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नाकामी का कबूलनामा था पीएम मोदी का 31 दिसंबर का संबोधन?

पीएम ने पिछले 50 दिनों से दिक्कतें झेल रही जनता को धन्यवाद के कुछ सुंदर शब्दों के सिवा कुछ नहीं दिया.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2 जनवरी को लखनऊ में बीजेपी के यूपी चुनाव अभियान की शुरुआत करेंगे. उम्मीद है कि इस मौके पर वो ‘महत्वपूर्ण’ भाषण भी देंगे. ऐसे में वो चाहते, तो नए साल की पूर्व संध्या पर देश को संबोधित करने से परहेज कर सकते थे. लेकिन उन्होंने 31 दिसंबर को बोलने का फैसला किया.

ऐसे में सहज ही ये उम्मीद की जाने लगी कि वो नोटबंदी के अपने एतिहासिक फैसले का बही-खाता जनता के सामने पेश करेंगे. उम्मीद थी कि वो नोटबंदी के फायदों का ब्योरा ठोस और साफ-साफ नजर आने वाले तथ्यों के साथ सबके सामने रखेंगे.

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पीएम के संबोधन में नहीं हैं जिन सवालों के जवाब:

स्नैपशॉट

कहां हैं नोटबंदी की शुरुआती सफलता के ठोस आंकड़े और सबूत?

9 नवंबर से अब तक सरकार को कितना कालाधन मिला?

15 लाख 44 हजार करोड़ के रद्द नोटों का कितना हिस्सा बैंकों में वापस आ चुका है?

कब खत्म होगी कैश की किल्लत और जनता को कब मिलेगी राहत?

रद्द नोटों का कितना हिस्सा सरकार दोबारा जारी करेगी?

क्या सरकार जनधन खातों में पैसे डालने वाली है?

प्रधानमंत्री राजनीतिक दलों की फंडिंग पर कोई पहल करने में हिचक क्यों रहे हैं?

दो दिन पहले ही एक मंत्री ने कहा था कि सरकार बैंकों में जमा हुए रद्द नोटों के आंकड़े 30 दिसंबर को जारी करेगी. याद रहे कि भारतीय रिजर्व बैंक ने ये आंकड़े 10 दिसंबर के बाद से जारी नहीं किए हैं.

लेकिन प्रधानमंत्री ने इस बारे में मौन रहना ही बेहतर समझा.

अहम सवालों पर लगातार खामोशी

सवाल ये है कि 9 नवंबर से अब तक सरकार को कितना कालाधन मिल चुका है? 15 लाख 44 हजार करोड़ रुपये के रद्द किए गए नोटों का कितना बड़ा हिस्सा बैंकों में वापस आ चुका है? और अगर पूरी रकम वापस आ गई है, तो ये योजना की कामयाबी है या नाकामी? नोटों की किल्लत कब खत्म होगी और सरकार कितने नोट फिर से जारी करेगी?

इन अहम सवालों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी बता रही है कि सारा कालाधन वापस जमा हो चुका है और सरकारी खजाने को वैसा छप्परफाड़ मुनाफा नहीं हुआ है, जिसका ढिंढोरा पीटा जा सके. सरकार को उम्मीद थी और उसके बातों को घुमा-फिराकर पेश करने में माहिर धुरंधरों ने ऐलान भी किया था कि विपक्षी दलों को अपने पास रखे नोटों के ढेर जलाने पड़ेंगे और कालेधन का बड़ा हिस्सा सिस्टम में वापस नहीं आ पाएगा. लेकिन वो वापस आया और पूरे जोर-शोर से आया.

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सरकार दलील दे सकती है कि कैश के बैंकों में जमा होने का ये मतलब नहीं कि वो काले से सफेद हो गया है. पूरे मामले की छानबीन की जाएगी. यानी एक जटिल और लंबे समय तक चलने वाली जांच प्रक्रिया बड़े पैमाने पर शुरू होगी.

आयकर विभाग से नोटिस जारी होंगे, जिन्हें चुनौती दी जाएगी. चूंकि ये पूरा मामला कानूनी दायरे में होगा, इसलिए शायद कभी पता नहीं चल पाएगा कि नोटबंदी के कारण असल में सरकारी खजाने में कितने पैसे आए.

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लोकलुभावन घोषणाएं बनाम यथार्थवादी सोच

सरकार इस हालत में नहीं है कि वो अभी टैक्स वसूली में या सरकारी खजाने में छप्परफाड़ फायदे का दावा कर सके. ये उम्मीद भी झूठी साबित हुई है कि प्रधानमंत्री मोदी करोड़ों जनधन खातों में फौरन कुछ पैसे डाल देंगे. कम से कम उनके भाषण का कुल जमा-हासिल तो यही है. हालांकि ये भी हो सकता है कि उन्होंने कुछ तुरुप के पत्ते अपनी लखनऊ रैली के लिए बचा रखे हों.

प्रधानमंत्री ने सीधे-सीधे जनधन खातों में पैसे डालने की जगह गरीबों के लिए कुछ उपायों का ऐलान किया है. इनमें घरों के लिए सस्ता कर्ज देने और कृषि ऋण पर आंशिक ब्याज माफी से लेकर छोटे कारोबारियों को आसान शर्तों पर पूंजी मुहैया कराने जैसे उपाय शामिल हैं. ये सारी घोषणाएं पिछले 50 दिनों में सबसे ज्यादा मार खाने वाले तबके को थोड़ी राहत देने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं.

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दरअसल, ये राहत की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उतने बड़े पैमाने पर लोगों को लुभाने वाले बड़े ऐलान नहीं किए, जिसकी कुछ लोग उम्मीद कर रहे थे. इससे ये भी साफ है कि सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो बड़ी कल्याणकारी योजनाओं में मोटी रकम लगा सके.

इसका ये मतलब भी निकाला जा सकता है कि गरीबों के लिए घोषित योजनाओं का ढिंढोरा भले ही बड़े पैमाने पर पीटा जाए, उनके लिए भारी-भरकम रकम का इंतजाम शायद ही किया जाएगा. भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी है कि 20-30 हजार करोड़ रुपये की योजनाओं का उस पर कोई खास असर नहीं पड़ता.

खासतौर पर तब, जबकि योजनाओं के लिए रखी गई रकम खर्च करने के मामले में सरकारी मंत्रालयों का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. ऐसे में प्रधानमंत्री ने जिस ‘प्रोत्साहन’ का एलान किया है, वो अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने के लिए काफी नहीं है.

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बैंकों पर कितना भरोसा ?

प्रधानमंत्री के भाषण से ये भी साफ जाहिर है कि वो बैंकों से खुश नहीं हैं, फिर चाहे वो निजी बैंक हों या सरकारी. उन्होंने बैंकों में गड़बड़ी करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी भी दी. लेकिन साथ ही ये भी कहा कि उन्होंने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वो बैंकिंग सिस्टम में जल्द से जल्द सामान्य स्थिति बहाल करें.

उनकी इस बात से जाहिर है कि वो बैंकिंग सिस्टम, नोटों की सप्लाई, गरीबों और छोटे कारोबारियों को मिलने वाले कर्ज और डिजिटल अर्थव्यवस्था की दिशा में बढ़ने की कोशिशों को लेकर चिंतित हैं.

पिछले कुछ हफ्तों के दौरान ई-वॉलेट और यूपीआई से लेकर आधार तक जिस तरह आशंकाओं के बादल मंडराते रहे हैं, उससे ये निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि बैंक अपनी जिम्मेदारियों को तेजी से पूरा करने के मामले में प्रधानमंत्री की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए हैं.

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आंकड़े कहां हैं ?

पीएम के भाषण से देश को ये पता नहीं चल सका कि आंकड़े नोटबंदी के नफा-नुकसान की क्या तस्वीर पेश करते हैं. सभी मानते हैं कि जीडीपी में गिरावट आएगी. जीडीपी में 2 फीसदी की गिरावट का मतलब है 2 लाख 80 हजार करोड़ का नुकसान. अगर ये 3 फीसदी हुई, तो नुकसान 4 लाख 20 हजार करोड़ पर पहुंच जाएगा. जाहिर है, अगर नोटबंदी से होने वाला फायदा इससे कम रहा, तो ये घाटे का सौदा है, बहुत बड़े घाटे का.

मोदी ने अपने भाषण में गरीबों को एक बार फिर बेईमानों के खिलाफ उकसाया. उन्होंने बेईमानों को चेतावनी देते हुए कहा कि कालेधन के खिलाफ जंग जारी रहेगी. लेकिन आगे क्या कदम उठाए जाएंगे, इसका कोई जिक्र नहीं किया.

जमीन, शेयर बाजार, कंपनियां और राजनीतिक दल- ये वो जगहें हैं, जहां कालेधन का बड़ा हिस्सा छिपा है. लेकिन अपने पिछले भाषणों में बेनामी संपत्ति के खिलाफ कार्रवाई की मंशा जाहिर कर चुके प्रधानमंत्री ने अपने ताजा संबोधन में इसका जिक्र तक नहीं किया.

उन्हें शायद अब ये बात समझ आने लगी है कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को बड़ी गहरी चोट पहुंचाई है. ऐसे में कोई नया दुस्साहस महंगा साबित हो सकता है. लिहाजा अभी रुकने में ही भलाई है.

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क्या दूसरों के लिए मिसाल पेश करेंगे पीएम?

राजनीतिक दलों की फंडिंग पर कोई कदम उठाने में प्रधानमंत्री की हिचक सबसे हैरान करने वाली है. शनिवार को उन्होंने इस पर जो कहा, वो जबानी जमाखर्च से ज्यादा नहीं था. लोग उम्मीद कर रहे थे कि वो इस दिशा में पहल करेंगे और उनकी पार्टी आगे बढ़कर कैश में लेन-देन बंद करने और सिर्फ कैशलेस तरीकों से चंदा जुटाने का ऐलान करेगी.

नरेंद्र मोदी अगर ऐसा करते, तो वो बीजेपी के सबसे बड़े नेता के तौर पर गांधीवादी नैतिकता की एक नई मिसाल पेश कर सकते थे, लेकिन इसकी जगह उन्होंने गोलमोल बातें करना पसंद किया.

फिलहाल ऐसा लग रहा है कि माननीय प्रधानमंत्री के मन पर नकारात्मक बातें इस कदर हावी हैं कि उन्होंने पिछले 50 दिनों से दिक्कतें झेल रही जनता को धन्यवाद के कुछ सुंदर शब्दों के सिवा कुछ नहीं दिया.

मोदी जी ने 50 दिन बाद हिसाब देने का वादा तो किया था, मगर निभाया नहीं.

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