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वो बात जो ट्रंप की बेटी बता गई: औरत काम करेगी तो बढ़ेगा इंडिया

इवांका ने जो कहा क्या वो बात भारत के नीति नियंताओं से छिपी हुई है?

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इवांका ट्रंप भारत आकर हमें कुछ सिखा गई. भारत में पॉलिसी के क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले ज्यादातर लोगों को ये पता था. लेकिन अब वही बात इवांका ट्रंप ने भारत आकर बोल दी. उन्होंने कहा कि भारत के कामकाजी लोगों में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है. उन्होंने कहा कि अगर भारत, कामकाजी लोगों में पुरुष और महिला के अंतर को आधा भी घटा पाता है तो अगले तीन साल में भारत की अर्थव्यवस्था में सालाना 150 अरब डॉलर की बढ़ोतरी होगी.

इवांका ने बताया कि भारत को तरक्की करनी है, तो उसे महिलाओं को कामकाज में शामिल करना ही होगा. वो ये बता रही हैं कि भारत की हर चार में तीन महिलाएं अगर देश की अर्थव्यवस्था में योगदान न करें, तो भारत की तरक्की संभव नहीं है.

जो बात इवांका जानती हैं, यानी कि भारत के वर्कफोर्स में अगर महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ती है, तो भारत की अर्थव्यवस्था को एक बहुप्रतीक्षित तेज उछाल मिलेगा, क्या वो बात भारत के नीति नियंताओं से छिपी हुई है? नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. सरकार इसे लेकर चिंतित है और नीति आयोग इस पर विचार कर एक रिपोर्ट भी पेश कर चुका है.

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लेकिन भारत में जेंडर यानी लिंग के आधार पर गैरबराबरी की समस्या इतनी सरल नहीं है कि किसी के चाहने भर से इसका समाधान हो जाए. भारत दुनिया के उन देशों में है, जहां कामकाज करने (गृह कार्य नहीं, जिसे फोकट का काम माना जाता है) वाली महिलाओं का अनुपात सबसे कम है.

भारत इस मामले में 131 देशों के पैमाने पर 120वें नंबर पर है. ब्रिक्स देशों में भारत सबसे पीछे है. जी20 देशों में सिर्फ सऊदी अरब हमसे बुरे हाल में है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत इस मामले में बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव जैसे पड़ोसी देशों से काफी पीछे है.

हालांकि हम इस बात पर खुश हो सकते हैं कि पाकिस्तान का आंकड़ा अभी भारत से नीचे है. लेकिन जहां पाकिस्तान में वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ रही है, वहीं भारत पीछे की ओर जा रहा है.

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लेबर फोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी

भारत में कामकाजी उम्र में लेबर फोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी 1993-94 में 42 फीसदी थी, जो 2011-12 में घटकर 31 फीसदी रह गई. वर्ल्ड बैंक की इस साल की इंडिया डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक, अब ये आंकड़ा 27 फीसदी रह गया है.

जाहिर है कि दो बातें इस क्षेत्र में हो रही हैं. एक, महिलाओं को ढंग का काम नहीं मिल रहा है. दो, जो महिलाएं काम में लगी हैं, उनके लिए ऐसी स्थितियां नहीं हैं कि वे काम करना जारी रख सकें. जानकार इस बात पर भी आश्चर्य कर रहे हैं कि 2004-05 से लेकर 2011-12 के बीच जब भारतीय अर्थव्यवस्था में लगातार सुधार हो रहा था और विकास दर ऊंची बनी हुई थी, उसी दौरान लगभग 2 करोड़ महिलाओं ने कामकाज बंद क्यों कर दिया?

दुनिया के ज्यादातर देशों का अनुभव है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ महिलाएं भी घर के बाहर ज्यादा निकलती हैं और आर्थिक गतिविधियों में शामिल होती हैं. भारत दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों के लिए पहेली बना हुआ है, इसलिए इस बारे में धड़ाधड़ स्टडीज हो रही हैं और तमाम रिपोर्ट आ रही हैं.

ये क्यों हो रहा है, इसे समझे बिना भारत वो हासिल नहीं कर पाएगा, जिसकी ओर इवांका ट्रंप इशारा कर रही हैं और जिसे लेकर खुद भारत सरकार भी चिंतित है.

इसकी 3 मुख्य वजहें हैं. अच्छी बात ये है कि इनका समाधान नामुमकिन नहीं है. जरूरत इस बात की है कि सरकार और समाज दोनों साथ मिलकर आगे बढ़ने का संकल्प लें.

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‘आर्थिक हैसियत बढ़ी, अब महिलाएं घर से बाहर नहीं जाएंगी.’

नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में दो कैटेगरी में महिलाएं ज्यादा कामकाजी होती हैं. पहली कैटेगरी उन महिलाओं की है, जो बिल्कुल पढ़ी-लिखी नहीं हैं. दूसरी कैटेगरी उन महिलाओं की है, जो ग्रेजुएशन या इससे बड़ी डिग्री ले चुकी हैं. इसके बीच में जो महिलाएं हैं, वे कामकाज में कम इनवॉल्व हैं और पिछले दो दशकों में इसी श्रेणी की महिलाओं ने खुद को घर के अंदर ज्यादा समेटा है.

इसका मतलब है कि कामकाज न करके, घर संभालने का मामला शिक्षा से नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिति से भी जुड़ा है. दरअसल ये उन परिवारों की महिलाएं हैं, जहां ये मान्यता है कि “अच्छे घरों की महिलाएं घर से बाहर नहीं निकलतीं,” या “तुम घर संभालना, मैं कमाकर लाऊंगा.” मुश्किल ये है कि घर का काम यूं तो काम ही है, लेकिन अर्थव्यवस्था में उसकी गिनती नहीं होती.

निम्न वर्ग में ये समस्या नहीं है. काम करना उनकी मजबूरी है. उच्च वर्ग में भी ये समस्या नहीं है. वे महिलाओं के काम करने का महत्व जानते हैं और डबल इनकम का सुख भोगना चाहते हैं. ये समस्या बीच की विशाल आबादी की है, जो आधुनिकता और परंपरा के बीच पिस रही है.

ये भारतीय सामंतवाद की बची-खुची पूंछ है, जो विकास क्रम में खत्म नहीं हो पाई है. लेकिन समाज बदल रहा है और हो सकता है कि ये मान्यताएं समय के साथ दम तोड़ दें.

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‘बेटी पढ़ेगी, उसे अभी काम पर नहीं भेजना है’

महिलाओं की वर्कफोर्स में हिस्सेदारी और महिलाओं की शिक्षा के आंकड़ों को एक साथ रखने से एक दिलचस्प तथ्य ये सामने आ रहा है कि 15 से 24 साल के वर्ग की लड़कियों में शिक्षा का दायरा बढ़ा है. इस आयुवर्ग में कामकाजी होने का चलन घटा है.

इसकी एक संभावित व्याख्या ये हो सकती है कि जब परिवार की कोई लड़की, खासकर दसवीं या उसके बाद की पढ़ाई करने लगती है तो परिवार उसे कामकाज पर नहीं भेजता. ये एक स्वाभाविक सी बात है क्योंकि जिन परिवारों की बेटियां शिक्षा के इस स्तर तक पहुंच गई हैं, और उन्हें आगे पढ़ाया जा रहा हो, वहां की आर्थिक स्थिति भी ठीकठाक होगी.

अगर महिलाओं की वर्कफोर्स में हिस्सेदारी घटने की वजह ये है कि लड़कियां शिक्षित हो रही हैं, तो आने वाले दिनों में ये आंकड़ा यू टर्न लेने वाला है. ऐसा दुनिया के कई देशों में हो चुका है, जब अर्थव्यवस्था के विकास के दौर में एक बार महिलाओं की वर्कफोर्स में हिस्सेदारी घटती है और फिर कुछ सालों के बाद ये आंकड़ा ठीक होने लगता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत में भी ये होने वाला है.

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“भारत में काम का माहौल महिलाओं के लिए ठीक नहीं है”

भारत में अब तक महिलाओं को समान काम के लिए समान वेतन नहीं मिल रहा है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ ही शहरी असंगठित क्षेत्र में ये भेदभाव ज्यादा है. शादी के बाद या गर्भवती होने पर काम से हटा देना आम बात है. वे जब बाद में काम पर लौटती हैं, तो उन्हें कई बार उनकी पुरानी हैसियत नहीं मिल पाती. इसके अलावा रात के काम में महिलाएं आएं, ऐसा सुरक्षित माहौल हमारे यहां कम जगहों पर ही है.

“मेरी रात, मेरी सड़कें”
रात में वर्कप्लेस पर जाना न सिर्फ सुरक्षा की दृष्टि से चुनौती भर है, बल्कि सामाजिक नजरिए से भी ऐसी महिलाओं को तिरछी नजर से देखा जाता है. हालांकि इन स्थितियों को चुनौती देने के लिए इस बीच कई शहरों में महिलाओं ने “मेरी रात, मेरी सड़कें” जैसे अभियान चलाएं हैं और ये हैशटैग फेसबुक पर ट्रेंड भी कर चुका है, लेकिन इस क्षेत्र में काफी कुछ किया जाना बाकी है.

महिलाओं के वर्कप्लेस में होने के लिए कुछ जरूरी व्यवस्थाएं करनी होती हैं. जैसे कि उनके लिए अलग टॅायलेट का बंदोबस्त, बच्चों के लिए पालनाघर यानी क्रेच, उनकी सुरक्षा की व्यवस्था, उन्हें खासकर रात में लाने-पहुंचाने का इंतजाम, महिला सुरक्षा गार्ड की ड्यूटी आदि. इन पर खर्च आता है.

सरकार को चाहिए कि जो कंपनियां या फर्म महिलाओं को ज्यादा नौकरियां दें, उन्हें प्रोत्साहित करे और उनके इस योगदान को सब्सिडाइज करे. इसकी पहल पीएसयू और सरकारी दफ्तरों में होनी चाहिए. उम्मीद है कि भारत सरकार इवांका ट्रंप को सुन रही है. क्योंकि काम करेंगी महिलाएं, तभी तो बढ़ेगा इंडिया.

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(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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