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रस्‍साकशी का साल है 2019, किधर किसका पलड़ा होगा भारी?

भारत एक चुनाव से आगे कई और टग ऑफ वॉर के बीच अपना नया और बेहतर भविष्य लिखने में जुटा हुआ है

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2019 भारत के लिए कई तरह की रस्साकशी का साल होगा. सबसे बड़ी रस्साकशी है लोकसभा चुनाव. बीजेपी कहेगी कि ये मोदी बनाम सारे बेईमानों की लड़ाई है. विपक्ष कहेगा, ये मोदी बनाम भारत की जंग है. लेकिन भारत एक चुनाव से आगे कई और टग ऑफ वॉर के बीच अपना नया और बेहतर भविष्य लिखने में जुटा हुआ है. हम यहां ऐसी ही 5 बड़ी रस्साकशी की एक झलक पेश कर रहे हैं.

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केसरिया बनाम सतरंगा इंडिया

लोकसभा चुनाव के जरिए 134 करोड़ लोगों का भविष्य करीब 90 करोड़ मतदाताओं के हाथ में होगा. करीब 65 करोड़ वोटर तय करेंगे कि भारत हिंदू राष्ट्रवाद की तरफ और खिसकेगा या बाईं तरफ झुककर मध्यमार्ग अपनाएगा. कोई एक विचारधारा छा जाए, ऐसा नहीं होगा. भारतीय विविधता और भारतीय राष्ट्रीयता को हिंदू राष्ट्रवाद की केसरिया रस्सी में बांधने का उन्माद अपने चरम पर जाएगा, लेकिन जीतेगा नहीं.

पूरी दुनिया में लोकतंत्र, उदारवाद और ग्लोबलाइजेशन के खि‍लाफ एक लहर चली है, कई देशों में उसे कामयाबी भी मिली है. राष्ट्रवाद के नाम पर महाबली नेता- स्ट्रॉन्गमैन का नया फैशन बना है. ये दौर थमेगा या मजबूत होगा, इसके जवाब के लिए पूरी दुनिया 2019 में भारत की तरफ देखेगी. 2019 का हमारा चुनाव लोकतंत्र के इतिहास का सबसे बड़ा चुनाव होने जा रहा है. हमारी असली राष्ट्रीयता लंपट और लिबरल ताकतों टकराव के बीच बेचैनी से संतुलन खोजेगी.

पढ़ा-लिखा, संपन्न और मध्यवर्गीय, शहरी भारत कन्फ्यूजन में उलझ सकता है, लेकिन इस बात के पूरे आसार हैं कि ग्रामीण और गरीब भारत साफ और सही कदम उठाएगा.

पार्टियों की रस्साकशी

विचारधारा की लड़ाई संगीन है, लंबी है. ब्लैक-वाइट में हार या जीत शायद नजर ही न आए. इसलिए भारत कौन-सा विचार अपना रहा है, इस पर 2019 में बहस चलती रहेगी. लेकिन चुनाव भी इस जंग को नापने की एक कसौटी है, तो इस रस्साकशी में इस साल एक संतुलन आएगा, वो कुछ ऐसा होगा:

  • देश गठबंधन के दौर में लौटेगा. 2014 में एक पार्टी को बहुमत तीन दशक का एक अपवाद था. उसका रिपीट शायद नामुमकिन है.
  • मजबूत विपक्ष के दिन लौटेंगे. सत्ता में कोई भी पार्टी/गठजोड़ आए, सामने विपक्ष भी काफी ताकतवर होकर लौटेगा.
  • अगले साल कुछ और राज्य बीजेपी के हाथ से निकल सकते हैं. गैर-बीजेपी दलों के जीतने से केंद्र-राज्य संबंधों में नई रस्साकशी शुरू होगी.
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प्रोपेगेंडा/पॉपुलिज्म बनाम पब्लिक

क्या भारतीय नेता प्रोपेगेंडा और लफ्फाजी की लत छोड़ेंगे? क्या हमारी राजनीतिक बहस जनता के वास्तविक मुद्दों पर फोकस करेगी? ये 2019 का एक और बड़ा सवाल है. एक तरफ जवान इंडिया के सपने हैं, जो ठोस जवाब और प्लान जानना चाहते हैं, दूसरी तरफ दकियानूसी डायलॉग हैं.

मान लिया गया है कि प्रोपेगेंडा में उलझाकर, तर्क से दूर ले जाकर वोटर को भ्रमित किया जा सकता है. नेता कहते हैं कि वोटर 'ट्रांजेक्शनल' हो गया है, इसीलिए वो प्रोपेगेंडा के साथ पॉपुलिस्ट, खैरातवाद चलाते हैं और कहते हैं कि यही गवर्नेंस है. ये तो चुनाव में वोटर जब किसी को झटका देता है, तब नेता क्लास को ये बात समझ में आती है कि उसने क्या सबक सिखाया.

इस साल वोटर को ठगने के नए-नए नुस्खे सामने आएंगे. छूट, बीमा, कर्जमाफी और कैश ट्रांसफर के ऑपटिक्स सामने आएंगे. लेकिन ये गवर्नेंस नहीं, गवर्नेंस के नाम पर पैबंद हैं. वास्तविक गवर्नेंस कई बार दिखता नहीं, लेकिन वो कड़ी मेहनत मांगता है.

बेरोजगारी और गैर-बराबरी हमारे वक्‍त के दो बड़े मुद्दे हैं. रस्साकशी के एक छोर पर खड़े वोटर नई डील मांग रहे हैं और दूसरे छोर पर प्रोपेगेंडावाद है. इस जंग में जरूरी है कि वोटर ही जीते.

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अमेरिका-चीन टेक वॉर और भारत

अमेरिका और चीन के बीच मौजूदा ट्रेड वार से भी संगीन हो गया है टेक वॉर. इस साल भारत में चीन की कंपनियां अमेरिकी 'फांग' के फंदे को कमजोर करने की कोशिशें तेज करेंगी. फांग यानी फेसबुक, एपल, अमेजन, नेटफ्लिक्स और गूगल. चीन की मौजूदगी हम लोगों की जिंदगी में नए गुल खिलाएगी. सस्ते फोन के बाद नया मोर्चा है- सोशल मीडिया और नए वीडियो ऐप.

कई नई भारतीय कंपनियां बड़े पैमाने पर चीनी निवेश लाएंगी. अमेरिकी टेक जायंट यहां सुस्त पड़ सकते हैं, क्योंकि सिलिकन वैली पर बढ़ते चीनी निवेश और असर को रोकने के लिए उन्हें अपना ध्यान वहां केंद्रित करना होगा. इस रस्साकशी में भारतीय कंज्यूमर को फायदा तो होगा, लेकिन भारतीय टेक कंपनियां बड़े सपने साकार करने के रास्ते में संघर्ष में उलझी रहेंगी, क्योंकि हमारी सरकार नई नीतियों को सोचने-बनाने में पिछड़ेपन और दुविधा में फंसी रहेगी.

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टेक जायंट बनाम देश बनाम लोग

ये रस्साकशी तिकोनी है. टेक्नोलॉजी से व्यक्ति को ताकतवर बनाने का दावा उल्टा निकला है. आज फेसबुक और गूगल सरकारों से ज्‍यादा ताकतवर हो गए हैं. फ्री सर्विस के चक्कर में हम सब इंसान डेटा-बंधक हो गए हैं. सरकारों को पता नहीं कि वो इन्हें कैसे रेगुलेट करे. दांव पर है सरकारों की प्रभुता, व्यक्ति की आजादी और प्राइवेसी. चुनावों में ये प्लेटफॉर्म बड़े औजार बन गए हैं. इनके साथ भारत में चुनाव होने तक नेताओं का एक व्यवहार रहेगा और चुनाव के बाद दूसरा.

भारत में डेटा और प्राइवेसी के मुद्दों पर जानकारी और बहस गरम होगी. नेताओं को इन विदेशी जायंट्स के साथ खुशामदी रवैया बंद करना होगा. दूसरे देश भी इस समस्या से जूझ रहे हैं. यूरोप के देश जुर्माना लगाकर इन कंपनियों पर नकेल डालने की कोशिश में हैं. अमेरिका रेगुलेशन के नए तरीके खोज रहा है और ब्रिटेन डिजिटल टैक्स लगाकर इन्हें कंट्रोल करने की सोच रहा है.

भारत के नेता और पॉलिसी मेकर कौन-सा रास्ता चुनेंगे, 2019 में इसकी भी साफ झलक मिलेगी.

प्राइवेसी को लेकर न तो कंपनियां, न ही सरकार उतनी चिंतित है, जितना हम और आप हैं. भारत में सरकार को लगता है कि वो विदेशी कंपनियों को देश का डेटा देश में ही स्टोर करने को मजबूर कर दें, तो काम हो जाएगा. ये सीमित सोच है. इससे मेरी-आपकी प्राइवेसी की कोई गारंटी नहीं मिलती. ये एक असमान लड़ाई है और 2019 में ये भी साफ हो जाएगा कि आजादी और प्राइवेसी पर लोग कोई असरदार लड़ाई छेड़ पाते हैं या नहीं.

ये रस्साकशी अभी व्यक्ति के खिलाफ झुकी हुई है. सबसे बड़ी फि‍क्र इसी मुद्दे को लेकर होनी चाहिए, क्योंकि फि‍लहाल डेटा और नेता- दोनों ही लोकतंत्र और आजादी के लिए एक रिस्क पेश कर रहे हैं.

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