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हमेशा फ्रंटफुट पर खेलने का मोदी को सियासी नुकसान उठाना पड़ सकता है

भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के मूल्यांकन के लिए दो अलग-अलग पैमाने होने चाहिए.

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महीने से भी कम समय के भीतर प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. समय है आकलन करने का, कि इन पांच साल में उन्होंने क्या अच्छा किया और क्या बुरा? भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के मूल्यांकन के लिए दो अलग-अलग पैमाने होने चाहिए.

  • पहला- उन्होंने सरकार के अगुवा के रूप में क्या किया
  • दूसरा- एक राजनीतिक नेता के रूप में उनका काम कैसा था.

दोनों पैमाने एक-दूसरे से बिलकुल अलग हैं.

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इसके अलावा अगर कोई सरकार पांच साल का कार्यकाल पूरा करती है, तो उसकी भूमिका का आकलन करते हुए कुछ छूट देना भी आवश्यक है. सभी प्रधानमंत्रियों को कम से कम दो बड़ी गलतियां करने की छूट देनी चाहिए. मैं किसी भी गलती को तभी बड़ी गलती के रूप में परिभाषित करता हूं, जब उसका असर लंबे समय तक रहता है या उसे दूर करना बेहद कठिन होता है. इस प्रकार नेहरू की भारी गलतियां बड़े उद्योगों पर जोर और चीन के साथ युद्ध मानी जा सकती हैं.

इंदिरा गांधी की बड़ी गलतियों का आकलन करें तो बैंकों का राष्ट्रीयकरण और कांग्रेस का निजीकरण सामने आते हैं. राजीव गांधी की बड़ी गलतियों में भारी वित्तीय कर्ज तथा IPKF को श्रीलंका भेजने का फैसला था. दूसरी गलती के कारण उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ी.

नरसिम्हा राव की भारी गलती एक ही नजर आती है: जब बाबरी मस्जिद गिराई गई तो उन्होंने कुछ नहीं किया. अटल बिहारी वाजपेयी की भी एक ही बड़ी गलती दिखती है, कि उन्होंने पाकिस्तान पर भरोसा किया. मनमोहन सिंह की बड़ी गलती मनरेगा थी. इसके नतीजे बदलना आसान नहीं.

मोदी की गलतियां

इस नजरिए से देखा जाए तो सरकार के मुखिया के रूप में नरेंद्र मोदी की एक बड़ी गलती शिक्षा के प्रति उनका रुख था, जिसका असर लंबे समय तक रहेगा. जबकि नोटबंदी जैसी गलतियां सुधारी जा सकतीं. सरकार के अगुवा के रूप में उनकी भूमिका का उचित आकलन किया जाए तो उन्होंने इंदिरा गांधी के अलावा अन्य प्रधानमंत्रियों का ही अनुसरण किया, क्योंकि व्यवस्था बहुत कुछ करने की अनुमति नहीं देती.

तो प्रधानमंत्रियों से उम्मीद की जाती है कि वो दो से अधिक बड़ी गलतियां न करें, जिन्हें बदला न जा सके. फैसलों में गलतियों की वास्तविकताएं नेहरू, राजीव, राव, वाजपेयी और सिंह के कार्यकालों में भी रही हैं.

कुल मिलाकर सरकार के अगुवा के रूप में मोदी ने काफी बेहतर काम किया, जिसके नतीजे बुरे भी हो सकते थे.

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मोदी, मोदी, मोदी!

एक राजनीतिक नेता के रूप में मोदी का काम कैसा रहा? ये सवाल ज्यादातर प्रधानमंत्रियों के माथे पर शिकन ला देता है. शायद नेहरू को इस सवाल से दो-चार नहीं होना पड़ा, क्योंकि उस वक्त कांग्रेस बेहद मजबूत थी, और न ही वाजपेयी को इस प्रश्न से जूझना पड़ा, क्योंकि राजनीति के प्रति उनका नजरिया स्नेहपूर्ण था. लेकिन मोदी समेत अन्य सभी प्रधानमंत्रियों को इस सवाल ने परेशान किया.

लेकिन मोदी और दूसरे प्रधानमंत्रियों में अंतर यही था कि मोदी प्रचार के अपने मकसद से कभी पीछे नहीं हटे. दूसरे प्रधानमंत्री अंतिम डेढ़ साल से पहले प्रचार के बारे में सोचते भी नहीं थे, मोदी ने मई 2014 में ही संसद में कह दिया था कि वो अगले 10 साल तक प्रधानमंत्री बने रहना चाहते हैं. और तब से उनकी दोनों आंखें 2019 के चुनाव पर टिकी थीं. उनकी रणनीति, राजनीतिक विरोध पर शुरू में ही लगाम कस देना है. बीजेपी उम्मीदवार बनने की उनकी ख्वाहिश 2008 से ही शुरू हो गई थी, धीरे-धीरे वो स्वयं को इकलौता संभावित विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रहे.

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यही उन्होंने अब भी किया है. 2019 का आम चुनाव बीजेपी बनाम अन्य के बीच नहीं, बल्कि मोदी बनाम अन्य के बीच है. ये चुनौती जोखिम भरी है, क्योंकि अगर चुनाव नतीजों में बीजेपी को भारी नुकसान पहुंचता है, यानी अगर बीजेपी को 100 या उससे अधिक सीटों का नुकसान होता है, तो उनकी पार्टी इसके लिए पूरी तरह उन्हें ही जिम्मेदार ठहराएगी.

इसका कारण बेहद सतही हो सकता है. एक राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में विफलता, सरकार के अगुवा के रूप में उनकी तमाम अच्छाई पर हावी हो जाएगी. क्योंकि करिश्मा अपनी जगह है और TINA (There Is No Alternative) फैक्टर अपनी जगह. अधिक नहीं, तो लोकसभा की 544 में से कम से कम 175 सीटों पर बीजेपी के लिए जीत के आसार नहीं हैं. वहां TINA फैक्टर नहीं है.

बाकी लगभग 350 संसदीय क्षेत्रों में मोदी प्रतिस्पर्धा में हैं. क्या उनमें 272 सीटों पर जीत हासिल हो पाएगी? अंत में अगर आप ध्यान दें तो मोदी का नजरिया मनमोहन सिंह के ठीक विपरीत है. मनमोहन सिंह के मामले में राजनीतिक नाकामी का ठीकरा पार्टी पर फूटता था, जबकि अच्छे प्रशासन का सेहरा मनमोहन सिंह के सिर पर सजता था. फैसला आपको करना है, कि आप दोनों में किसे बुद्धिमान मानते हैं.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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