वित्त मंत्रालय ने कहा है कि बजट में जितने घाटे का अनुमान लगाया गया था, वह अभी ही उसके 97 पर्सेंट तक पहुंच गया है. उसे और पैसों की जरूरत है, यह इस बात को घुमा-फिराकर कहने का तरीका है. हालांकि इसमें कुछ भी नया नहीं है और पिछले 50 साल से ऐसा ही होता आ रहा है.
पिछले महीने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और सरकार के बीच टकराव की एक वजह यह भी थी. इस तू-तू, मैं मैं से कई पुराने सवाल फिर से प्रासंगिक हो गए हैं. इनमें सबसे बड़ा सवाल, जिसका सामना राजकाज चलाने वाले को हमेशा करना पड़ा है कि अतिरिक्त पैसों का इंतजाम कहां से होगा? क्या इसके लिए किसी को लूटना पड़ेगा, टैक्स लगाना होगा या कर्ज लेना होगा?
अगर सत्ता पर आपका एकाधिकार हो, आपके पास फिजिकल या कानूनी ताकत हो, तो आप किसी को भी लूट सकते हैं. यह पैसों के इंतजाम का सबसे आसान तरीका होगा. हालांकि इससे अवाम के नाराज होने का डर होता है.
टैक्स से सरकारी खजाना भरना इतना आसान नहीं होता. आप टैक्स थोप तो सकते हैं, लेकिन उसकी वसूली आसान नहीं होती. टैक्स वसूलने की भी एक लागत होती है, इसलिए इससे मामूली फायदा ही होता है. सरकार हर एक रुपये का टैक्स कलेक्ट करने पर 85 पैसे खर्च करती है. इसलिए शासकों को कर्ज लेना आसान लगता है. जमाने से वे ऐसा करते रहे हैं. वहीं अगर आप बॉस हैं, तो आपको पूरा कर्ज भी नहीं चुकाना पड़ता. यह ‘परंपरा’ भी सदियों पुरानी है.
नए नोटों की छपाई
अंग्रेजों का उधार लेने का जो तरीका था, उससे हमें सेंट्रल बैंक मिला. 1694 में लंदन के महाजनों ने करीब 10 लाख पौंड के कर्ज के बदले ब्रिटिश हुकूमत की करेंसी पर कंट्रोल हासिल कर लिया था. उन्होंने ऑरेंज के किंग विलियम से कहा कि अगर आप लूट और टैक्स के जरिये हमारा पैसा नहीं लौटा पाते हैं, तो हम इसकी वसूली के लिए नए नोट छापेंगे. यह सिस्टम सभी को सूट करता था, इसलिए यह फला-फूला और दुनिया में हर जगह इसका इस्तेमाल हुआ.
लेकिन वह राजा ही क्या, जिसे कुछ महाजन ब्लैकमेल करें? इसलिए जब 20वीं शताब्दी के मध्य में पैसों की मांग बढ़ती गई, तब सेंट्रल बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया.
सरकारों ने कहा कि हमें जितने नोट की जरूरत होगी, हम खुद छाप लेंगे. इस तरह से उन्होंने महाजनों को उनकी औकात बताई. यह सिस्टम भी कुछ समय तक ठीक चलता रहा, लेकिन जल्द ही नेताओं पर नोट छापने का जुनून सवार हो गया. हर जगह ऐसा ही हो रहा था. इसकी हालिया मिसाल यूरोपीय देश हैं.
भारत में यह खेल काफी पहले से चल रहा था...
भारत में इसकी शुरुआत कुछ पहले ही हो गई थी. उस वक्त राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. उनके पांच साल के कार्यकाल में बजट घाटा चार गुना बढ़ गया था. इसकी भरपाई के लिए खूब नए नोट छापे गए. इसमें उनका साथ उस शख्स ने दिया, जिसे राजीव ने रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाने में मदद की थी.
अगर मैं ठीक हूं, तो नरसिम्हा राव सरकार को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ यानी इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड) के 33 साल के जिस अधिकारी ने बताया कि नए नोट छापने की बेवकूफी बंद होनी चाहिए, उनका नाम उर्जित पटेल था. राव सरकार के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह भी इससे सहमत थे, लेकिन 33 साल के बच्चे का सलाह देना उन्हें नागवार भी गुजरा था.
1994 में सरकार ने ऐलान किया कि उसने अस्थायी सरकारी बॉन्ड (ऐड हॉक ट्रेजरी बिल) के जरिये कर्ज लेने का सिस्टम बंद करने का फैसला किया है. इस तरह से 1955 से चली आ रही ‘परंपरा’ खत्म हुई. दरअसल ऐसे बॉन्ड से सरकार रिजर्व बैंक से छोटी रकम उधार लेती थी, तो इससे उसे खर्च और आमदनी के बीच गैप को पाटने में मदद मिलती थी. 1997 में इस सिस्टम को खत्म करने के लिए उसने रिजर्व बैंक के साथ एक फॉर्मल एग्रीमेंट भी किया.
इस समझौते में तीन बातें कही गई थीं:
- सरकार अब आरबीआई से ओवरड्राफ्ट के तौर पर वित्तीय मदद ले सकती है
- वह इनवेस्टमेंट के लिए उससे फंड नहीं लेगी
- यह बजट घाटे में नहीं दिखेगा. इससे सारे संबंधित पक्ष खुश थे
ऐडहॉक ट्रेजरी बिल को रिवाइव किया जाए?
यह ऐसा ही था, जैसे आप बिल्ली को दूध पीने से रोक रहे हों और इसका वैसा ही हश्र भी हुआ. बिल्ली नाराज हो गई है और अब वह खिसियाकर खंभा नोच रही है. दिक्कत यह है कि सरकार को जरूरत पड़ने पर पैसे खर्च करने पड़ते हैं.
आज इसका मतलब यह है कि उसे हमेशा ही पैसे खर्च करने होते हैं, लेकिन पैसा आए कहां से? इसलिए मैं यह सवाल उठा रहा हूं कि एक प्रधानमंत्री के बहकने की वजह से क्या यह सिस्टम बंद कर देना चाहिए? क्या ऐड हॉक ट्रेजरी बिल के दूसरे वर्जन का वक्त आ गया है? अगर नहीं तो इसकी वजह बताई जाए.
जवाब ऐसा होना चाहिए, जिस पर यकीन किया जा सके. इसमें बताया जाना चाहिए कि 3 पर्सेंट के बजट डेफिसिट को क्यों आदर्श मान लिया गया है. इसके लिए कोई भविष्यवाणी तो हुई नहीं थी. आईएमएफ ने बस एक टारगेट तय कर दिया, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं है.
अस्थायी सरकारी बॉन्ड से फंड जुटाने की एवज में सरकार अपने पांच या छह बैंकों के निजीकरण का वादा करे. एसबीआई और कुछ छोटे पब्लिक सेक्टर बैंकों पर वह नियंत्रण बनाए रख सकती है. अगर ऐसा कुछ नहीं किया गया, तो खिसियाई सरकारें हमेशा खंभा नोचने की कोशिश करेंगी.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)