यह बात समझ में आती है कि चीन भारत की बढ़ती हुई ताकत से चिढ़े. इसलिए वह भारत की एनएसजी-सदस्यता जैसे मसलों पर अड़ंगा लगाए. यह भी समझ में आता है कि वह अपने किसी मित्र देश की मदद करे या उसके हितों का समर्थन करे. लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि वह पाकिस्तान में पल रहे आतंकवादियों का बचाव करे. जिस तरह से उसने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर और लश्कर-ए-तैयबा के हाफिज सईद का बचाव किया है, वह शर्मनाक हद तक चौंकाने वाला है.
गोवा में सम्पन्न ब्रिक्स सम्मलेन में जिस तरह से अन्य देशों ने आतंकवाद को लेकर भारत की चिंताओं का समर्थन किया, वैसा समर्थन चीन ने नहीं किया. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हालांकि आतंकवाद का विरोध किया, लेकिन कड़े शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया. बाद में उसके विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने तो स्पष्ट ही कर दिया कि चीन को 'आतंकवाद की जननी' नहीं कहा जा सकता, न ही आतंकवाद को किसी धर्म या देश से जोड़ा जाना चाहिए.
आज भले ही चीन भारत की बात को नहीं मान रहा, लेकिन एक दिन वह जरूर मानेगा. पाक आतंकवादी खुद उसे मानने पर मजबूर कर देंगे.
- 1990 तक अमेरिका सहित तमाम यूरोपीय देश भी इसी तरह भारत की शिकायतों को तवज्जो नहीं देते थे. भारत चिल्लाता रहता था कि पाकिस्तान भारत में आतंकवाद को भड़का रहा है, लेकिन ये देश उलटे भारत को ही दोषी ठहराते थे.
- 1993 में जब ओक्लाहोमा में बम विस्फोट हुआ और उसके एक प्रमुख दोषी का पाकिस्तान से सम्बन्ध साबित हुआ, तब जाकर अमेरिका ने पाकिस्तान को थोड़ा-बहुत शक की निगाह से देखना शुरू किया.
- 11 सितम्बर, 2001 के आतंकी हमलों के बाद अमेरिका जान गया कि वैश्विक आतंकवाद की जननी पाकिस्तान ही है.
अल-कायदा का केंद्र अफगानिस्तान में था जरूर, लेकिन अफगानिस्तान के तब के शासक तालिबान भी तो पाकिस्तान के ही पैदा किये हुए थे. और जब यह पता चल गया कि अल-कायदा सरगना बिन लादेन पाकिस्तान फौज के संरक्षण में उसी की भूमि एेबटाबाद में छिपा हुआ है, तब तो वह अन्दर ही अन्दर जल-भुन गया. लेकिन वह पाकिस्तान को छोड़ नहीं पाया. किसी न किसी रूप में पाकिस्तान को उसकी मदद जारी रही.
क्या चीन को आतंकवाद नजर नहीं आता?
लेकिन चीन अभी यह नहीं समझ पा रहा कि वह पाकिस्तान जनित आतंकवाद पर क्या रुख अपनाए? ऐसा नहीं कि उसे आतंकवाद का कोई अनुभव है ही नहीं. ऐसा भी नहीं कि उसके भीतर अलगाववादी आन्दोलन नहीं चल रहे.
अपनी आजादी को लेकर तिब्बतियों के शांतिपूर्ण आन्दोलन को 50 साल से अधिक हो गए हैं. उसने तिब्बतियों का बर्बर तरीके से दमन किया. उसने किस तरह से साम्यवाद विरोधी छात्र आन्दोलन को बीजिंग के तिएन आन मन चौक पर कुचला, यह भी सारी दुनिया जानती है. उत्तर-पश्चिम में स्थित अपने सबसे बड़े प्रांत शिन जियांग के उइगुर विद्रोहियों को वह कैसे कुचलता रहा है, कैसे वहां हान जाति के लोगों को बसाया गया और उसकी आबादी के अनुपात को अपने पक्ष में किया, यह भी जग जाहिर है.
मानवाधिकार हनन के मामले में उसकी गणना दुनिया के निकृष्टतम देशों में होती है. दिसंबर 2015 में ही उसने आतंकवाद से निपटने के लिए एक खूंखार कानून बनाया है, जिसके तहत उसने अपनी फौज को कहीं भी जाकर आतंकवाद के दमन का अधिकार दे दिया है. लेकिन अपने भीतर जहां वह आतंकवाद से बहुत घबराया हुआ है, वहीं पाकिस्तान के भीतर पल रहे आतंकवाद को उसी नजर से देख रहा है, जैसे पाकिस्तान उसे दिखा रहा है.
इसके दो कारण नजर आ रहे हैं. पहला यह कि चीन को अपने तात्कालिक हित इतने ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहे हैं कि उसे और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा.
निश्चय ही इस समय उसका सबसे बड़ा हित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा, काराकोरम हाइवे और बलोचिस्तान के ग्वादर समुद्रतट पर बंदरगाह के निर्माण में अटके हुए हैं. इनके जरिये चीन पश्चिम एशिया में पहुंचना चाहता है. लेकिन वो यह भूल रहा है कि आज जो पाकिस्तान उसके लिए लाल कालीन बिछा रहा है, उसके पाले-पोसे आतंकवादी भविष्य में उससे ही नाकों चने चबवा देंगे.
वह भूल रहा है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों का निकट का रिश्ता वैश्विक आतंकवादियों से है और विश्व आतंकवाद के नक्शे में शिन जियांग प्रांत भी है. अल-कायदा का अयमन अल जवाहिरी शिन जियांग की तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी का समर्थन कर चुका है. आज भी इसके लोगों को सीरिया में इस्लामिक स्टेट द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है. और पाकिस्तान का तहरीक-ए-तालिबान भी इसका समर्थन करता है. फिर उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित, बल्तिस्तान, फाटा और उत्तरी क्षेत्र की सीमा चीन के शिन जियांग प्रांत से मिलती हैं.
वर्ष 2002 से लगातार पाकिस्तान में काम कर रहे चीनी नागरिकों पर पाकिस्तानी कट्टरपंथी हमले करते रहे हैं. वजीरिस्तान, ग्वादर, पेशावर, सिंध और अन्य स्थानों पर हुए हमलों में अनेक चीनी मारे जा चुके हैं. चीन यह अच्छी तरह से जानता है. ग्वादर बंदरगाह और आर्थिक गलियारे का जबरदस्त विरोध होता रहा है. आर्थिक गलियारे का कट्टरपंथी पहले दिन से ही विरोध कर रहे हैं. 2014 से अब तक इसमें हुए हमलों में 44 कर्मचारी मारे गए हैं. ग्वादर का इतना विरोध है कि कोई बड़ा चीनी नेता अभी तक वहां जा ही नहीं पाया. परमाणु ठिकानों में चीनियों की मौजूदगी पर भी पाकिस्तानी कट्टरपंथी आपत्ति उठाते रहे हैं.
दरअसल पाकिस्तानी कट्टरपंथियों को लगता है कि विकास की हर गतिविधि में चीनियों को घुसाने से बड़े पैमाने पर चीनी लोग वहां आ रहे हैं और उनकी संस्कृति को खतरा पैदा कर रहे हैं. फिर उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं. वे समुद्र से तेल और गैस निकाल रहे हैं.
बलूचिस्तान में तो लोगों को लगता है कि विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसका फायदा या तो चीनियों को हो रहा है या पाकिस्तानी हुक्मरानों को. वे चीनियों को दूसरी ईस्ट इंडिया कम्पनी बता रहे हैं. पहले बलोच और तालिबान लोग ही चीनियों का विरोध करते थे, अब सिन्धी भी करने लगे हैं. इसलिए चीनियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान उनके लिए क्या है? स्वार्थों के लिए भले ही वह पाकिस्तानी आतंकवादियों का बचाव करें, लेकिन उसका भविष्य तलवार की धार की तरह है.
(गोविन्द सिंह उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग में प्रोफेसर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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