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आजादी के सिपाहियों की विरासत पर PM मोदी की ‘इमेज बिल्डिंग’ पॉलिसी

BJP राष्ट्रवाद का लबादा लपेटने के चक्कर में अब स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को भी इस्तेमाल करने को तैयार है.

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...तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की जयंती को अपने अभियान ‘70 साल आजादी : जरा याद करो कुर्बानी’ के लिए चुना है.

दरअसल, यह भारत छोड़ो आंदोलन की 74वीं जयंती है, न कि 70वीं. लेकिन यहां हम इस कॉलम में गणित के इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. बल्कि इतिहास पर कुछ अहम सवाल खड़े करना चाहते हैं.

बीजेपी खुद को राष्ट्रवाद के लबादे में लपेटना चाहती है. इसके लिए वो अब स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को भी इस्तेमाल करने को तैयार है, जबकि बड़ी विडंबना तो यह है कि बीजेपी चाहती तो इस मौके को जश्न मनाने की बजाय, आलोचना करने का एक जरिया बना सकती थी. क्योंकि भारत छोड़ो आंदोलन के छिड़ते ही ब्रिटिश शासन ने देश के सभी प्रमुख नेताओं और राष्ट्रीय आंदोलन के हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया था.

इससे मुस्लिम लीग को अपना समर्थन आधार खड़ा करने का मौका मिल गया. 1937 के चुनावों में वह अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रही थी. भारत छोड़ो आंदोलन से पैदा हुए हालातों से उसे भरपाई का अच्छा मौका मिल गया था.

इसने उन हाथों को मजबूत किया, जो देश के टुकड़े करने के पक्ष में थे. लेकिन कांग्रेस की नादानी में शुरू किए गए इस आंदोलन की जयंती को मोदी सरकार छोड़ना नहीं चाहती. वो इसे अपने हिसाब से इस्तेमाल करना चाहती है. उस इतिहास का इस्तेमाल, जिसमें वह आजादी के नायकों को अपने पाले में खड़ा दिखा सकें.

जनसंघ में नहीं था कोई स्वतंत्रता सेनानी

बीजेपी के साथ दिक्कत यह है कि जिस राजनीतिक विरासत को वह लेकर चलती है, वह जनसंघ, आरएसएस और हिंदुत्व के आंदोलन में गुंथी हुई है. और हकीकत यह है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में इसका कोई सिपाही शामिल नहीं था.

बीजेपी अपना मूल उन नेताओं में खोजती है, जो आजादी के लिए शुरू हुए राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय नहीं थे. इस संदर्भ में बीजेपी के पितृ संस्थानों के पास लोगों को प्रेरित करने के लिए कुछ भी नहीं है. लिहाजा मोदी को आजादी के रोल मॉडल के लिए दूसरों की ओर देखना पड़ा है.

सरदार पटेल की विरासत पर दावा

सरदार पटेल की विरासत पर दावा करना काफी पहले से शुरू हो चुका था. हालांकि 2014 के चुनाव से पहले आधुनिक भारत के संस्थापकों में से एक पटेल की इस विरासत पर गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी ने कुछ ज्यादा जोर-शोर से दावा ठोकना शुरू किया.

विरासत के इस दावे में मोदी ने अपनी पार्टी की ओर से किए जाने वाले आम दावे के उलट थोड़ी खास मशक्कत की. उन्हें देश भर के किसानों को अपने हल का लोहा दान करने के लिए कहा ताकि गुजरात में सरदार पटेल 550 फीट मूर्ति तैयार की जा सके. ऐसी मूर्ति जिससे स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी भी छोटी पड़ जाए.

हालांकि यह मूर्ति भाजपा के कृत्रिम सम्मान के पात्र उस विनम्र गांधीवादी के स्मारक से ज्यादा उसके निर्माता की महत्वाकांक्षा का प्रतीक होगी.


BJP राष्ट्रवाद का  लबादा  लपेटने के चक्कर में अब स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को भी इस्तेमाल करने को तैयार है.

मोदी का मकसद

मोदी के मकसद को समझना मुश्किल नहीं है. गुजरात में 2002 में उनके मुख्यमंत्री रहते नरसंहार हुआ और उन्होंने कुछ नहीं किया. इससे उनकी छवि तार-तार हो गई. इस नरसंहार में एक हजार से ज्यादा गुजराती मुसलमान मारे गए. अब मोदी खुद को पटेल की छवि से आइडेंटिफाई करना चाहते हैं. अब वह खुद को पटेल जैसा दृढ़ निर्णय करने वाले ठोस निर्णायक शख्स के तौर पर दिखाना चाहते हैं, ताकि वह अपने विरोधियों की ओर से कट्टर शख्स होने के आरोपों से मुक्ति पा सकें.

आप निश्चित रहिए, अगले एक साल तक जिस स्वतंत्रता संग्राम की कहानियां सुनाई जाएंगी, उनमें बताया जाएगा कि पटेल ने किस तरह देश को एक किया. वह किस तरह विभाजन के खौफनाक दिनों में देश के हिंदुओं के लिए उठ खड़े हुए और कश्मीर जैसे मुद्दों पर दृढ़ रहे. जबकि प्रधानमंत्री नेहरू का रवैया लचर था.  

मोदी ने खुलेआम कहा है कि अगर नेहरू की जगह पटेल देश के प्रधानमंत्री होते, तो आज भारत की तस्वीर ज्यादा अच्छी होती. जबकि पटेल ने खुद नेहरू को लिखा था कि हम दोनों का एक रहना ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है. लेकिन नेहरू की जगह पटेल को उभारना मौजूदा कांग्रेस बनाम बीजेपी की उनकी राजनीति को ज्यादा सुहाता है.

सरदार की तरह पेश किए जा रहे हैं मोदी

देश को एक करने में पटेल की भूमिका का प्रचार मोदी के मुफीद बैठता है. इससे उन्हें एक लौह पुरुष की छवि मिलती है. पटेल में राष्ट्रीय अपील है. वह गुजराती मूल के थे और यह मोदी के लिए मुफीद हैं. गुजरातियों को भी मोदी अपील करते हैं. उन्हें लगता है कि गुजरात के पुत्र की ओर देश आशा भरी निगाहों से देख रहा है.

मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा मोदी को एक ऐसे मजबूत नेता के तौर पर देखता है, जो देश को समस्या और मौजूदा अराजकता से निकाल ले जाएगा.

लेकिन विभाजन के समय हुई हिंसा के दौरान पटेल का जो रुख था, वह मोदी से बिल्कुल उलट था. मोदी और पटेल दोनों को कानून व्यवस्था के बुरी तरह बिखरने की स्थिति का सामना करना पड़ा था. दोनों को मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और दंगों की स्थिति थी. लेकिन दिल्ली में जब 1947 के दौरान मुसलमानों के खिलाफ दंगा फैला, तो पटेलों ने तुरंत फैसला लिया और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की. वह असुरक्षित इलाकों से दस हजार मुसलमानों को निकाल कर लाल किले की सुरक्षा में ले आए.

सरदार पटेल की काबिलियत

सरदार पटेल को यह आशंका थी कि स्थानीय पुलिस धर्मांधता से प्रभावित हो सकती है, इसलिए उन्होंने दिल्ली में सुरक्षा व्यवस्था बहाल करने के लिए दिल्ली और पुणे से टुकड़ियां मंगवाईं. पटेल ने यह सुनिश्चित किया कि अफरातफरी और हिंसा के दिनों में भी मुसलमान हजरत निजामुद्दीन में नमाज पढ़ सकें.

इस तरह उन्होंने साफ संदेश दिया कि भारत की मिट्टी में मुसलमान और उनका धर्म सुरक्षित हैं. पटेल सीमा से सटे अमृतसर गए, जहां से मुस्लिम तेजी से पाकिस्तान भागे जा रहे थे. उन्होंने हिंदू और सिखों की पागल भीड़ों से अपील की कि वह मुस्लिम शरणार्थियों को निशाना बनाना छोड़ दें. अपनी इन कोशिशों में पटेल पूरी तरह कामयाब रहे थे और आज जो इस तरह के दसियों हजार लोग अगर जिंदा हैं, तो इसके पीछे समय से उनकी ओर से लिए गए फैसले का ही हाथ है.

गुजरात का नरसंहार

लेकिन इसके उलट गुजरात में 2002 के दंगों के दौरान मोदी का रवैया दुखद था. भले ही कोई मोदी को इस नरसंहार के लिए सीधे दोषी न ठहराए, लेकिन 1947 में पटेल ने दिल्ली में जो कदम उठाए, कम से कम मोदी को तो ऐसा श्रेय नहीं मिल सकता.

गुजरात में 2002 के दंगों को दौरान मोदी ने कोई सीधी और फौरी कार्रवाई नहीं की. जबकि राज्य के मुख्य कार्यकारी होने के नेता मुसलमानों को बचाने की उनकी जिम्मेदारी थी.

मोदी ने सार्वजनिक तौर पर इन हमलों की निंदा नहीं की. किसी मस्जिद या मुस्लिम इलाकों में जाकर मुसलमानों को उनकी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करने का प्रतीकात्मक कदम उठाने की बात तो छोड़ ही दीजिए. इसके उलट हिंसा के प्रति उनकी अनदेखी ने पीड़ितों की बजाय दंगाइयों को सुरक्षा और राहत दी.

पटेल से ऐसे बयान की उम्मीद नहीं की जा सकती, जैसा मोदी ने एक इंटरव्यू के दौरान दिया था. उन्होंने मुस्लिमों की मौत पर अफसोस जताते हुए कहा था कि यह वैसा ही जैसे वह किसी कार से जा रहे हों और उससे कुचलकर कोई पिल्ला मर जाए.

मोदी जैसे स्वयंभू हिंदू राष्ट्रवादी के साथ एक खास तरह की विडंबना है. उनके भाषणों में मुसलमानों के प्रति एक छिपी हुई अवमानना देखने को मिलती है. मोदी उस गांधीवादी नेता की विरासत पर दावा कर रहे हैं, जिसके भारतीय राष्ट्रवाद पर कभी भी धर्म का मुलम्मा नहीं चढ़ा रहा.

गांधीवाद की राह

मैंने नेहरू पर लिखी अपनी जीवनी नेहरू: द इनवेंशन ऑफ इंडिया में नेहरू और पटेल पर कई मुद्दों पर टकराव के उदाहरण दिए हैं. लेकिन ऐसे उदाहरण भी हैं जब पटेल को यह चुनने का मौका आया कि हिंदू और नैतिक दृष्टि से किसे चुना जाए, तो उन्होंने नैतिक दृष्टि को चुना. यह उनका गांधीवादी रुख था. एक उदाहरण संघ परिवार के लोग अक्सर तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं.

उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के मामले में नेहरू और लियाकत अली खान के समझौते का विरोध किया था. पटेल ने इसकी कड़ी आलोचना की थी. नेहरू और पटेल दोनों इस बारे में बिल्कुल एकमत नहीं थे.

मुसलमानों के प्रति मोदी की अवमानना

लेकिन नेहरू अपने पोजीशन पर अड़े हुए थे. इस मामले पर पटेल ही पीछे हटे. लेकिन उनका रवैया पूरी तरह गांधीवादी था. उनका कहना था कि जब पश्चिम बंगाल में मुस्लिमों पर हमले हो रहे हैं, तो हम पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे हमलों की निंदा कैसे कर सकते हैं.

यह किसी भारतीय राष्ट्रवादी की विचारधारा नहीं, बल्कि एक ठेठ गांधीवादी की विचारधारा थी.

जबकि मोदी के मामले से इसकी तुलना करें, तो उन्होंने खुद को खुलेआम हिंदू राष्ट्रवादी करार दिया है. उन्होंने पहले ऐसे भाषण दिए हैं, जिनमें मुसलमानों के प्रति छिपी अवमानना साफ दिखती है.

इतिहास भारत की धरती पर हमेशा विवादास्पद विषय रहा है. 21वीं सदी की राजनीति में इसका फिर उभरना यह संकेत देता है कि वर्तमान पर अतीत की पकड़ बनी हुई है.

बहरहाल, अगले एक साल तक लोग स्वतंत्रता संग्राम के कई महत्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े समारोह के गवाह बनेंगे. हर किसी को सत्तारुढ़ की राष्ट्रवाद की अवधारणा से परिचित कराने की कोशिश होगी. वह उस विरासत पर हक जताने की कोशिश करेंगे, जिनके लिए सत्तारुढ़ पार्टी के पितृ संस्थानों ने कुछ नहीं किया.

(शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र के अंडर-सेक्रेट्री-जनरल रहे हैं. वह कांग्रेस के सांसद और जाने-माने लेखक भी हैं.)

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