाना बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस के लिए ज्यादा सहज है. ये सोच पुरानी वामपंथी विचारधारा के भी काफी करीब है. इन हालात में दिशाहीनता के शिकार लेफ्ट कैडर (मसलन जिग्नेश मेवाणी और कन्हैया कुमार) को अपने साथ जोड़ना कांग्रेस के लिए स्वाभाविक तौर पर आसान होना चाहिए.
चौथी वजह: 2009 की बड़ी जीत के सबक को फिर से याद करें
जुलाई 2008 के दौर को याद करें : जब दुर्भाग्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन दे रहे लेफ्ट ने भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील का विरोध करते हुए संसद में अपना समर्थन वापस ले लिया था. सरकार अल्पमत में आ गई. मनमोहन सिंह की अपनी कांग्रेस पार्टी भी डगमगाने लगी, लेकिन वो अडिग रहे. उन्होंने एक हैरान करने वाली कूटनीतिक जीत हासिल की, जिससे दुनिया भर में भारत की राजनयिक और सामरिक ताकत बढ़ी.
22 जुलाई 2008 की देर रात जब वोटों की गिनती पूरी हुई, तो स्कोर था 275-256. मनमोहन सिंह ने संसद का विश्वास हासिल कर लिया था. इस जीत के बाद मनमोहन सिंह के चेहरे की चमक और उंगलियों से 'V' यानी जीत का निशान बनाती उनकी तस्वीर 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की मजबूत राजनीतिक पहचान बन गई. देश भर में उनका स्वागत 'सिंह इज किंग' के नारों से हुआ (जो एक सुपरहिट हिंदी फिल्म का नाम भी है).
न्यूक्लियर डील की बारीकियों की समझ या उनकी परवाह बहुत कम ही लोगों को थी. मनमोहन सिंह की जो बात लोगों को पसंद आई, वो थी आधुनिकता और सकारात्मक बदलाव के हक में लेफ्ट की ब्लैकमेलिंग के खिलाफ डटकर खड़े होने की उनकी क्षमता. 2009 में कांग्रेस ने 200 से ज्यादा सीटें हासिल कीं, यानी 2004 के मुकाबले 45% ज्यादा. लेफ्ट का आंकड़ा सिमटकर 20 पर आ गया.
अब कांग्रेस को 2009 का अधूरा काम पूरा करना चाहिए. न सिर्फ लेफ्ट को हराकर, बल्कि उसकी राजनीतिक जमीन को अपने भीतर समाहित करके.
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