कुछ दिनों पहले मुझे एक टीवी चैनल ने एक चर्चा में शामिल होने के लिए बुलाया था, जिसका विषय था कि क्या बीजेपी को पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है, क्योंकि आने वाले चार महीनों में दो बड़े विधानसभा चुनाव और छह महीने में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं.
सबको पता है कि 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत नहीं मिलेगा. लेकिन वह कितनी सीटों से इससे पीछे रहेगी, यह सवाल सबके मन में है? अगर ऐसा है, तो केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी कम करके पेट्रोल-डीजल सस्ता क्यों नहीं कर रही और किस वजह से बीजेपी शासित राज्यों से इन पर टैक्स घटाने को कह रही है.
अभी चार महीने पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में एक लंबा भाषण दिया था. इसमें उन्होंने कहा था कि जब उनकी सरकार ने कामकाज संभाला था, तब अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब थी. मोदी ने कहा था कि उनकी सरकार ने देश को इससे उबारा और आज अर्थव्यवस्था कमजोर नहीं रह गई है.
प्रधानमंत्री के इस बयान के 16 हफ्ते बाद ही तस्वीर खराब नहीं, तो कम से कम अच्छी भी नहीं रह गई है. अगर लंबे समय से चली आ रही रोजगार, कृषि, निर्यात जैसी समस्याओं को छोड़ भी दें, तो महंगाई दर को लेकर बढ़ी अनिश्चितता, रुपये में गिरावट, ऊंची ब्याज दर, जीएसटी कलेक्शन में कमी से अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर कई सवाल खड़े हुए हैं.
सरकार की हालत उस विराट कोहली की तरह दिख रही है, जिसने इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट मैच में 86 रन पर 6 विकेट लेने के बाद उसे 300 रन से अधिक का स्कोर खड़ा करने दिया. इस मैच में कोहली ने रविचंद्रन अश्विन पर जरूरत से अधिक भरोसा किया और वह परफॉर्म नहीं कर पाए. इससे मैच पर कोहली की पकड़ कमजोर होती गई और आखिर में वह हाथ से निकल गया.
इसी तरह, 2015 के बाद सरकार के इकनॉमिक मैनेजर कच्चे तेल की कम कीमतों के भरोसे रह गए. पिछले साल जब इसमें तेजी आनी शुरू हुई, अर्थव्यवस्था पर सरकार की पकड़ कमजोर होती गई. मई में इकनॉमी मजबूत दिख रही थी, लेकिन सितंबर आते-आते उस पर काले बादल मंडराने लगे हैं. कहा जा रहा है कि अब मोदी ने अर्थव्यवस्था की कमान अपने हाथों में ले ली है.
यह वैसा ही है, जैसे क्रिकेट डायरेक्टर रवि शास्त्री ग्राउंड पर सबकुछ कंट्रोल करने की कोशिश कर रहे थे. इसका एक सीमा के बाद फायदा नहीं हुआ. मोदी के साथ भी ऐसा ही हो सकता है. उन्होंने इकनॉमी की कमान अपने हाथों में लेने में देर कर दी है.
गलती कहां हुई?
सरकार ने तेल की कम कीमतों, जीएसटी से अधिक आमदनी और कम महंगाई दर पर भरोसा किया था. वह जीएसटी कलेक्शन और महंगाई दर को तो कंट्रोल कर सकती थी, लेकिन तेल की कीमतों पर उसका कोई जोर नहीं था. जीएसटी को लागू करने में जो गलतियां हुईं, उससे अप्रैल के बाद से हर महीने 10,000 की आमदनी का नुकसान हो रहा है. इस गलती को सुधारने के लिए कंपनसेशन सेस के तौर पर मिले 90,000 करोड़ का आसरा लिया गया.
समझदारी से मनी सप्लाई की जाए, तो महंगाई संबंधी अनिश्चितता को दूर किया जा सकता है. इसमें सफलता मिलने की गुंजाइश भी दिख रही है. कृषि उपज में कमी से महंगाई दर बढ़ने की आशंका कम से कम इस साल तो नहीं दिख रही है, लेकिन कच्चे तेल की कीमतों में आगे बढ़ोतरी के आसार दिख रहे हैं.
पश्चिम एशिया में तेल उत्पादक देशों के प्रोडक्शन घटाने और ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी सप्लाई कम होगी और दाम ऊंचे स्तर पर बने रहेंगे. देश के आर्थिक मैनेजरों ने 2019 लोकसभा चुनाव तक तेल की कीमतें कम रहने पर जो दांव लगाया था, वह गलत निकला. इस बीच, सऊदी अरब के तेल का उत्पादन घटाने और ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों के जो संकेत मिले, उन्होंने उसे भी हल्के में लिया.
अब पछताए होत क्या...
2015-17 के बीच जब तेल के दाम कम थे, तब मोदी सरकार को क्या करना चाहिए था? वह वाई वी रेड्डी की राह पर चल सकती थी, जिन्होंने आरबीआई गवर्नर के तौर पर 2003-08 की माकूल वित्तीय माहौल का फायदा उठाकर सरकारी बैंकों के कैपिटल रिजर्व में बढ़ोतरी की थी. इससे भारत को 2008 के वित्तीय संकट का सामना करने में मदद मिली थी.
इसी तरह, मोदी सरकार को पिछले तीन साल में धीरे-धीरे रुपये को कमजोर होने देना चाहिए था. इससे आयात महंगा होता और निर्यात सस्ता. इसके अलावा, उसे तेल का बड़ा रणनीतिक भंडार बनाना चाहिए था, जो अभी करीब 60 लाख टन के करीब है. यह 1.20 करोड़ टन होना चाहिए था.
हम सिर्फ अटकलें लगा सकते हैं कि इस बारे में मोदी को किस तरह की सलाह मिली, जो मैक्रो-इकनॉमी पर बहुत ध्यान नहीं देते. हालांकि अब उन्हें समझ में आएगा कि मैक्रो-इकनॉमिक फंडामेंटल्स की कितनी अहमियत होती है. सरकार ने स्थिति को संभालने में देर कर दी है. इसका नतीजा उसे 2019 चुनाव में भुगतान पड़ेगा, क्योंकि पेट्रोल, डीजल और कंज्यूमर गुड्स के ऊंचे दाम से उसने सभी वर्गों के वोटरों को नाराज कर दिया है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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