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राजनीति में वंशवाद की जड़ें लगातार मजबूत हो रही हैं, पर क्यों? 

हमारी लोकतांत्रिक राजनीति में वंशवाद इतना गहरा क्यों है? राजनीति में प्रवेश के लिए कोई रोक-टोक न होना एक कारण है.

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गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) का लॉन्च होना एक ऐतिहासिक घटना थी. यह अप्रत्यक्ष कर लगाए जाने और वसूले जाने के अब तक के तौर-तरीके बदलने वाला फैसला था. इसके बजाय हमें मिले ढेरों स्लैब, कई सेस, वस्तुओं और सेवाओं के वर्गीकरण में लगातार हो रहे बदलाव और बार-बार टलने वाली डेडलाइंस.

इससे ये छवि बनी कि इनडायरेक्ट टैक्स सुधार के ऐतिहासिक कदम में भी जुगाड़ मुमकिन है. इसका मतलब ये है कि एक ऐसे फैसले में भी कार्यपालिका छेड़छाड़ करने का विशेषाधिकार कायम रखना चाहती है, जिस पर शायद अब तक सबसे ज्यादा विचार-विमर्श हुआ है.

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एक निर्वाचित सरकार से उम्मीद की जाती है कि वो बदलते हालात को ध्यान में रखेगी. लेकिन किसी नई नीति को लागू करने के तत्काल बाद ढेरों संशोधन से सही संदेश जाता है क्या? इससे यह सिग्नल जाता है कि नीतियों को जरूरत के मुताबिक तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है. और ये तोड़-मरोड़ कराने की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि लॉबी कितनी ताकतवर है.

ज्यादा बड़ी सरकार, ज्यादा वंशवाद

मैं ये कहने की कोशिश कर रहा हूं कि अच्छी नीयत के बावजूद, देश में नीति निर्माण के रास्ते में विशेषाधिकार की जगह बची हुई है. और जीएसटी भी पहले के ऐसे ही कई बुनियादी फैसलों की तरह कार्यपालिका की ताकत को बढ़ाने का जरिया बनी है. कार्यपालिका को ज्यादा ताकत का मतलब है राजनीति का एक पेशे के रूप में लगातार बढ़ता महत्व, क्योंकि राजनेता ही सरकार की कार्यपालिका को नियंत्रित करते हैं. अगर ऐसा है, तो राजनेता अपने सगे-संबंधियों को किसी दूसरे पेशे में क्यों जाने देते हैं?

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गलत नहीं कहते, जब वो कहते हैं कि देश में वंशवादी राजनीति एक चलन है, अपवाद नहीं. न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की कंचन चंद्रा का एक रिसर्च बताता है कि:

“भारत में 2014 में वंशवाद कई दूसरे लोकतांत्रिक देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा है, जो इसे जापान, आइसलैंड और आयरलैंड जैसे देशों के साथ खड़ा करता है, जहां 2009 में निर्वाचित सांसदों का एक-तिहाई से लेकर एक-चौथाई हिस्सा वंशवाद की देन था. ये भारत को यूके, बेल्जियम, इजरायल, अमेरिका, नॉर्वे और कनाडा से अलग कर देता है, जहां निर्वाचित सांसदों की तादाद 1% से 11% के बीच है.” (ईपीडब्ल्यू, 12 जुलाई, 2014)
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लोकसभा के कुल सांसदों में 21 प्रतिशत किसी न किसी राजनीतिक वंश से

कंचन चंद्रा की स्टडी दिखाती है कि मौजूदा लोकसभा का हर पांच में से एक सदस्य किसी राजनीतिक परिवार से है.

“2009 में 29% भारतीय सांसदों की पृष्ठभूमि वंशवाद से जुड़ती थी, जो 2014 के संसद में गिरकर 21% रह गई है. संसद में कम से कम एक सीट रखने वाले 36 राजनीतिक दलों में से 13 (36%) दलों के नेताओं का परिवार पहले से राजनीति में रहा था. दूसरी 10 पार्टियों के नेताओं के ऐसे पारिवारिक सदस्य हैं, जिन्होंने उनके बाद राजनीति में प्रवेश किया है (और अक्सर पार्टी की अगुवाई की है). इससे परिवार-आधारित राजनीतिक दलों की तादाद 23 हो जाती है. संसद में ऐसे राजनीतिक दलों की भागीदारी 64% हो जाती है. इसमें कांग्रेस और अकाली दल जैसी पुरानी पार्टियां और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी नई पार्टी भी शामिल है.”

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वंशवादी राजनीति का विरोध करने वाले भी अपने गढ़ में इसे अपनाते हैं

वंशवाद की पकड़ सिर्फ लोकसभा तक सीमित नहीं है. वो राज्यों की विधानसभा में भी उतने ही ताकतवर हैं. कंचन चंद्रा इस बात की ओर ध्यान दिलाती हैं कि उन पार्टियों में भी, जहां ऊंचे पदों पर वंशवादी राजनेता कम हैं, उनके परिवार के सदस्यों के राजनीति में आने की प्रवृत्ति कहीं ज्यादा है. हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें वंशवादी राजनीति का विरोध करने वाले अपने प्रभाव वाले इलाकों में अपने सगे-संबंधियों को राजनीति में आगे बढ़ाने से परहेज नहीं करते हैं.

हमारी लोकतांत्रिक राजनीति में वंशवाद इतना गहरा क्यों है? राजनीति में प्रवेश के लिए कोई रोक-टोक न होना एक कारण है. साथ ही जोखिम के मुकाबले बेहतर इनाम मिलने की संभावना भी, क्योंकि हमारे देश में पॉलिटिकल क्लास का जलवा हमेशा से रहा है.

चंद्रा कहती हैं, “अच्छी योग्यता रखने वाले कुछ लोगों को छोड़ दें, तो राजनीतिक परिवारों से आने वाले 20 या 30 साल की उम्र के लोगों के राजनीति में प्रवेश के बाद बेहतर ओहदा, ताकत और कमाई होने की क्षमता कहीं ज्यादा होती है, बनिस्पत इसके कि वो बिजनेस, बैंकिंग, प्रशासनिक सेवा या किसी और पेशे में जाते.”

इसलिए, किसी एक को वंशवादी कहने और अपने आप को उससे बेहतर बताने की बजाय हमें अपने अंदर झांकना चाहिए और उन हालातों को सुधारने करने की कोशिश करनी चाहिए, जो वंशवाद को बढ़ावा देती हैं. मतलब ये कि राजनीतिक वर्ग स्वेच्छा से सत्ता और हैसियत का कुछ हिस्सा छोड़ें. हम कुछ ज्यादा तो नहीं मांग रहे?

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