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जिलों को चाहिए अनुभवी अफसर, पॉलिसी बनाने में फ्रेश माइंड की जरूरत 

ये इत्तेफाक की बात है, क्योंकि अंग्रेजों के जमाने में ऐसा ही होता था. कोई रोक-टोक नहीं थी.

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राजस्थान सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया है, जिसमें सर्विस कर रहे न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेट और पब्‍ल‍िक सर्वेंट के खिलाफ राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के बगैर ड्यूटी के दौरान कार्रवाई के लिए जांच नहीं हो सकती है.

ये एक इत्तेफाक की बात है, क्योंकि अंग्रेजों के जमाने में ऐसा ही होता था. कोई रोक-टोक नहीं थी. इस संदर्भ में याद दिलाना चाहता हूं कि पिछले लेख में मैंने कहा था कि आईएएस/आईपीएस के बारे में विस्तार से लिखूंगा.

इन दोनों सर्विस की मूल बात ये है कि इनके अधिकारी दो तरह के काम करते हैं. एक काम है जिला को संभालना और दूसरा काम है सरकार की पाॅलिसी बनाना. पहला काम ईस्ट इंडिया कंपनी के समय शुरू हुआ था, जब अधिकारियों का मुख्य काम किसानों से लैंड रेवेन्यू कलेक्ट करना था. इसलिए वो कलेक्टर कहलाते थे.

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फिर धीरे-धीरे मजिस्ट्रेसी-न्याय का काम भी जोड़ दिया गया. इसी के साथ लाॅ एंड आॅर्डर भी जुड़ गया. चलते-चलते लाॅ एंड आॅर्डर के लिए पुलिस भी बन गई. इसे कलेक्टर के नीचे रखा गया. पुलिस का काम वही था, जो पिछले 2000 सालों से चला आ रहा था. पर एक बहुत बड़ा फर्क आया- उनके सुपरविजन पर.

1765 से 1860 तक यही सिस्टम चला. कार्यप्रणाली में थोड़ा-बहुत बदलाव जरूर आए. मगर कोर फंक्शन में कोई बदलाव नहीं आया. कलेक्टर तो राजा ही बन गया. बहुत ही छोटी उम्र में अंग्रेज लड़के कलेक्टर बन जाते थे और एक ही जगह पर 7-10 साल रह जाते थे. उनका सबसे बड़ा एडवांटेज ये था कि उनको पूछने वाला कोई नहीं था. न राजनेता, न मीडिया, न उनकी अपनी सरकार, जो बहुत दूर कलकत्ता में थी. कलेक्टर को पूरी आजादी थी कि जिले को कैसे चलाना है.

फिर हुई 1857 की बगावत. 1860 में ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी को हटाकर खुद भारत को संभाला. इसके बाद और काफी बदलाव आए. मगर मोटे तौर पर सिस्टम वही रहा. सवाल पूछने वाले नहीं के बराबर थे.

आजादी के बाद सवाल पूछने वाले आ गए

आजादी के बाद ये सब बदल गया. सवाल पूछने वाले आ गए. एमएलए, एमपी, मीडिया और सरकार का एक रेक्टेंगल-सा बन गया. बीच में कलेक्टर और एसपी साहब फंस गए. पहले वाली मनमानी घटने लगी. पर जैसा कि होता है, एमएलए और एमपी कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गए. उन्हें तो इलेक्शन जीतना था!

1975 तक मामला ऐसे ही चला. फिर आई इमरजेंसी. इस दौरान जनता बनी गुलाम. कलेक्टर और एसपी की गुलामी की. कलेक्टर और एसपी बने एमएलए/एमपी के गुलाम. 1977 के चुनाव के बाद जनता तो मुक्त हो गई, पर कलेक्टर साहब और एसपी साहब फंसे रह गए. जवाबदारी बढ़ी जरूर, लेकिन एमपी/एमएलए की ओर से.

इसी के साथ-साथ राजनीति भी बदल गई. हर फैसले सिर्फ राजनीतिक नतीजों के नजरिए से देखा जाने लगा.

1990 तक सरकार-एमपी/एमएलए-कलेक्टर/एसपी का रिश्ता पूरी तरह से बदल गया. इसका सबसे बड़ा असर ये हुआ कि जिला मैनेजमेंट, जो कलेक्टर/एसपी का कोर फंक्शन था, उसमें एक नई सोच आ गई कि सही फैसला वही है, जो एमपी/एमएलए को पसंद आए. ये एक नई तरह की चाटुकारिता बन गई.

नई पार्टियां, नए नेता, नई राजनीतिक प्रतिस्पर्धा, केंद्र में मिली-जुली सरकारें आदि का कुल मिलाकर असर ये हुआ कि जिले के मैनेजमेंट का काम काफी जटिल हो गया. न आईएएस, आईएएस रहा, न आईपीएस, आईपीएस. जहां कोई आॅफिसर कोशिश करता पुराने तौर-तरीके लाने की, उसका तबादला हो जाता.

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अब आगे क्या करना है?

ऊपर मैंने लिखा है कि अंग्रेजों के समय में बहुत कम उम्र के लोगों को कलेक्टर या एसपी बनाकर भेजा जाता था. ये संभव और सफल इसलिए था, क्योंकि उनका काम काफी आसान था, उनको रोकने या सवाल पूछने वाला कोई नहीं था.

यही कम उम्र वाली प्रणाली अभी भी चल रही है, जबकि सारा माहौल बदल गया है. देश का सबसे मुश्किल और जटिल काम वो है, जो अब सर्विस के सब से जूनियर आॅफिसर करते हैं.

मेरा कहना ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को इसे बदलना चाहिए, ताकि कोई आॅफिसर 15 या 20 साल की सर्विस के पहले कलेक्टर और एसपी न बने. फिर देखिए कैसा सुधार आता है जिलों में और कितनी कम चलेगी एमपी/एमएलए की.

दूसरी तरफ पाॅलिसी बनाने का काम कम उम्र के आॅफिसर्स को सौंपना चाहिए. इससे पुराने खयालात, जो हर नए आइडिया पर रोक लगाते हैं, वो बहुत घट जाएंगे.

ये एक बहुत बड़ा इंस्टीट्यूशनल बदलाव होगा. इसके लिए जो बदलाव चाहिए, उसके बारे में अगली बार लिखूंगा. यहां सिर्फ इतना काफी है कि आॅल इंडिया सर्विस की जो मौजूदा परिभाषा है, उसे बदलना पड़ेगा.

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(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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