ADVERTISEMENTREMOVE AD

नकल के चक्कर में बचकानी गैंगस्टर कहानियां बना रहे हैं मुंबई वाले

गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

पिछले साल फिल्म निर्देशक राम गोपाल वर्मा की फिल्म सत्या को रिलीज हुए 20 साल हो गए. कई कारणों से सत्या बॉलीवुड के इतिहास में एक अनोखी और खास फिल्म थी. सबसे पहले तो इसने गैंगस्टर पर आधारित फिल्मों का दौर शुरू किया, जिसके बाद बॉलीवुड में पिछले दो दशकों में कई बेहतरीन फिल्में बनीं. इनमें कुछ फिल्में हैं- वास्तव (महेश मांजरेकर, 1999), मकबूल (विशाल भारद्वाज, 2003) और जॉनी गद्दार (श्रीराम राघवन, 2007).

ADVERTISEMENTREMOVE AD
गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं

दूसरी बात, कि ‘सत्या’ में एक बदमाश और एक ड्रग-व्यापारी गैंगस्टर के मानवीय रूप का चित्रण किया गया था. परंपरागत रूप से ये पात्र खलनायक हुआ करता था, जो इस फिल्म में नायक की भूमिका में है. काफी कुछ ये प्रस्तुति हॉलीवुड की फिल्म पल्प फिक्शन (क्वेंटिन टैरेंटिनो, 1994) की तर्ज पर थी.

कह सकते हैं कि ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ (अनुराग कश्यप, 2012) स्टाइल और सफलता में सत्या का उत्तराधिकारी थी. पहली बार मैंने भारतीय संवेदनशीलता को वैश्विक पहचान के साथ विलय होते देखा. फिल्म में संगीत का उपयोग कला को निखारने के लिए किया गया था, न कि पैसों के लिए. फिल्म ने ये भी साबित कर दिया कि परंपरागत रूप से जिन्हें काला धंधा माना जाता है, उन्हें भी बेबाकी से प्रस्तुत किया जा सकता है. ये फिल्म ना सिर्फ मेरे लिए, बल्कि सभी भारतीयों के लिए खास थी. इसका सबूत इंस्टाग्राम है, जहां फैजल खान की नकल उतारने वालों की भरमार है.

पिछले साल अमेजन प्राइम टीवी पर मिर्जापुर (करम अंशुमन) वेब सीरीज आई. ये वेबसीरीज ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की वापसी की कोशिश थी. कह सकते हैं कि गैंग्स स्वर्ण जड़ित, रेड डॉट और लंबे क्लिप वाली बेरेट्टा पिस्टल थी, तो मिर्जापुर जिंदगी भर के लिए अपाहिज बनाने वाली देसी कट्टा. किरदारों में नाटकीयता था और धारावाहिक में अप्राकृतिक हिंसा जरूरत से ज्यादा थी. जहां तक स्क्रिप्ट का सवाल है तो साफ लग रहा था कि कुछ शहरी लोगों से जैसे-तैसे क्षेत्रीय भाषा बोलवाई जा रही है.

गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं

पूरी कहानी किसी महानगर निवासी की कल्पना के आधार पर छोटे शहर में होने वाली हिंसा पर आधारित है. दृश्यों से साफ पता चल रहा था कि DSLR कैमरे से सिर्फ दो एलईडी लाइट में शूटिंग की गई है. शो के पहले सीन में ही क्रू मेंबर की चलती हुई परछाईं नजर आती है. ऐसी बचकानी गलतियों से निश्चित रूप बचना चाहिए, वो भी जब इतने बड़े मंच पर दिखाना हो.

हाल में हिंदी फिल्मों और टेलिविजन में दूसरे दर्जे के शहरों में गैंग में हिंसा दिखाने की बाढ़ आ गई है, जो मिर्जापुर की तरह ही सतही हैं. भारत के मेट्रो शहर विकसित दुनिया के करीब आते जा रहे हैं. ऐसे में कहानी गढ़ने वालों का ध्यान छोटे शहरों में कहानियां खोज रहा है.
गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं
मिर्जापुर का दूसरा सेशन भी दिखाया जाएगा
(फोटो: ट्विटर)

गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं. दर्शकों का एक बड़ा वर्ग महानगरों में रहता है, जो अमूमन घिनौनी हिंसा और भद्दी गालियों से एक दूरी बनाए रखता है. कहानियां भारत के छोटे शहरों की होती हैं, लेकिन उनमें छोटे शहरों के दर्शकों की सोच शामिल नहीं होती. लिहाजा ये प्रस्तुतियां यूपी और बिहार की साख को बट्टे में मिलाती हैं और साथ ही यूपी वालों और बिहारियों की साख को भी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
हमारी फिल्मों और टीवी शोज में दिखाई जा रही महानगरों में बढ़ती अप्रवास विरोधी भावनाएं और प्रमुख राजनीतिक दलों के उकसावे पर अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा में बढ़ोतरी, सिर्फ इन मुद्दों में मिर्च-मसाला मिलाकर दिखाई गई बचकानी प्रस्तुतियां हैं.

फिल्म निर्माता के रूप में ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम कहानियों से समाज पर पड़ने वाले असर को समझें. हमें ये समझना चाहिए कि जिन छोटे शहरों में हमने कम समय बिताया है या समय नहीं बिताया है, वहां की विषय वस्तु पर बेतुकी कहानियां नहीं गढ़नी चाहिए. ये कहानियां उन लोगों के व्यक्तित्व पर अनकही छाप छोड़ती हैं, जो महानगरों में उन छोटे का प्रतिनिधित्व करते हैं, और जिन्हें बिना वजह परेशानियों का सामना करना पड़ता है.

स्ट्रीमिंग सेवाओं में वितरित गैंगस्टर से जुड़ी कहानियों में हिंसा और गालियों की भरमार होती है. सच्चाई प्रस्तुत करना एक बात है, लेकिन हद पार करना क्षुब्ध करता है. ऐसे कॉकटेल के निर्माता भूल जाते हैं कि गैंगस्टर आधारित सर्वश्रेष्ठ कहानियों में बिना किसी सकारात्मक या नकारात्मक भाव के निर्दयता और क्रूरता दिखाई जाती है और इनके साथ नैतिकता को जोड़ने की जिम्मेदारी दर्शकों पर छोड़ दी जाती है.

गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं
गैंग्स ऑफ वासेपुर में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी
(फोटो: Viacom 18 Motion Pictures)  

समस्या ये है कि कई लोग गैंग पर आधारित फिल्में बनाना या उसकी नकल उतारना चाह रहे हैं. सच्चाई ये है कि गैंग पर आधारित कहानी गैंग से अलग नहीं हो सकती. अगर सत्या को द गॉडफादर (फ्रांसिस फोर्ड कोप्पोला, 1972) की नकल माना जा सकता है, तो गैंग्स ऑफ वासेपुर को गुडफेलाज (मार्टिन स्कॉरसेस, 1990) की. पहली फिल्म ने ब्लूप्रिंट तैयार किया, तो दूसरी ने महारत हासिल किया. गुडफेलाज का अनुसरण करने वाली गैंगस्टर आधारित सभी फिल्मों को पूर्ववर्ती फिल्मों से प्रेरणा मिलती है और वो अलग संदर्भ में कुछ नया कहने की कोशिश करते हैं.

गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं
ADVERTISEMENTREMOVE AD
गैंग्स के बाद गैंगस्टर पर आधारित हिंदी फिल्मों में मौलिकता और बारीकियों का अभाव था. बाबूमोशाय बंदूकबाज (कुशन नंदी, 2017), डैडी (आशिम अहलुवालिया, 2017), मिर्जापुर चंद उदाहरण हैं, जो कमजोर, अवास्तविक और काल्पनिक थे. इन्हें मनोरंजन के नाम पर शोषण कहना उचित होगा.

और अगर मुझे अपने इंस्टाग्राम पर इस तरह के विज्ञापन मिल रहे हैं, तो लगता है कि गैंगस्टर आधारित कहानियों से जल्द ही दर्शक ऊब जाएंगे. ये भी कहना मुश्किल है कि निकट भविष्य में इनका स्तर और गिरेगा या बेहतर होगा.

बॉलीवुड और दादी मां का हलवा एक समान हैं. दादी मां के हलवे के पहले कुछ कौर तो अच्छे लगते हैं, फिर वो तब तक जबरदस्ती खिलाती हैं, जब तक हलुए से नफरत न हो जाए. उत्पादकता का ये फर्क बॉलीवुड को भी समझाने की जरूरत है और मेरी दादी मां को भी.

लेकिन अभी उम्मीद बाकी है. अभिषेक चौबे की ‘सोनचिरैया’ कुछ अच्छी प्रस्तुति का आभास दे रही है. हालांकि इसके टीजर और ट्रेलर इशारा करते हैं कि ये बैंडिट क्वीन (शेखर कपूर, 1994) और गैंग्स ऑफ वासेपुर से प्रेरित है. देखना दिलचस्प होगा कि ये फिल्म उन दोनों फिल्मों से कितनी अलग है. अभिषेक चौबे के नाम से इस प्रोजेक्ट में भरोसा है. लेकिन क्या यही भरोसा इंडस्ट्री के दूसरे लोगों पर भी किया जा सकता है? शायद नहीं.

गैंगस्टर आधारित नई कहानियां रचनात्मकता नहीं, उत्पीड़न हैं

(ये लेख सबसे पहले लेखक के निजी ब्लॉग 'Terminal Cinephilia' में छपा था. लेखक की अनुमति से इसे फिर से प्रकाशित किया गया है. विष्णु गुप्ता दिल्ली के रहने वाले लेखक और फिल्म निर्माता हैं. उनका ट्विटर अकाउंट है, @vishnu96gupta. उनकी फिल्में vishnuguptafilm.com पर देखी जा सकती हैं. ये निजी ब्लॉक का लेख है, जिसमें लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट उनके लिए लिए जिम्मेदार नहीं है.)

ये आर्टिकल इंग्लिश का अनुवाद है. इस आर्टिकल को इंग्लिश में पढ़ने के लिए क्लिक करें: What’s With Hindi Entertainment’s Gangster Imposter Syndrome?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×