मैंने यह मजाकिया किस्सा सबसे पहले अपने पापा से सुना था.1960 के रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह एक प्रैक्टिस सेशन के बाद सुस्ता रहे थे.पास खड़े एक एथलीट ने बातचीत शुरू करने के लिए मिल्खा जी से पूछ लिया "आर यू रिलैक्सिंग?" मिल्खा सिंह ने अपने पूरे भोलेपन से जवाब दिया "नो नो आई एम मिल्खा सिंह".
हम मंसूर अली खान पटौदी या मिल्खा सिंह बनने की चाहत लिए बड़े हुए. दोनों अपने-अपने खेल के चमकते सितारे थे और दोनो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक समृद्ध विरासत छोड़ गए हैं. अगर पटौदी कवर पर दहाड़ते 'टाइगर' थे तो मिल्खा ट्रैक पर भागते 'फ्लाइंग सिख'. मिल्खा ने एथलीटों से ज्यादा एथलेटिक्स को प्रेरित किया. उन्हें दौड़ने के अलावा शायद ही कुछ आता था. सबसे पहले वह अपनी जान बचाने के लिए दौड़े और फिर जीने के लिए. 1947 के सांप्रदायिक दंगों से तो वो बच निकले पर दिमाग से उसका डर कभी नहीं गया .एक दूसरे को मारते लोगों के खून और चीखों ने युवा मिल्खा की अंतरात्मा तक को झकझोर दिया.
आज से दो दशक पहले जब मैंने दिल्ली के जनपथ होटल में एक दोपहर उनके साथ बितायी थी तो पुरानी बातों को याद करते हुए उन्होंने कहा "मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि एक इंसान दूसरे साथी इंसान को इस बेरहमी से नुकसान पहुंचा सकता है". तब वो दिल्ली में 'द हिंदू' और 'स्पोर्टस्टार' द्वारा आयोजित एक इवेंट में शामिल होने आए थे और मेरी खुशकिस्मती थी कि मुझे उन्हें असिस्ट करने का काम मिला था.
" कृपया करके मुझे (1960) रेस की याद नहीं दिलाइये. मेरे पास उस पर और कुछ कहने के लिए नहीं है" उन्होंने हल्का विरोध जताया. रोम ओलंपिक में हुए खेलों के काफिले को आधुनिक युग में सबसे महान माना जाता था. उसमें कई चीजें पहली बार हुई थी और अगर मिल्खा सिंह ने अपने प्रतिद्वंदी को देखने के लिए पीछे मुड़ने की गलती नहीं की होती तो उनके लिए भी वह पहला यादगार मौका होता. उस गंभीर चूक ने उनसे मेडल छीन लिया.
400 मीटर की दौड़ जीत के लिए उनकी थी. उन्होंने शानदार दौड़ से एथलेटिक्स के पारखी लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा था और इसे मिल्खा सिंह के बायोपिक 'भाग मिल्खा भाग' में फरहान अख्तर ने शानदार तरीके से पर्दे पर उतारा भी है. अगर वह नहीं जीत सके तो उसका कारण था उनकी टैक्टिकल चूक, जिसे बाद के वर्षों में उन्होंने बड़े दिल के साथ स्वीकार भी किया.
मिल्खा एक दयालु इंसान और अत्यधिक आत्मसम्मान वाले एथलीट थे. उन्होंने उदास आवाज में कहा था "मैं नहीं जीता. बहुत अफसोस रहेगा.लेकिन मुझे उससे भी ज्यादा दुख होता है कि लोग मुझे यह भूलने नहीं देते". जब मैंने उनका ध्यान उनके द्वारा यूरोप और एशियन गेम में जीते मेडलों पर दिलाया तो उन्होंने स्वीकार किया "वह सब तो ठीक है लेकिन ओलंपिक तो ओलंपिक है".
उन्होंने उस दर्द को महसूस किया जो 24 साल बाद लॉस एंजलिस में पीटी उषा को 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर आने पर हुआ. यह भी गलत ट्रेनिंग के टैक्टिकल चूक का परिणाम था. हताश आवाज में मिल्खा सिंह ने कहा था "फिनिश करने के लिए उस महत्वपूर्ण अतिरिक्त कोशिश कि हममें कमी है. वह क्षण हमें विजेताओं से अलग करता है.मेरे पास उत्तर नहीं है"
मुझे पहले चेतावनी दे दी गई थी कि मिल्खा आसानी से चिढ़ जाते हैं. वे सब लोग गलत थे. मिल्खा कमरे में आकर आराम से बैठ गये और एथलेटिक्स फील्ड के अपने अनुभव को मेरे साथ साझा करने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो गए. एक पल के लिए भी उनमें चिड़चिड़ाहट का चिन्ह नहीं दिखा. वास्तव में वह जिंदगी के प्रति शांत दृष्टिकोण रखने के लिए जाने जाते थे.
एक वाकया हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता. जब नाश्ता सर्व हो गया तब मुझे एहसास हुआ कि वह गर्म नहीं है. मैं अपना आपा खो बैठा लेकिन मिल्खा जी नहीं. उन्होंने नाश्ता सर्व कर रहे लड़के को हल्का सुनाया और मेरी तरफ मुड़ कर बोले "जो तुम्हारे पास है उसमें खुश रहो. तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यह प्रिविलेज नहीं है".
दिल्ली भाग कर आने के बाद उन्होंने जो वक्त बिताया उसने उनके जीवन पर एक अमिट छाप छोड़ी.वह अपनी बहन से बिछड़ गए,दिल्ली के प्लेटफार्म पर सोकर और गरीबों को बंटने वाले खाने को खाकर जिंदा रहे." मैंने खाने की अहमियत तब जानी जब मैं उसके लिए तड़प रहा था. मैं कभी खाना बर्बाद नहीं किया, कभी नहीं. मैंने मुश्किल रास्तों से यह सब सीखा है. मैं चुनौतियों का सामना कर सकता था क्योंकि मैं एक स्पोर्ट्समैन था".
मिल्खा स्पोर्ट्समैन से ज्यादा थे. वो एक लाइफ लेसन थे, एक लेजेंड लेकिन साथ ही एक इंसान जो कई मामलों में भोला था. चलते या गोल्फ खेलते समय वो नाप-तोल कर कदम रखते थे. उन्होंने ख्याल रखा कि उनसे एक मक्खी तक की जान ना जाये. सबसे तीखे प्रश्नों का भी जवाब वो एक मुस्कुराहट के साथ देते थे. 'कोई नहीं' का चिर-परिचित अंदाज मिल्खा जी का ही था, भारत का सबसे प्यारा एथलीट.
मिल्खा जी आपको यह बात बताने से नहीं चूकते थे कि वो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऑफिस में जब चाहे जा सकते थे. "उनसे मिलने के लिए मुझे अपॉइंटमेंट की जरूरत नहीं थी" और इस बात पर उनकी तेज हंसी इस मामले में उनके प्रिविलेज को बता जाती थी. वैसे आपको मिल्खा सिंह से मिलने के लिए भी किसी अपॉइंटमेंट की जरूरत नहीं थी. वह आपका स्वागत खुले बाहों से करते थे.
अपने दोस्त नॉरिस प्रीतम के साथ चंडीगढ़ में मिल्खा जी के घर बिताया गया समय मेरे स्पोर्ट्स राइटिंग करियर के सबसे बेशकीमती कमाई में से एक है.वह शाम उन के बायोपिक रिलीज की शाम थी और वहां ढेरों रिपोर्टर की भीड़ लगी थी. मिल्खा सिंह ने हमसे कहा "लंच के बाद बात करेंगे" और हमें भीड़ से दूर एक कमरे में आराम करने को कहा. जैसे-जैसे वक्त गुजरा मैं परेशान होकर उनके पास पहुंचा और कहा कि आपका कुछ वक्त हमें भी चाहिए.
" रिलैक्स मैंने आपके लिए सबसे अच्छा बचा के रखा है".इस आश्वासन के साथ उन्होंने ठंडी बीयर पकड़ा दी. उन्होंने हमें याद दिलाया "मेरे साथ के लिए एक राउंड बचा के रखना". वह क्या ही प्रिविलेज था. लेजेंड मिल्खा सिंह आपको खुद सर्व करें. कहने की जरूरत नहीं कि उन्होंने हमसें खास बातों को शेयर किया. फिल्मों से ज्यादा नाता ना होने के बाद भी उन्होंने फिल्म करने के लिए हामी भर दी क्योंकि फरहान अख्तर को देखकर उन्हें अपनी जवानी याद आती थी.
उन्होंने आवारा, महल और मदर इंडिया कई बार देखी थी लेकिन एथलेटिक्स के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें फिल्मों से दूर रखा. मैं रोमांचित हो गया जब उन्होंने बताया कि उनकी फेवरेट मधुबाला थीं. वो मेरी भी थीं.
अच्छा मुझे मिल्खा जी से जुड़े दूसरे किस्से को साझा करने दीजिये. एक बार मिल्खा जी के घर चोर आया और सामान लेकर भागने लगा. मिल्खा जी ने कुछ दूर उसका पीछा किया. किसी ने देखा कि मिल्खा पीछे रह गए हैं तो उसने चिढ़ाया कि चोर आप से आगे निकल गया. मिल्खा के सम्मान को ठेस पहुंची तो वह कंपटीशन मोड में आ गए और रफ्तार ऐसी पकड़ी कि अपने आप को बेहतर रनर साबित करने के लिए चोर से आगे निकल गए. चोर भी खुश होकर अपने रास्ते चला गया.
मिल्खा हमेशा सदाबहार एथलीट रहेंगे. एक आदमी जिसने मानवीय सहनशक्ति को गरिमा दी. वे दुर्लभ शान के साथ दौड़े. बार-बार रोककर देखने लायक 400 मीटर के ट्रेक पर दौड़ते मिल्खा सिंह का दृश्य. उनकी दौड़ अब समाप्त होती है. फ्लाइंग सिख को सलाम. रेस्ट इन पीस सर.
विजय लोकापल्ली एक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.इस आर्टिकल में छपे विचार लेखक के हैं. इनसे क्विंट का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.
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