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‘भाई-भाई’ का नारा तो लुभावना है, पर इतिहास का सबक डरावना है

‘भाई-भाई’ के नारे में छिपी चीन की छल भरी दुनिया में आपका स्वागत है!

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प्रधानमंत्री मोदी का काम करने का जुनून कभी धीमा नहीं पड़ता. पर आखिरकार उन्होंने भी एक वीकेंड की छुट्टी मना ही ली. वो भी चीन के वुहान में!

मोदी ने ईस्ट लेक में नाव पर सैर की और झील किनारे चहलकदमी का आनंद भी लिया. उन्होंने इत्मीनान के साथ लंच किया, जहां गुजराती टेबल मैट बिछाए गए थे और लंच में परोसे गए व्यंजन भी गुजराती थे (हालांकि उन्हें चीन के शेफ ने बनाया था). उनके मेजबान ने आग्रह किया कि वो खूबसूरत चीनी महिलाओं की बनाई एक्जॉटिक चाय पीकर देखें और ये भी बताया कि 'दंगल' और 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी बॉलीवुड की सुपरहिट फिल्में देखना उन्हें कितना पसंद है.

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उन्होंने उन नौ घंटों के दौरान मोदी को घर जैसा महसूस कराने की हर मुमकिन कोशिश की, जब वो दोनों साथ थे. इसमें वो सात घंटे भी शामिल हैं, जब सिर्फ उन दोनों के बीच आमने-सामने की बैठक हुई. इस दौरान सिर्फ अनुवादकों की मौजूदगी ही खटकने वाली थी.

राष्ट्रपति शी जिनपिंग यानी दुनिया के सबसे शक्तिशाली शख्स (ठीक है...मान लिया कि वो दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं, लेकिन उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं है) ने पहले से अभिभूत दिख रहे अपने मेहमान का दिल जीतने के लिए सब कुछ किया...अब तो सिर्फ गुजराती में बातें करना ही बाकी रह गया था.

वुहान में क्या बातें हुईं किसी को नहीं पता, लेकिन क्यों?

वुहान में क्या हुआ इस बारे में हमें खूबसूरत तस्वीरों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं मालूम, क्योंकि जो कुछ भी वुहान में हुआ, वो वहां से बाहर नहीं आया. लेकिन वहां 'क्या' हुआ इससे ज्यादा बेचैन करने वाला सवाल ये है कि वहां जो भी हुआ वो हुआ 'क्यों'?

ऐसी कानाफूसी हो रही है कि मोदी चीन के साथ युद्धविराम चाहते थे, कम से कम 2019 तक, ताकि दोबारा सत्ता हासिल करने का चुनौती भरा काम पूरा कर सकें. इसके लिए उन्होंने नेहरू के पंचशील के सिद्धांत का अपना संस्करण भी तैयार कर लिया था - खास मोदी स्टाइल में, पांच 'स' वाले अनुप्रास अलंकार के साथ: सोच, सम्मान, सहयोग, संकल्प और सपने. दुर्भाग्य से चीन ने भारतीय प्रधानमंत्री के इस मेहनत भरे शब्द-चमत्कार को बड़ी बेरुखी से नजरअंदाज कर दिया.

पिछले दो से ज्यादा सालों के दौरान चीन लगातार भारत की 'चिकन नेक' के इर्द-गिर्द अपना फंदा और कसता रहा है. हिंद महासागर में उसकी तेजी से आधुनिक हो रही नौसेना की टोह लेने वाली हरकतें भी लगातार बढ़ी हैं. मालदीव, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार में उसने हम पर बढ़त हासिल कर ली है, जिसका चरम बिंदु था 'भूटान के लिए' डोकलाम में हुआ टकराव. (इसके अलावा 2017 के दौरान चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने एलएसी यानी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल का 425 बार उल्लंघन भी किया, जो पहले से कहीं अधिक है.)

डोकलाम में भारत भले ही अपने रुख पर डटा रहा, लेकिन माना जा रहा है कि मोदी को ये फिक्र है कि अगर 2019 से पहले डोकलाम जैसी कुछ और घटनाएं हो गईं, तो कट्टरपंथी ट्रोल्स पर उनकी पकड़ कमजोर पड़ सकती है. ट्विटर/टीवी पर नफरत और युद्ध का उन्माद भड़काने वाले ये योद्धा बड़ी मेहनत से पाले गए हैं, जिनके भस्मासुर बनने का खतरा हो सकता है. इनके दबाव में अगर मोदी को फौजी कार्रवाई का दुस्साहस करने के लिए मजबूर होना पड़ा और दांव उल्टा पड़ गया, तो 2019 की रेस हाथ से निकलने का खतरा है. लिहाजा वो अमन की अर्जी दे रहे थे.

लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग का क्या? उन्होंने अपना एक वीकेंड ढोकला खाने में क्यों 'इनवेस्ट' किया? जबकि वो चाहते तो अपनी पसंदीदा नॉनवेज डिश 'स्टेक' का आनंद ले सकते थे. रहस्य के पर्दे में घिरे रहने वाले चीनी नेताओं के व्यक्तित्व की थाह लेना हमेशा ही बड़ा मुश्किल होता है. लेकिन ऐसा लगता है कि शी ने शायद अपने नायक और पूर्ववर्ती चेयरमैन माओ की तरकीब उधार ली है.

माओ ने अपनी मशहूर किताब 'ऑन कंट्राडिक्शन' (विरोधाभास के बारे में) में लिखा है, "मुख्य विरोधाभास से ही ये तय होता है कि नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी समस्या क्या है. विकास के अगले चरण में पहुंचने के लिए इस मुख्य विरोधाभास को हल करना जरूरी है."

आसान शब्दों में कहें, तो आपको अपनी पूरी ताकत उस समस्या को दूर करने में लगानी चाहिए, जो उस वक्त आपकी सबसे बड़ी अड़चन है. बाकी ध्यान बंटाने वाली छोटी समस्याओं को बाद के लिए छोड़ देना चाहिए.

दरअसल, बात ये है कि शी जिनपिंग आजकल 'बार-रूम बैटल' में 'तेज रफ्तार से फायरिंग करने वाले काउ ब्वॉय' डोनाल्ड ट्रंप के सामने खुद को निहत्था और बौखलाया हुआ महसूस कर रहे हैं. क्या उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच सुलह की संभावनाओं में चीन को दरकिनार कर दिया गया है? इसमें दोनों के एकीकरण और परमाणु हथियारों के खात्मे जैसी बातें भी शामिल हैं, जिनके बारे में पहले कोई सोच भी नहीं सकता था.

क्या अमेरिका की आक्रामक टैरिफ पॉलिसी से होने वाले संभावित आर्थिक नुकसान को चीन ने कम करके आंका था? चीन इस नुकसानदेह ट्रेड वॉर को खत्म करने के लिए जिस तरह उतावला दिख रहा है, उससे तो यही लगता है. तो क्या अमेरिका ने इस बड़े मुकाबले का पहला राउंड जीत लिया है, जिसकी वजह से चीन को अपनी आगे की चाल काफी सोच-समझकर चलनी पड़ रही है?

बरसों पहले भुला-बिसरा दिए गए 'वाइल्ड वेस्ट' वाले अंदाज में बंदूक लहराते अमेरिकी राष्ट्रपति ने अगर ईरान के परमाणु समझौते को रद्द कर दिया, तो क्या होगा? उसके बाद लागू होने वाले कड़े प्रतिबंधों पर चीन की क्या प्रतिक्रिया होगी? और अगर भारत को मिलाकर अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया-भारत की 'धाकड़ चौकड़ी' तैयार हो गई, तो क्या होगा? इन हालात में भारत को 'वुहान की गोली' देकर शांत कर देना ही बेहतर उपाय है, ताकि सारी ताकत सबसे ज्यादा परेशानी खड़ी करने वाले मिस्टर ट्रंप से निपटने में लगाई जा सके.

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वुहान से 'भाई-भाई' की हल्की सी गूंज सुनाई दे रही है क्या?

वुहान के सकारात्मक नतीजों से किसी को इनकार नहीं करना चाहिए या उस पर संदेह नहीं करना चाहिए. चीन अगर भारत को 'आर्थिक ग्लोबलाइजेशन और कई ध्रुवों वाली दुनिया की रीढ़' के तौर पर बराबरी का दर्जा देने की मेहरबानी कर रहा है, तो ये अपने आप में एक बड़ी जीत है. लेकिन चीन के चालाकी भरे दोहरेपन से सावधान रहना भी जरूरी है.

मिसाल के तौर पर वुहान शिखर वार्ता के कुछ ही दिनों के भीतर किए गए चीनी राजदूत के ट्वीट का विश्लेषण करने की कोशिश कीजिए: "चीन ने 1 मई से 28 दवाओं से इंपोर्ट टैरिफ हटा दिया है." इसके बाद उन्होंने पत्रकारों को बताया कि ये भविष्य में उठाए जाने वाले कदमों की पहली कड़ी है. इस तरह उन्होंने साफ संकेत दिया कि ये छूट वुहान वार्ता के बाद दी गई है. भारतीय वाणिज्य मंत्री ने भी फौरन ही इस उदारता के लिए चीन की खुलकर तारीफ की.

लेकिन जरा रुकिए - ये एलान सिर्फ भारत के लिए नहीं किया गया था ! ये कदम वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन के सभी सदस्य देशों के लिए था, जिसका खास मकसद तो अमेरिका को खुश करना था!!

भारतीय दवा उद्योग ने इस एलान को महत्वहीन बताकर खारिज कर दिया है. उनका कहना है कि: "चीन के मामले में मुख्य परेशानी ऐसी अड़चनों की वजह से है, जो टैरिफ से नहीं जुड़ी हैं. वो एक दवा के रजिस्ट्रेशन में 3 से 5 साल लगा देते हैं."

भाई-भाई के नारे में छिपी चीन की छल भरी दुनिया में आपका स्वागत है!

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तब 'करीबी रिश्ता' था, अब कट्टर दुश्मन हैं

जिन्हें वुहान के खुशनुमा माहौल से बरसों पहले की बातें याद हैं, उन्हें ध्यान होगा कि 1940 के दशक में दोनों देशों को औपनिवेशिक गुलामी से नई-नई आजादी मिलने के फौरन बाद क्या हुआ था. यहां मैं आपको अपनी किताबसुपरइकनॉमीज़ :अमेरिका, इंडिया, चाइना, एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड (पेंग्विन एलन लेन 2015) में लिखी कुछ बातें बताना चाहता हूं:

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इतिहास की कुछ बातें डरावनी और अजीब होती हैं: 'शांति प्रिय' भारत की तरफ से आत्मिक संबंधों, गहरे आपसी लगाव और पंचशील जैसी बातें, उधर चीन का चोरी-छिपे सड़कें बनाना (पहले अक्साई चिन में और अब डोकलाम में), सीमाओं पर टकराव....इन सबका अंत हुआ 1962 के शर्मनाक युद्ध से!

मेरा इरादा सनसनी पैदा करने का नहीं है. युद्ध की आशंका बहुत कम है. खासतौर पर इसलिए, क्योंकि भारत अब एक न्यूक्लियर पावर है और हमारी सेना पहले से बहुत ज्यादा मजबूत हो चुकी है. लेकिन एक बात आज भी उतनी ही सच है, जितनी 1950-60 के दशक में थी: चीन सिर्फ ताकत का सम्मान करना जानता है, और भारत को अपनी ताकत बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. फिर चाहे वो अपने दम पर हो या दूसरों से गठजोड़ की बदौलत. अगर हम चाहते हैं कि चीन हमें गंभीरता से ले, तो वुहान में बने सारे खुशनुमा माहौल के बावजूद हमें ऐसा ही करना होगा.

वरना, भाई-भाई के नारे की वापसी एक बार फिर से खतरनाक साबित हो सकती है.

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