कुछ ही प्रधानमंत्री तीन साल के बाद भी ‘वोटरों के साथ हनीमून पीरियड’ का दावा कर सकते हैं. पाकिस्तान को हराने और बांग्लादेश को अलग राष्ट्र बनने में मदद के बाद इंदिरा गांधी को 1971 में लोकसभा चुनाव में शानदार जीत मिली थी. लेकिन उसके ढाई साल बाद ही वह मुश्किल में फंस गई थीं.
गुजरात में छात्रों के एक आंदोलन से बिहार में राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हुई, जिससे इंदिरा विरोधी देशव्यापी जेपी आंदोलन की बुनियाद बनी.
जॉर्ज फर्नांडिस के आह्वान पर 1974 में रेलवे की हड़ताल हुई, जो 20 दिनों तक चली और इससे देश की ट्रांसपोर्टेशन लाइफलाइन पंगु हो गई और अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा. इसके एक साल बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले में रायबरेली से इंदिरा के चुनाव को अमान्य घोषित किया गया और देश में इमरजेंसी लगी. इमरजेंसी के बाद क्या हुआ, यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है.
इंदिरा के बेटे राजीव गांधी 1984 में सत्ता में सबसे अधिक सीटें लेकर आए. उन्होंने नाना जवाहरलाल नेहरू का रिकॉर्ड भी तोड़ दिया था. तीन साल बाद वह बोफोर्स मामले में फंसे और उन्हें अपने ही वित्त मंत्री वीपी सिंह की बगावत का सामना करना पड़ा.
शाह बानो मामले में अदालत के फैसले के बाद धार्मिक उन्माद बढ़ा और अयोध्या में राम मंदिर की मांग उठने लगी. 1989 में पूरे विपक्ष ने संसद से इस्तीफा दे दिया और राजीव गांधी की उसी साल होने वाले चुनाव में हार हुई.
तब और आज के राजनीतिक हालात में काफी अंतर है. पिछले तीन साल में भी कई घटनाएं हुई हैं, जिनसे मोदी को कमजोर होना चाहिए था. जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी जब चाहे, तब हमले कर रहे हैं. पाकिस्तान सीमा पर तनाव बढ़ा हुआ है.
कश्मीर संकट गहरा गया है. यहां तक कि राज्य के स्कूली बच्चे भारत सरकार को चुनौती देते दिख रहे हैं. देश की अर्थव्यवस्था मुश्किलों का सामना कर रही है. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ना के बराबर विदेशी निवेश हो रहा है. रोजगार के नए मौके नहीं बन रहे. अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी का असर अब भी बना हुआ है. इसके साथ, देशभर में जातीय और सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा है.
हालांकि, इंदिरा और राजीव के उलट मोदी कार्यकाल के तीन साल पूरे करने के बाद कहीं ज्यादा ताकतवर दिख रहे हैं. 2015 में मोदी को कुछ समय तक दिक्कत हुई थी, लेकिन उसके बाद से उन्होंने खुद को देश के सबसे कद्दावर राजनेता के तौर पर स्थापित कर लिया है. विपक्षी दलों को वह एक के बाद एक चुनाव में धूल चटा रहे हैं.
यूपी में बीजेपी की जीत से यह बात साबित हो गई है कि अमित शाह के साथ मिलकर वह ना सिर्फ कमजोर और नेतृत्वविहीन कांग्रेस पर भारी पड़ रहे हैं, बल्कि एसपी और बीएसपी जैसे क्षेत्रीय दलों को भी मोदी से मुकाबले का कोई फॉर्मूला नहीं सूझ रहा है.
मोदी अपने कार्यकाल के चौथे साल में अप्रत्याशित लोकप्रियता के साथ प्रवेश कर रहे हैं. उन्होंने आलोचकों और विपक्षी दलों की बोलती बंद कर दी है. आखिर वह इतने लंबे समय तक लोकप्रिय क्यों बने हुए हैं? क्या 2019 लोकसभा चुनाव तक उनकी लोकप्रियता बनी रहेगी? क्या जनता उन्हें फिर से प्रधानमंत्री चुनेगी, जिसके लिए वह बेसब्र हैं?
गेम चेंजर
मोदी ने पिछले साल दो ऐसे काम किए, जो उनके लिए गेम चेंजर साबित हुए हैं. इनमें से एक सीमापार की सर्जिकल स्ट्राइक और दूसरी नोटबंदी है. सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये उन्होंने मजबूत राष्ट्रवाद का संकेत दिया तो नोटबंदी के जरिये भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं करने का मैसेज. विपक्षी दल इन मामलों में मोदी को घेर नहीं पाए और इसलिए वे दिन ब दिन राजनीतिक जमीन बीजेपी के हाथों गंवा रहे हैं.
2014 लोकसभा चुनाव में उन्होंने खुद को बिजनेस और रिफॉर्म फ्रेंडली लीडर के तौर पर पेश किया था. उन्होंने कहा था कि वह रोजगार के मौके पैदा करेंगे और देश में समृद्धि लाएंगे. लेकिन उन्हें पांच साल के कार्यकाल के बीच में लगा कि 2014 की इमेज से दूसरी बार प्रधानमंत्री बनना मुश्किल है. मोदी सरकार वादों को तेजी से पूरा नहीं कर पा रही थी और लोगों में उसके प्रति गुस्सा बढ़ रहा था. उन्हें एक नए एजेंडा की जरूरत थी.
नोटबंदी के बाद वह खुद को भ्रष्टाचार विरोधी नेता के तौर पर पेश कर रहे हैं और वह ‘गरीबों का मसीहा’ वाली छवि गढ़ने में सफल रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि उनकी यह रणनीति सफल रही है.
नोटबंदी से 83 पर्सेंट कैश को अचानक अमान्य घोषित करके भले ही अर्थव्यवस्था बेपटरी हो गई थी, लेकिन वह लोगों को यकीन दिलाने में सफल रहे कि करप्शन को खत्म करने के लिए कुछ कुर्बानी देनी जरूरी है. इस कदम से बीजेपी की पहुंच नए वोटरों के वर्ग तक हुई, जिसे वह 2014 से साथ लाने की कोशिश कर रहे थे.
बीजेपी छोटे ओबीसी जातियों को साथ लाने की कोशिश कर रही थी. मोदी को इसका अहसास है कि मंडल आंदोलन के बाद कई ओबीसी जातियों की महत्वाकांक्षा बढ़ी है, जिसे दूसरे राजनीतिक दल पूरा नहीं कर पाए हैं.
अगले लोकसभा चुनाव में दो साल का समय बचा है. क्या मोदी 2019 चुनाव तक अपना जादू बनाए रख पाएंगे? क्या तब तक लोकप्रिय नेता की उनकी छवि बनी रहेगी? अगले दो साल में मोदी की रणनीति क्या होगी, इसके संकेत अभी से दिख रहे हैं. पहली, वह विपक्ष को दबाना चाहते हैं. कई विपक्षी नेताओं के नाम घोटालों से जुड़े हैं और उन पर सीबीआई के छापे पड़ रहे हैं. मोदी राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं.
गांधी परिवार, रॉबर्ट वाड्रा, चिदंबरम और उनके बेटे, लालू यादव, ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के नेता, नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी के नेता, जयललिता के उत्तराधिकारी सरकारी जांच एजेंसियों और इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के फंदे में फंसे हैं. इनमें कई मामले कुछ साल पुराने हैं, लेकिन अब कार्यवाही में तेजी आई है. इससे कई विपक्षी नेताओं को 2019 चुनाव से पहले जेल जाने की आशंका सता रही है.
दूसरी, मोदी अपनी राष्ट्रवादी, मसीहा और रक्षक की छवि गढ़ रहे हैं. यह बात भी साफ दिख रही है कि मोदी के कार्यकाल के अगले दो साल में गवर्नेंस नहीं सियासत हावी रहने वाली है. अभी तक मोदी 2019 चुनाव में सबसे आगे दिख रहे हैं, लेकिन विपक्षी दलों में भी बेचैनी बढ़ रही है. क्या वह राजनीतिक बहस को बदलने के मोदी के खेल में उन्हें हरा पाएगा?
(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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