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सरकार समाजवादी नीति को खत्म करना चाहती है तो पहले 2 कानून खत्म करे

क्या सीतारमण कुछ कार्रवाई कर सकती हैं ताकि साबित किया जा सके कि भारत मॉडर्न फ्री-मार्केट इकनॉमी को अपनाना चाहता है?

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बिजनेस न्यूज देखने लाखों दर्शकों की तरह मेरे काम का दिन भी लगातार, बैकग्राउंड में लाइव स्टॉक मार्केट टीवी की धीमी आवाज से भरा हुआ है. मैं शायद ही इसे कभी सुनता हूं, लेकिन इसका चारों तरफ मौजूद होना मुझे आश्वस्त करता है, खासकर अगर कोई ऐसी खबर आती है जिसका असर स्टॉक/बॉन्ड की कीमत पर पड़ता है, क्योंकि वैसी स्थिति में आपको नुकसान कम करने या फायदा उठाने के लिए जल्दी कदम उठाने होते हैं. इसलिए मैं हमेशा टीवी ऑन रखता हूं लेकिन इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देता.

लेकिन उस दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बोल रही थीं. मुझे उम्मीद थी कि वो कुछ सामान्य बातें बोल रही होंगी जो हमेशा कहती हैं, इसलिए मैं उनके संबोधन से बेखबर एक डेटा वर्कशीट में लगा रहा. पर मैंने कुछ ऐसे शब्द सुने जिन्होंने मुझे चौंका दिया.

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क्या! क्या उन्होंने अभी-अभी ये कहा कि “भारत के लिए पुरानी सोशलिस्ट इकनॉमिक पॉलिसी (समाजवादी आर्थिक नीतियों) को छोड़ने का वक्त आ गया है.”

मैं सीधा होकर बैठ गया, टीवी का ऑडियो बढ़ाया. “पिछले दशक की समाजवादी नीतियों के कारण हमारी अर्थव्यवस्था पीछे रह गई है. इनमें से ज्यादातर अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक थे, जबकि कुछ जो उपयोगी थी उनकी भी अब उपयोगिता खत्म हो चुकी है. इसलिए हमें अपनी आर्थिक नीतियों को बाजार के अनुकूल और ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए बदलाव करना चाहिए.” (हालांकि मैंने कोट मार्क्स का इस्तेमाल किया है लेकिन पूरी ईमानदारी के साथ ये बात मान रहा हूं कि मैं अपनी यादाश्त के मुताबिक उनके शब्द यहां लिख रहा हूं, इसलिए ये सटीक नहीं हो सकते हैं. हालांकि इस बात को लेकर यकीन है कि मैं उनके कारण/तर्क को लेकर सही हूं.)

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समाजवाद को छोड़ने की हिम्मत...

ये मेरे लिए एक अच्छी खबर के जैसा था. आमतौर पर नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर विपक्ष के नेता तक, समाजवाद को छोड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकते हैं. जब वो सरकारी कंपनियों को बेच भी रहे होते हैं तो वो उन्हें “गरीबों पर निवेश के लिए सामाजिक पूंजी को बढ़ाने के तौर पर पेश करते हैं बजाए मुक्त-बाजार पूंजीवाद (फ्री-मार्केट कैपिटलाइजेशन) के लिए निजीकरण को बढ़ावा देने के तौर पर. लेकिन सीधे वित्त मंत्री बिना किसी शब्दों का जाल बुने सरकार के समाजवाद की आलोचना कर रही थीं. कितना अच्छा है! (नोट: मैं समाजावादी अर्थशास्त्र को अस्वीकार किए जाने पर खुश हूं, हालांकि मैं समाजवादी समाज में स्वाभाविक रूप से शामिल कल्याणकारी नीतियों और सांस्कृतिक उदारतावाद का समर्थन करता हूं.)

लेकिन तब, मैं ये भी बेहतर तरीके से जानता हूं कि नेताओं की बातों को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं होना चाहिए. वो हमेशा ज्यादा का वादा करते हैं और उतना पूरा नहीं कर पाते. इसलिए जब वित्त मंत्री ने आर्थिक समाजवाद के खिलाफ बयान दिया तो क्या वो दुनिया को ये विश्वास दिलाने के लिए कि भारत सच में आधुनिक, प्रतिस्पर्धी, अच्छी से तरह से व्यवस्थित मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था को अपनाना चाहता है, और वो तेजी में कुछ बड़े कदम उठा सकती हैं?

क्या  सीतारमण कुछ कार्रवाई कर सकती हैं ताकि साबित किया जा सके कि भारत मॉडर्न फ्री-मार्केट इकनॉमी को अपनाना चाहता है?

हां, वो कर सकती हैं. यहां वो दो चीजें हैं जो उन्हें खत्म करनी हैं- एक शोषणकारी सरकार के सबसे खराब अवशेष - जो उनकी सुधारवादी छवि को स्थापित करेगा. मैंने ये दो कदमों को चुना है क्योंकि इन्हें रद्द करने के फैसले को अदालती आदेशों की मंजूरी भी मिल चुकी है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक मजबूत राजनीतिक झटके को सहने के लिए सहारा देगी.

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राष्ट्रीय मुनाफाखोरी रोधी प्राधिकरण

एक बहुत ही बेकार सी संस्था है जिसे राष्ट्रीय मुनाफाखोरी रोधी प्राधिकरण कहा जाता है. (नहीं, मैं मजाक नहीं कर रहा, ये मौजूद है और इसका नाम बिल्कुल वही है, एक अर्थव्यवस्था में जिसे उदारवादी होना चाहिए और ज्यादा मुक्त बाजार बनाना चाहिए!) इसका काम ये सुनिश्चित करना है कि नई जीएसटी व्यवस्था के जरिए बनाए गए “सुपर प्रॉफिट” को कंपनियों से वसूला जाए. क्या आपको भरोसा हो रहा है. क्या सरकार के अधिकारी सच में प्रतिस्पर्धी बाजार में काम कर रही कंपनियों के प्रॉफिट का हिसाब लगा सकते हैं? कंज्यूमर क्रेडिट पर क्या ब्याज दर लगाई जाएगी?

क्या  सीतारमण कुछ कार्रवाई कर सकती हैं ताकि साबित किया जा सके कि भारत मॉडर्न फ्री-मार्केट इकनॉमी को अपनाना चाहता है?

अतिरिक्त कर्मचारियों का पता कैसे लगाएगी? अभी की बिक्री के लिए कितने विज्ञापन (एक खर्च) दिए गए और भविष्य में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए (पूरी तरह से निवेश) कितने का विज्ञापन दिया गया. शुरू से ही ऐसे लाखों सवाल हैं जिनका जवाब नहीं है. लेकिन इसके परिणाम का अनुमान लगाया जा सकता है: अजीब तरह के जुर्माने, लीगल फीस पर बड़ा खर्च, जबरन वसूली और भ्रष्टाचार. दूसरी तरफ अगर आप एक सच्चा प्रतिस्पर्धी बाजार बनाते हैं, सुपर प्रॉफिट खुद से खत्म हो जाएगा, इसलिए हमारे नीति निर्माता कब ये बात समझेंगे?

अगर आपको लगता है कि मेरे आरोप पक्षपातपूर्ण हैं तो जब जीएसटी दर 18 फीसदी से 5 फीसदी की गई थी, तो हार्डकैशल रेस्तरां (मैकडोनल्ड की इंडिया फ्रेंचाइजी) के खिलाफ ग्राहकों से 7.49 करोड़ वसूलने के मामले में बॉम्बे हाइकोर्ट ने क्या टिप्पणी की थी ये बताने की अनुमति दें.

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“कानून और नियम में अपील नहीं की जा सकती... अथॉरिटी जुर्माना लगा सकती है और रजिस्ट्रेशन भी रद्द कर सकती है. प्रॉफिटीयरिंग (मुनाफाखोरी) शब्द का इस्तेमाल कानून के तहत अपमानजनक तरीके से किया जाता है (जो) व्यवसाय की छवि को बहुत नुकसान पहुंचा सकता है.”

अपनी ओर से दिल्ली हाईकोर्ट ने जुबिलेंट फूडवर्क्स के खिलाफ मामले पर ये कहते हुए रोक लगा दी थी कि “पहली नजर में” मुनाफाखोरी का पता लगाने का कोई तरीका नहीं था. दिल्ली हाईकोर्ट ने इस कानून की संवैधानिकता पर फैसला देने के लिए हिंदुस्तान यूनिलीवर, पतंजलि, जॉनसन ऐंड जॉनसन, रेकेट बेनकिशर और फिलिप्स सहित कई दूसरी कंपनियों की ओर से दायर 39 याचिकाओं को एक साथ मिला दिया था.

इसलिए अदालत की फटकार का इंतजार करने से बेहतर होगा कि मोदी सरकार आगे बढ़े और खुद ही इस तरह के बेकार कानून को रद्द कर दे और अपनी गलती मान ले. ये वित्त मंत्री के “आर्थिक समाजवाद को खत्म करने” की कोशिश को बढ़ावा देगा.
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यूपीए का 50 साल का टैक्स स्विंग बैक अब भी कानून में क्यों है?

अपनी “गैर-समाजवादी” आर्थिक छवि को और चमकाने के लिए सरकार को एक और अत्याचारी कानून को खत्म करना चाहिए, बहुत ज्यादा बदनाम वोडाफोन रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स डिमांड, जिसमें एक असहाय मल्टीनेशनल कंपनी पर 3 बिलियन डॉलर तक की जब्त करने की सजा भी शामिल है.

एक न्यायिक तर्क के अलावा- आखिरकार, हेग की इंटरनेशनल आर्बिटरेशन ट्राइब्यूनल ने भारत के खिलाफ फैसला सुनाते हुए कहा कि हमें “इस तरह के व्यवहार को रोकना” चाहिए, जिससे यहां तक कि भारत की ओर से नियुक्त मध्यस्थ को भी हमारे खिलाफ फैसला देने को मजबूर होना पड़ा- मोदी सरकार का राजनीतिक आधार मजबूत है क्योंकि ये सब उनका किया नहीं था, यूपीए सरकार ने इसे लागू किया था.
क्या  सीतारमण कुछ कार्रवाई कर सकती हैं ताकि साबित किया जा सके कि भारत मॉडर्न फ्री-मार्केट इकनॉमी को अपनाना चाहता है?
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28 मई 2012 को, मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने अधिकार का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश को पलटने के लिए किया जिसमें पांच महीने पहले ही वोडाफोन के पक्ष में फैसला सुनाया गया था. उस समय के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी इतने गुस्से में थे कि वो पूरे पचास साल पीछे- हां, एक पूरा अर्धशतक-1961 तक पहुंच गए और टैक्स कानून को डरावने पूर्वप्रभाव (रेट्रोस्पेक्टिव) असर के साथ बदल दिया. समाजवादी सरकार तो भूल ही जाइए, ये कदम इतना कठोर था कि स्टालिन का रूस भी हमसे जल रहा होता.

इससे भी बुरा उस वक्त हुआ जब केयर्न एनर्जी पर और भी भयानक परिणाम वाले इसी पूर्वप्रभावी सिद्धांत के तहत 4.3 बिलियन डॉलर टैक्स चार्ज देने को कहा गया. इस मामले में तो सरकार ने टैक्स वसूलने के लिए इक्विटी शेयर और डिवीडेंड को जब्त कर लिया था जिसकी वैधानिकता पर अब भी सवाल है,

इसलिए विशेषज्ञों को आशंका है कि वोडाफोन आदेश को उदाहरण मानकर इस मामले में हेग से केयर्न के पक्ष में और भी नुकसानदायक फैसला आ सकता है.एक बार फिर ये मोदी सरकार के लिए फैसला बदलने, रद्द करने, “उपदेशप्रधान सांख्यिकीविद यूपीए” पर राजनीतिक आरोप लगाने और “समाजवाद खत्म होने के बाद के नए भारत के गौरव में” आनंद लेने का सबसे अच्छा मौका है, कुछ ऐसा ही करने का प्रण लेते मैंने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को टीवी पर सुना था.

ये कहने के बाद, क्या मैं वास्तव में, मेरा मतलब है वास्तव में, सरकार से सही कदम उठाने और इन कानूनों को वापस लेने की उम्मीद करता हूं? अरे नहीं!

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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