ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन से अलग होने के फैसले पर ब्रितानी जनता की ऐतिहासिक मुहर ने सिर्फ यूके ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के शेयर बाजारों, बैंकों और रिसर्चर्स को ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आने वाले समय में दुनिया के इस भाग की सूरत कैसी होगी.
समय है, संभल जाए भारत
- रुपए पर दवाब बढ़ेगा.
- विदेशी निवेश खासकर यूरोपियन यूनियन से लाना होगा.
- माइग्रेशन बड़ी चुनौती.
भारत की दृष्टि से देखें तो ये अपडेट भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का गवर्नर के रूप में दूसरा टर्म नहीं लेने के फैसले से भी ज्यादा हलचल पैदा करनेवाला है. शुरुआती रिपोर्टों की माने तो रेफरेंडम का रिजल्ट आने के कुछ घंटों के भीतर ही भारतीय बाजारों को चार लाख करोड़ रुपए का चूना लग गया.
हालांकि इसका लंबे समय में भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, ये देखा जाना बाकी है.
रुपए पर बढ़ेगा दबाव
अंतराष्ट्रीय वित्तीय बाजार का स्वभाव काफी अस्थिर है, वो पहले से ही बहुत ज्यादा उत्साहित निवेशकों की उम्मीदों के बोझ से दबा हुआ है.
मुमकिन है कि इस कारण ब्रेग्जिट को बहुत जल्द अपने यहां निवेश किए गए पैसों की किल्लत हो सकती है, खासकर भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था से जिनका यूरोपियन संघ के बाजार में काफी पैसा लगा हुआ है (ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने रिमेन कैंप के प्रचार के दौरान माना था कि ब्रिटेन का भी बहुत बड़ा निवेश भारत में है).
ये जाहिर तौर पर भारत के लिए बहुत अच्छी खबर नहीं है जो बहुत जल्द लगभग 20 बिलियन डॉलर का एफसीएनआर डिपोजिट के मैच्योर होने के कारण उनसे मुक्त होने वाला है. जिसका मतलब है फिर से भारतीय रुपया पर दबाव बढ़ना. अच्छी बात ये है कि इस हालात से निपटने के लिए डॉ रघुराम राजन के पास अभी तीन महीने का समय बाकी है.
चुनौती से निपटने के लिए अभी है पर्याप्त समय
हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के पास तात्कालिक चुनौती से निपटने के लिए कोई चमत्कारिक आर्थिक और राजस्व संबंधी उपाय मौजूद हों, क्योंकि इसके जो दूरगामी असर होंगे उससे निपटने के लिए हमारे पास पर्याप्त समय होगा.
ब्रेग्जिट का फैसला एक ऐसे समय में आया है जब क्षेत्रीय समूहों के बीच होने वाले समझौते पहले से काफी उलझे हुए थे (उदाहरण के तौर पर भारत और यूरोपियन संघ के बीच होने वाला फ्री-ट्रेड अग्रीमेंट को देखें), जो द्विपक्षीय समझौतों को और ज्यादा व्यवहारिक बनाता है.
प्रांतीय व्यापारिक हिस्सेदार के रुप में यूरोपियन संघ पहले से ही भारत के सबसे बड़े साझीधार की जगह खोता जा रहा है, इसकी वजह भारतीय व्यापार का दूसरे देशों और इलाकों में होने वाला प्रसार है.
कुछ ऐसी ही कहानी निवेश के संबंध में भी रही है, क्योंकि यूरोपियन संघ का भारत में एफडीआई निवेश बढ़ नहीं रहा है. इसलिए ब्रेग्जिट जो कर सकती है वो है इस दिशा में सुधार लाना, जिसमें ज्यादा विविधता हो, न कि इमरजेंसी ऑपरेशन कर के किसी को काट कर खुद से अलग कर देना.
पेशेवरों के लिए माइग्रेशन होगी चुनौती
भारत और भारतीयों के लिए सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण माइग्रेशन और देशांतरण संबंधी नई रुपरेखा के साथ तालमेल बिठाना है जो यूरोप में उभरेगा.
हो सके तो उस समय दूसरी अर्थव्यवस्थाएँ भी ब्रेग्जिट के नतीजों का आकलन अपनी अर्थव्यवस्था से करने लग जाएं. एक ऐसे समय में जब पूरे यूरोप में अप्रवासियों और शरणार्थियों को लेकर बहुत ज्यादा संशय व्याप्त है तब ये बिल्कुल मुमकिन है कि इससे जुड़े कानून और सख्त ही होंगें. शायद यही वजह है जिस कारण ब्रिटेन में रहने वाला भारतीय समुदाय ब्रेग्जिट के असर को लेकर एकमत नहीं था, इसके समर्थन और विरोध में ब्रिटेन के कई बड़े व्यापारी और पेशेवर लोग शामिल थे.
इसका सबसे ज्यादा असर उन कर्मचारियों पर पड़ेगा जो या तो काफी निम्न श्रेणी की नौकरी करते हैं या वो जो पूरी तरह से स्किल्ड नहीं हैं. उनकी पूरी कोशिश होगी कि उनको मुहैय्या हुई सुविधा का इस्तेमाल कर वे यूके का वर्क वीजा हासिल कर सके, और भविष्य की योजना बना सके. यूरोपियन संघ का माइग्रेशन कानून उन्हें इस मामले ज्यादा आत्मबल और लचीलापन देता था, जो अब मुमकिन नहीं.
भारतीयों के सामने खड़ा एक सवाल
ऐसा ही एक कठोर उदाहरण उन सैंकड़ों भारतीयों का है जो गोवा के रहने वाले हैं. ये लोग पुराने पुर्तगाली कानून का इस्तेमाल करते हैं. जिसके अनुसार 1961 से पहले पैदा हुए गोवा के नागरिकों को पुर्तगाल की नागरिकता मिल जाती है, और उनके बच्चों के पास ये सुविधा होती है कि अगर वे चाहें तो खुद पुर्तगाल की नागरिकता पाने के लिए खुद को रजिस्टर कर सकते हैं.
इसका सीधा फायदा ये होता है कि एक बार पुर्तगाल का नागरिक बनने के बाद वे यूरोपियन संघ और फिर ब्रिटेन जाने के हकदार हो जाते हैं. ब्रेग्जिट के बाद, इन लोगों को न सिर्फ एक नये यूनाईटेड किंगडम में जाना होगा बल्कि एक तरह से वे एक नवगठित यूरोप में खड़े होंगे. ब्रेग्जिट से ऐसे भारतीयों के मन में कई तरह के सवाल पैदा होंगे, जिनकी मदद के लिए भारतीय सरकार हर समय तैयार खड़ा रहना होगा.
(यह लेख डॅा राहुल त्रिपाठी ने लिखा है. लेखक अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी सलाहकार और गोवा विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के हेड और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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