ग़ज़ल को एक लोकप्रिय संगीत शैली बनाने में पंकज उधास (Pankaj Udhas) का योगदान क्या है? जब मैं इस सवाल पर विचार कर रहा था, तब मैंने देखा कि मेरे एक विद्वान मित्र ने मुझे सोशल मीडिया पर एक उर्दू शेर में टैग किया है. वो शेर था,
बहुत आज़ाद होती जा रही है
ग़ज़ल बरबाद होती जा रही है
इसे 1973 में जन्मे बिहार के शायर इमरान रकीम ने कहा था. यह बताता है कि जब-जब कोई रचनात्मक चीज एक नई ऊंचाई को छूती है, तो हमेशा कोई शुद्धतावादी अपनी निराशा जाहिर करता है और सोचता है कि चीजें वैसी ही होनी चाहिए जैसी पहले हुआ करती थीं.
उनकी डर के बावजूद ग़ज़ल आज जीवित है, सक्रिय है और जनता के लिए कला का एक रूप है. इसकी वजह है कि कुछ नियम तोड़े गए हैं और लांघकर नई सीमाओं को छुआ गया है. आप हमेशा यह जिरह कर सकते हैं कि इसे लोकप्रिय किसने बनाया, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक व्यक्ति, जिसने इसकी पहुंच को काफी हद तक बढ़ाया, वह पंकज उधास हो सकते हैं. उनका 26 फरवरी को 72 वर्ष की आयु में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया है.
उनके योगदान को समझने के लिए हमें पीछे हटकर ग़ज़ल की उत्पत्ति और विकास को देखना होगा. भले ही इसकी जड़ें सातवीं शताब्दी की अरबी कविता में हैं, लेकिन रहस्यवादी सूफियों की बदौलत ग़ज़ल को मुक्त होने और भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी लय खोजने में 500 साल लग गए.
अपने रूढ़िवादी रूप में, ग़ज़ल में कम से कम पांच दोहे होते हैं, जिसमें मीटर और छंद के लिए सख्त नियम होते है. लेकिन इसमें विषम बदलाव हुए और यह नई ऊंचाइयों पर पहुंच गया- या, जैसा कि शुद्धतावादी कहेंगे, नए निचले स्तर पर पहुंच गया.
यदि आप पंकज उधास के सबसे प्रसिद्ध गाने- 'चिट्ठी आई है' (1986 में महेश भट्ट की फिल्म 'नाम' में शामिल) को ग़ज़ल बताएंगे, तो हो सकता है कि कोई 'ज्ञानी' ग़ज़ल प्रेमी आपको कुछ नियमों का हवाला देकर गलत भी कह सकता है.
चूंकि 'चिट्ठी आई है' का हर मिसरा वास्तव में एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं था (जैसा कि एक ग़ज़ल को होना चाहिए), यह गीत नज़्म अधिक था. इसका एक ही विषय था, परदेश में बैठे एक प्रवासी का अकेलापन और उसकी लालसा, जिसके पास अपने वतन से घरवारों की चिट्ठी आई है.
लेकिन नियमों की परवाह मत कीजिए. इसी गाने ने महान फिल्म निर्माता राज कपूर को यह कहने पर मजबूर कर दिया था कि "पंकज तू अमर हो गया." जैसे ही पंकज उधास एक कैमियो में स्क्रीन पर आए और यह गाना गाते दिखे, इस गीत ने दुनिया भर में लाखों दिलों को छू लिया.
क्लासिकल ग़ज़लें रोमांटिक प्रेम या गहरे दर्शन के बारे में अधिक होती थीं. लेकिन प्रवासियों की घर की याद को ग़ज़ल के दायरे में लाकर, गीतकार आनंद बख्शी ने ग्लोबलाइज्ड दुनिया में नई सीमाओं को आगे बढ़ाया था. परदेश में रहने वाले भारतीयों ने पंकज उधास में एक ऐसी आत्मा देखी जो उनसे सहानुभूति रखती थी. कुछ ऐसी ही भावना भारत में आंतरिक प्रवास को मजबूर लोगों के अंदर भी थी. उनमें से अधिकांश साधारण निम्न मध्यम वर्ग के श्रमिक या दूर देश में जीविका कमाने वाले व्यापारी थे. वे कोई उर्दू, फारसी या अरबी में रूढ़िवादी शिक्षा के साथ पले-बढ़े पुराने ग़ज़ल-प्रेमी नवाब नहीं थे. इसके बावजूद उनके दिलों में जो भावनाएं उठीं, वे इतनी अच्छी थीं कि वे खुद को शायर जैसा महसूस करने लगे.
पंकज उधास से लगभग एक दशक पहले, जगजीत सिंह ने ग़ज़लों को एक ऐसे फॉर्मूले के साथ भारतीयों के लिए बेहतरीन बना दिया था, जो जब बजता था, तो उसके सामने कोई टिकता नहीं था. यदि श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों की विचारों को झकझोर देने वाली और यथार्थवादी विषयों के साथ समानांतर सिनेमा ने भारत के उभरते मध्यम वर्ग को मंत्रमुग्ध कर दिया, तो जगजीत सिंह की ग़ज़लों ने समाज के कम विशेषाधिकार प्राप्त समझदार कला-प्रेमियों के एक नए वर्ग का पोषण किया.
जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायन में बड़े पैमाने पर गिटार और पियानो को हारमोनियम बेस के साथ जोड़ा. जगजीत सिंह ने जिन गीतों और कवियों को चुना, उनमें उन्होंने शहरी गुस्से जैसी रोजमर्रा की मध्यवर्गीय भावनाओं को शामिल किया. जगजीत सिंह उन लोगों के लिए एक प्रकार के विद्रोही थे, जो बेगम अख्तर की रूढ़िवादिता पर पले-बढ़े थे, जो गहरे स्वर वाली सारंगी की वादी धुनों के साथ ख्यात शायरों द्वारा लिखे गए गहन विचारों के साथ शुद्ध उर्दू गीत गाते थे.
इन दोनों के बीच, हम मेहदी हसन और गुलाम अली जैसे पाकिस्तानी गायकों को रख सकते हैं, जिन्होंने हारमोनियम बजाते हुए उत्सुक दर्शकों के लिए अपनी भावपूर्ण ग़ज़लें प्रस्तुत कीं. मेहदी हसन और गुलाम अली अपने अंदाज में एक बैठक या एक महफ़िल में सीमित संख्या में लोगों के लिए गाया करते थे.
जगजीत सिंह ने लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल और सिडनी ओपेरा हाउस जैसे बड़े ऑडिटोरियम में दर्शकों को वाह-वाह और तालियों की गड़गड़ाहट से परे अपने साथ गाने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने पंजाबी लोक गीतों को ग़ज़लों और नज़्मों के साथ मिक्स किया.
पंकज उधास से तीन साल पहले जगजीत सिंह ने प्रवासियों के दर्द को अपनी आवाज दी. उन्होंने 1983 में राही मासूम रज़ा का लिखा हिट गाना, हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद गाया था.
जगजीत सिंह की भावपूर्ण आवाज और कई वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल ने ग़ज़ल को लोकप्रिय बना दिया. पंकज उधास जुबान पर याद हो जाने वाले गीतों के साथ अगले स्तर पर ले गए.
जैसे:
आइए बारिशों का मौसम है/इन दिनों चाहतों का मौसम है
चांदी जैसा रंग है तेरा, सोने जैसा बाल/ एक तू ही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल
यह ऐसी लाइनें थी जिसे भारत का कोई भी ट्रक ड्राइवर अपनी गाड़ी के पीछे लिख सकता था.
पंकज उधास ने जगजीत सिंह की तुलना में बॉलीवुड के लिए कई गाने भी गाए. अगर क्रिकेट के शब्दों में बयां करें तो, इन दोनों गायकों ने ग़ज़ल को टेस्ट मैच स्टाइल से लेकर टी-20 स्तर तक पहुंचाया. उन्होंने नई ऊंचाइयों को छुआ. इन सबके बीच इमरान रकीम जैसे शुद्धतावादी आलोचकों की तो बात ही छोड़िए. आप उन सभी को खुश नहीं कर सकते, है न?
पंकज उधास और जगजीत सिंह, शायद दोनों की सफलता का श्रेय न केवल बढ़ते मध्यम वर्ग को, बल्कि म्यूजिक रिकॉर्ड करने के किफायती रूपों का तेजी से बढ़ना भी है. यदि ऑल इंडिया रेडियो ने लता मंगेशकर को भारतीय घरों में लोकप्रिय बना दिया, तो लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड ने जगजीत सिंह को अपेक्षाकृत छोटे लेकिन समझदार दर्शकों तक पहुंचने में मदद की.
कैसेट प्लेयर और बाद में कॉम्पैक्ट डिस्क (CD) के आने से संगीत निर्माता ऑफ-बॉलीवुड संगीत पर दांव लगाने के लिए अधिक इच्छुक हो गए. और इसके लिए अनूप जलोटा जैसे गायक फिट बैठे, जो ग़ज़लों की तुलना में अपने भक्तिपूर्ण भजनों के लिए अधिक जाने जाते हैं. वैसा ही पंकज उधास के साथ भी था. फिल्मी नज़्मों और तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उनकी ग़ज़ल की प्रस्तुति ने उन्हें एक कल्ट फिगर बना दिया. पंकज उधास ने अपने साफ-सुथरे लुक और बेहतरीन ड्रेस सेंस के साथ एक्ट को पूरा किया, उन्होंने बेदाग कुर्ते के ऊपर सावधानी से पहना हुआ शॉल डाला.
यह भी महत्वपूर्ण है कि पंकज उधास का पहला एल्बम, आहट, 1980 में हिट हुआ- ठीक उस समय जब निम्न मध्यम वर्ग के बजट के अनुसार अधिक किफायती कैसेट बाजार में आ रहे थे.
पहले एल्बम के गीत, जिसमें दिल की धड़कन, दिल टूटने और आत्म-सम्मान जैसे पहलू शामिल हैं, उसने एक अर्थ में सातवीं शताब्दी की ग़ज़ल के दार्शनिक उद्देश्यों को बरकरार रखा. लेकिन सरल शब्दों का चयन, कभी-कभार भारी स्वरों में विचलन के साथ- ठीक यही वह चीज थी जिसने जनता को यह महसूस कराया कि वे भी शास्त्रीय क्षेत्र में ऊपर आ गए हैं. उस अर्थ में, पंकज उधास ने ग़ज़ल को गूंगा नहीं किया बल्कि उन्होंने उसके एंट्री प्वाइंट को नीचे करके एक नया दर्शक वर्ग तैयार किया.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं. उन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनका ट्विटर हैंडल @madversity है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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