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एक खुला खत उन्हें, जो नहीं चाहते कि महिलाएं सबरीमाला मंदिर जाएं

देवाश्वम बोर्ड के अध्यक्ष मानते हैं कि महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें कठिन तीर्थयात्रा नहीं करनी चाहिए.

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सेवा में,

प्रयार गोपालकृष्णन,

ट्रावनकोर देवाश्वम बोर्ड,

केरल

मुझे बड़ी खुशी हुई, जब अपने हालिया इंटरव्यू में कहा, “भगवान हर जीवित वस्तु में होता है. जरूरी नहीं कि उसकी प्रार्थना करने के लिए आप उसे देखें ही.” (मां, सुनो. सुनो.)

पर आप जानते हैं कि भगवान की मूर्तियों को प्रतिष्ठित करने वाले मंदिरों की वजह से जाने जाने वाले एक ‘धार्मिक ठेकेदार’ के लिए ऐसी बात कहना एक अजीब घटना है. एक तरफ तो आप मुझे सबरीमाला मंदिर में नहीं घुसने देते. हम जिन सालों में मां बनने योग्य होती हैं, तब आपके मंदिरों में नहीं जा सकतीं, दूसरी तरफ आप ये सब बातें करते हैं. अच्छा तरीका है ये आपके मंदिर के नियमों पर पर्दा डालने का.

आप कारण देते हैं कि 41 दिन की तीर्थयात्रा के दौरान औरतों को इसलिए मंदिरों से दूर रखा जाना चाहिए, क्योंकि इस दौरान उन्हें मासिक रक्तस्राव से गुजरना होगा और जंगल में न तो उनके लिए कोई प्राइवेसी होगी और न ही इतना पानी कि वे सफाई से रह सकें.

देखिए, मैं समझ रही हूं. मंदिर के अपने नियम हैं, जैसे क्लब के अपने नियम होते हैं. और आप ‘गंदी’, ‘अपवित्र औरतों’ को दूर रखना चाहते हैं.

पर आप जानते हैं कि कुछ महिलाएं थोड़ी मजबूत और स्वतंत्र होती हैं. है न? वे तो मंदिर जाना चाहेंगी, चाहे कितनी भी मुश्किल हो.

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‘सम्मिलित भक्ति’ के बारे में आपका क्या खयाल है

देवाश्वम बोर्ड के अध्यक्ष मानते हैं कि  महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें कठिन तीर्थयात्रा नहीं करनी चाहिए.

तो श्रीमान गोपालकृष्णन, हम इसे सम्मिलित भक्ति कह सकते हैं, जहां सभी को अपनी भक्ति की परिभाषा खुद तय करने का अधिकार हो.

देवाश्वम बोर्ड के अध्यक्ष मानते हैं कि  महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें कठिन तीर्थयात्रा नहीं करनी चाहिए.

आप भी मानते हैं कि हमें अपनी सुरक्षा के बारे में थोड़ी और चिंता करनी चाहिए?

देवाश्वम बोर्ड के अध्यक्ष मानते हैं कि  महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें कठिन तीर्थयात्रा नहीं करनी चाहिए.

तो श्रीमान, ऐसे में मैं आपको बता दूं कि यहां आपका बयान कुछ उसी तरह का है कि रात को लड़कियों को बाहर नहीं निकलना चाहिए, क्योंकि रात को बाहर निकलना खुद ही खतरे को दावत देना है.

और अब आपके ‘दृढ़ विश्वास’ के बारे में

देवाश्वम बोर्ड के अध्यक्ष मानते हैं कि  महिलाएं सड़कों पर सुरक्षित नहीं हैं, उन्हें कठिन तीर्थयात्रा नहीं करनी चाहिए.

क्या मासिक धर्म वाले दिनों में एक महिला को मंदिर में न घुसने देने का आपका विश्वास उन्हीं विश्वासों का एक और रूप नहीं हैं, जो कहते हैं कि एक महिला को उन दिनों में मुख्य घर को छोड़कर गांव के बाहर बनी किसी झोंपड़ी में रहना चाहिए? कि उन्हें उन दिनों कोई काम नहीं, सिर्फ आराम करना चाहिए? कि उन्हें अपने बालों में कंघी नहीं करनी चाहिए? कि वे उन दिनों में खाना नहीं बना सकतीं और उन दिनों के उनके खाने के बर्तन भी अलग होने चाहिए? कि वे उन दिनों में गाड़ी नहीं चला सकतीं या उसमें बैठ नहीं सकतीं?

जब आप पढ़े-लिखे लोगों के इस परंपरा का पालन करने की बात करते हैं, तो आप कहना क्या चाहते हैं? कि महिलाएं उस एक सप्ताह के लिए सब कुछ छोड़कर अस्‍पृश्‍य बन जाएं? कि वे ‘उन दिनों’ में खाना बनाना, काम करना, गाड़ी चलाना और अपने ही घर में रहना, सब छोड़ दें? क्योंकि हमें परंपराओं का पालन करना ही है, तो क्यों न उन्हें पूरी तरह करें.

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आप अकेले नहीं हैं श्रीमान

मासिक धर्म के दौरान मंदिरों में महिलाओं के घुसने पर प्रतिबंध लगाने की बात करने वाले आप अकेले नहीं हैं.

हम मानते हैं कि सबरीमाला के देवता अयप्पन एक आत्मसंयमी, ब्रह्मचारी देवता हैं और उन्हें युवा महिलाओं से दूर ही रखना चाहिए. इसीलिए तो युवा महिलाओं को हनुमान की पूजा नहीं करने दी जाती, क्योंकि वे भी तो बाल ब्रह्मचारी हैं. और हां, ये सिर्फ एक धर्म की बात नहीं. यूं तो धर्मों के बीच खूब अलगाव है, पर मासिक धर्म को लेकर सारे धर्म एकजुट हो जाते हैं.

आप का यह कहना भी गलत नहीं, “सरकार और कोर्ट को लोगों के धार्मिक विश्वासों की रक्षा करनी चाहिए.” पर संविधान के अनुसार कोर्ट को किसी भी प्रकार के भेदभाव से भी रक्षा करनी चाहिए.

और फिर सबरीमाला श्री अयप्पन मंदिर तो कोई संकुचित मानसिकता वाला मंदिर भी नहीं. यह भारत के उन गिने-चुने मंदिरों में से एक है, जहां सभी धर्मों के लोगों का स्वागत है, जहां किसी जाति या नस्ल को लेकर भी प्रतिबंध नहीं, फिर मासिक धर्म को लेकर स्त्रियों के प्रति यह व्यवहार क्यों?

प्रिय धर्म, कुछ समय के लिए हमारा बहिष्कार क्यों?

क्या हमारा धर्म हमारे जीवन में हमारे काम या परिवार जितना महत्वपूर्ण नहीं? जब हमारा दफ्तर हमें उन दिनों में काम पर आने से नहीं रोकता, जब हमारा परिवार हमें उतने समय के लिए अलग नहीं कर देता, तो फिर धर्म हमारा बहिष्कार कैसे कर सकता है?

कोर्ट और सरकार को धार्मिक भावनाओं के खिलाफ जाने का परिणाम पता होना चाहिए. यह कोई धमकी नहीं है, पर उन्हें पता होना चाहिए.

प्रयार बालाकृष्णन, अध्यक्ष, ट्रावनकोर देवाश्वम बोर्ड,

सुनिए, मैं आपको एक राज की बात बताती हूं. मेरी दादी मां को भी मासिक धर्म के दौरान बहुओं, बेटियों या पोतियों का पूजाघर में आना पसंद नहीं था. पर मेरी बुआ ने एक बार सब अपवित्र कर दिया.

उन्होंने एक पूजा के दौरान चुपके से अपनी बेटी को पूजाघर में बुला लिया, जबकि वह मासिक धर्म से गुजर रही थी. उन्होंने ऐसा इसलिए किया, ताकि उसे ऐसा न लगे कि उस समय में घरवालों ने उसे अकेला छोड़ दिया है. और फिर आप जानते हैं क्या हुआ ? कुछ भी नहीं. न तो उस वक्त धरती हिली, न ही भगवान ने इस बात के लिए हमारे परिवार को दंड दिया.

आप मेरी बात समझे? भगवान काफी सरल हैं. ये तो उनके स्वयंभू मसीहा हैं, जो अपने विचारों को भगवान का विचार बनाकर जनता पर थोपते रहे हैं.

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