जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी, तो उसने राष्ट्रपति शासन लागू करने के हर प्रयास का विरोध करते हुए ऐसी कार्रवाई को चुनी गई सरकार को अस्थिर करने वाला करार दिया था. पर सत्ता में आने के बाद बीजेपी वही करती नजर आ रही है, जिसका वह तब विरोध करती थी.
अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन इस बात का ताजा उदाहरण है.
लगता है कि अभी तक किसी सरकारी नौकरशाह ने प्रधानमंत्री मोदी को चेताया नहीं है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की कोशिश का वही हश्र होगा, जो 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय का हुआ था.
वाजपेयी की बिहार समस्या
करीब 17 साल पहले, या कहें कि फरवरी 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 18 महीने पुरानी राबड़ी देवी की सरकार को कानून-व्यवस्था न संभाल पाने के आरोप में गिरा दिया था.
राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के पीछे तात्कालिक कारण था जहानाबाद जिले में कथित रूप से सवर्ण जमींदारों की निजी सेना- रणवीर सेना द्वारा 12 दलितों की हत्या.
तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में (प्रधानमंत्री वाजपेयी उस समय जमैका में G15 बैठक में हिस्सा ले रहे थे) बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने का निर्णय ले लिया गया.
तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन भी उस समय दिल्ली में नहीं थे. वे पश्चिम बंगाल में एक कार्यक्रम में भाग लेने गए हुए थे. उन्हें भी यह सवाल पूछना पड़ा था कि एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को गिराने की इतनी जल्दबाजी क्यों की गई.
तब बिहार के गवर्नर और जाने-माने आरएसएस नेता सुंदर सिंह भंडारी ने सिफारिश की कि राबड़ी देवी की सरकार कानून-व्यवस्था की रक्षा में पूरी तरह फेल हो गई है, इसलिए इसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए.
राष्ट्रपति शासन भूल क्यों साबित हुआ
- वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 1999 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया.
- 18 महीने पुरानी राबड़ी देवी सरकार पर कानून व्यवस्था न संभाल पाने का आरोप लगाया गया.
- कहा जाता है कि उस समय समता पार्टी के सदस्यों- नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस ने इस निर्णय के लिए दबाव बनाया था.
- माना जाता है कि राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने अनिच्छा से इस आदेश पर हस्ताक्षर किए थे.
- राज्यसभा में एनडीए सरकार के पास बहुमत नहीं था, वहां इस निर्णय को कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी.
राष्ट्रपति शासन लगाने का निर्णय तीन सप्ताह बाद ही वापस लेना पड़ा था.
मास्टरमाइंड नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस
एक बार फिर गृहमंत्री आडवाणी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक हुई और राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद बिहार विधानसभा को सस्पेंडेड एनिमेशन में रखने का निर्णय लिया गया.
सस्पेंडेड एनिमेशन का अर्थ है कि विधायक चुनी हई सरकार के सदस्य तो रहेंगे, पर उनके पास कानून बनाने का अधिकार नहीं होगा.
कहा जाता है कि वाजपेयी मंत्रिमंडल के बिहार के दो सदस्यों- नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस की इस निर्णय के पीछे बड़ी भूमिका थी.
उस समय एनडीए की मुख्य घटक समता पार्टी के सदस्य ये दोनों नेता लालू प्रसाद के कट्टर विरोधी थे और आरजेडी की सरकार को गिराने के लिए मौका तलाश रहे थे.
मंत्रिमंडल के निर्णय से वाजपेयी को अवगत कराया गया और फाइलों को राष्ट्रपति (जो उस समय कोलकाता में थे) के हस्ताक्षर लेने के लिए भेज दिया गया. माना जाता है कि राष्ट्रपति ने इस आदेश पर अनिच्छा से मुहर लगाई थी. सरकार के इस कारनामे का संसद के बाहर और भीतर काफी विरोध हुआ था.
नहीं लिया गया सबक
एनडीए सरकार को जल्द ही अपनी गलती का अहसास हो गया, जब उन्हें याद आया कि उनका निर्णय संसद के ऊपरी सदन में अमान्य कर दिया जाएगा, क्योंकि राज्यसभा में उनका बहुमत नहीं है.
सभी विपक्षी पार्टियों के शोर-शराबे के बाद वाजपेयी ने आडवाणी को सलाह दी कि वे संसद में इस निर्णय को वापस लिए जाने की घोषणा कर दें. मार्च 1992 में राबड़ी देवी फिर से मुख्यमंत्री बनीं. भंडारी को राज्यपाल के पद से हटा दिया गया.
हालिया एनडीए सरकार से अब बस उम्मीद ही की जा सकती है कि वे पिछली घटना से सीखते हुए अपनी सरकार को शर्मसार होने से बचा लें, क्योंकि राज्यसभा में बहुमत इनके पास भी नहीं है.
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