ऐसा अक्सर कहा जाता है कि सोशलिज्म के साथ समस्या पैसे की बर्बादी है. ये सामान्य सच्चाई भारत में ही नहीं, बल्कि सब जगह दिखाई देती है. मौजूदा प्रसंग एयर इंडिया का है. ये राष्ट्रीयकृत एयरलाइंस एक बार फिर मदद की भीख मांग रही है. जनता का पैसा डूबाने के बाद सरकार अब फिर इसके बेलआउट के नए प्रयोग की ओर देख रही है.
ये नया तरीका है 31 इंस्टीट्यूशंस के 46,570 करोड़ रुपये के कर्ज में से 28,000 करोड़ रुपये को इक्विटी में तब्दील कर दिया जाए.
कुशल और पेशेवर लोगों को शामिल करके एयरलाइंस की लिस्टिंग कर दी जाए. सादगी आकर्षक हो सकती है. यानी कर्जदार मालिकाना हिस्सेदारी और डिविडेंड के एवज में ब्याज से होने वाली आय को भूल जाएं. मालिकाना हक वो ऐसे धंधे में 2016 में जिसे दुनिया की तीसरी सबसे खराब बिजनेस का दर्जा मिला है. और रिटर्न्स वो भी ऐसी एयरलाइंस से, जिसने पिछले 3 साल में 6,279 करोड़, 5859 करोड़ और 3836 करोड़ का घाटा किया हो. नुकसान किसे ?
आखिरकार नुकसान कौन झेलेगा?
इसकी कीमत उन जमाधारकों और शेयरहोल्डरों को चुकानी होगी, जिनके पैसे उन 31 बैंकों, एलआईसी और ईपीएफओ में लगे हैं, जिन्होंने एयर इंडिया को कर्ज दिया है. गौरतलब है कि ये वो बैंक हैं जो पहले से ही एनपीओ की समस्या से जूझ रहे हैं. इन सरकारी बैंकों का एनपीए बढ़कर 200 अरब डॉलर पहुंच चुका है और इनमें करीब 1.10 लाख करोड़ रुपये की पूंजी डालने की जरूरत है.
लेकिन इस कदम से कुछ नैतिक खतरे भी जुड़े हैं – क्या ये दरियादिली बाकी बीमार सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के लिए उदाहरण नहीं बन जाएगी.
इन इकाइयों पर मालिकाना हक सरकार का है और मालिक को इनके प्रबंधन या कुप्रबंधन की जिम्मेदारी लेनी होगी. अगर सरकार को एयरइंडिया को बेलआउट करना जरूरी है, तो ये बैलेंस शीट से इतर दूसरे तरीकों से क्यों हो? बेलआउट की प्रक्रिया पारदर्शी क्यों नहीं होनी चाहिए, जैसा कि 2002 में यूटीआई और बैंकों के साथ किया गया?
क्या सरकार को एयरलाइंस चलाना जरूरी है?
लेकिन सबसे मौजूं सवाल ये है कि क्या सरकार के लिए एयरलाइन रखना और चलाना जरूरी है? गौरतलब है कि इस नए बेलआउट में एयर इंडिया को सरकारी नियंत्रण से बाहर रखने पर कुछ नहीं कहा जा रहा.
तकनीकी तौर पर भारतीय आसमान प्राइवेट एयरलाइंस के लिए मार्च 1994 में ही खोल दिया गया था. पीवी नरसिम्हा राव सरकार को एयर कॉरपोरेशन एक्ट को खत्म किए 23 साल बीत चुके हैं. इसके चलते भारतीय आकाश में एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस की मोनोपॉली खत्म हो गई थी और निजी एयरलाइंस के लिए रास्ता साफ हो गया था.
फैसले का मतलब साफ था कि सरकार को अब इस सेक्टर से बाहर आ जाना चाहिए.
हालांकि अब तक हर सिविल एविएशन मंत्री ने इसके राजनीतिक विरोध को राष्ट्रीय हित से जोड़कर दिखाने की कोशिश की है. सरकारी एयरलाइंन की जरूरत को बहुत चतुराई से सामने रखा जाता रहा है और प्राइवेट कंपनियों से प्रतिस्पर्धा से बचाया जाता रहा. इसे टाटा-सिंगापुर एयरलाइंस के प्रस्ताव को खारिज किए जाने में साफ तौर पर समझा जा सकता है, जबकि एफआईपीबी ने इसे हरी झंडी दे दी थी. लेकिन अलग-अलग विचारधाराओं वाले 30 सांसदों के इसके खिलाफ चिंता जताने पर प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया.
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी इस यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश की थी. 2000 में विनिवेश मंत्रालय (पहले अरुण जेटली और अरुण शौरी) ने एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस के विनिवेश का मन बना लिया था. इसके पीछे इस धारणा को तोड़ना था कि सरकार के पास पूर्ण स्वामित्व वाली एक सरकारी एयरलाइंन होनी चाहिए. ऐसा ब्रिटेन और दर्जनभर दूसरे देशों में हो भी चुका है.
विनिवेश का विज्ञापन 28 अगस्त 2000 में जारी किया गया. इस नीति में इंडियन एयर लाइंस की 26 फीसदी और एयर इंडिया की 40 फीसदी सरकारी हिस्सेदारी रणनीतिक साझेदारों को बेचने की बात कही गई थी. इसके बाद इंडियन एयरलाइंस की 25 फीसदी और एयर इंडिया की 20 फीसदी हिस्सेदारी उनके कर्मचारियों, आम निवेशकों और फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशंस को बेचा जाना था.
इस ऐलान ने सबका ध्यान खींचा. जिन निवेशकों को छांटा गया, उनमें सिंगापुर एयरलाइंस के साथ टाटा संस, लुफ्थहंसा के साथ हिंदुजा ग्रुप की अशोक लेलैंड, एलएन मित्तल-कोटक महिंद्रा के साथ ब्रिटिश एयरवेज और क्वांटस, स्काई टीम अलायंस ( डेल्टा और एयर फ्रांस), एसपी वर्मा की अगुवाई में इंडियन पायलट्स गिल्ड और वीडियोकॉन इंटरनेशनल को दो एशियाई एयरलाइंस के साथ मिलकर बोली लगाने वाले थे.
लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के आशीर्वाद के बावजूद राजनीतिक महाराजाओं ने विनिवेश की इस प्रक्रिया को उड़ान भरने नहीं दिया. 2004 में यूपीए सत्ता में आया. यूपीए सरकार लेफ्ट के समर्थन पर निर्भर थी. निजीकरण का एजेंडा पीछे चला गया. जैसे एयरपोर्ट्स का निजीकरण किया गया, वैसे ही रणनीतिक साझेदारी की साथ एयरलाइंस का भी हो सकता था, लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
हकीकत में 2004 से 2008 के बीच भारत की जीडीपी ग्रोथ 9 फीसदी से ज्यादा थी. लगातार तीन साल डावोस में भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती मार्केट इकोनॉमी माना गया. इस मौके का फायदा बाजार में विनिवेश के जरिए उठाया जा सकता था. जैसा कि ब्रिटेन ने ब्रिटिश एयरवेज के मामले में पब्लिक इश्यू लाकर किया.
यूपीए ने सत्ता में आने के बाद सरकारी नियंत्रण को ही तरजीह दी. 10 अरब डॉलर से 111 नए एयरक्राफ्ट खरीदकर एयर लाइंस के बेड़े का आकार बढ़ाया, लेफ्ट फ्रंट के समर्थन से इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया का विलय कर दिया गया.
यथास्थितिवाद का चुनाव और विकास दर जमीन पर आना, 2008 की मंदी, असफल विलय और बढ़ती लागत ने इस शाही बदइंतजामी को पैदा किया. 2009 आते आते विलय के बाद वजूद में आई नेशनल एविएशन कंपनी हर दिन 10 करोड़ रुपए का घाटा करने लगी. यहां तक कि उसकी नेटवर्थ खत्म हो गई और तत्काल 7,500 करोड़ रुपये के बेलआउट पैकेज देने की जरूरत पड़ गई.
2017 में एक बार फिर ये कमजोर और बीमार कंपनी बेलआउट की लाइन में आकर खड़ी हो गई.
बेलआउट के नतीजे
अमूमन बेलआउट के बाद बार-बार बेलआउट देना पड़ता है. सबसे अहम ये कि इसके राजनीतिक अर्थव्यवस्था को सहारा देने का मायने हैं. ये अविवादित तथ्य है कि जिस बाजार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक और निजी कारोबार गड्डमड्ड होते हैं, खासकर भारत जैसे देश में, हमेशा सार्वजनिक कारोबार को घाटा ही होगा.
वजह साफ है– सरकारी कंपनियों में राजनीतिक दखलंदाजी होती है और निजी कारोबारी चतुर चालाक होता है. इसकी ताकीद बीएसएनएल और एमटीएनएल के मामले से समझी जा सकती है. दो प्राइवेट बैंक की मार्केट वैल्यू सारे लिस्टेड सरकारी बैंकों से ज्यादा है.
सारे सेक्टरों की यही कहानी है. 234 सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में 71 घाटे में चल रही हैं. इनमें 36 इकाइयों लगातार 5 साल से घाटा दिखा रही हैं. सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हर साल 20 हजार करोड़ रुपये का घाटा दे रही हैं. यानी रोजाना 50 करोड़ रुपये. अब तक 1,19,230 करोड़ रुपये का नुकसान कर चुकी हैं.
कुल मिलाकर अब इस सार्वजनिक क्षेत्र को लेकर नए तरीके से सोच-विचार करने का वक्त आ चुका है. इन्हें अब राजनीतिक प्रबंधन से बाहर निकालकर जनता को मालिकाना हक सौंप दिया जाए. क्या जरूरी है कि सरकार कारोबार करे?
(शंकर अय्यर एक्सीडेंटल इंडिया : ए हिस्ट्री ऑफ द नेशसंस पसैज थ्रो क्राइसिस एंड चेंज के लेखक हैं. उनका ये कॉलम मूल रूप से 'द न्यू इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित हुआ था. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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