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क्रिकेट में भ्रष्टाचार प्रशंसकों को देता है तकलीफ,सफाई की है जरूरत

फिक्सिंग और भ्रष्टाचार से खेल को नुकसान तो होता ही है साथ ही खेल के दीवाने भी इससे अलग होने लग जाते हैं

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भारतीय क्रिकेट को एक और शॉक लगा है. क्यूरेटर पांडुरंग सलगांवकर ने इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) और भारतीय क्रिकेट बोर्ड (बीसीसीआई) दोनों के रूल्स तोड़े हैं. वो दो पत्रकारों को उस पिच तक ले गए, जहां न्यूजीलैंड के खिलाफ वनडे मैच खेला जाना था. उन्होंने दोनों को बताया कि पिच का नेचर कैसा है. एक जानी-मानी अंग्रेजी साप्ताहिक के स्टिंग ऑपरेशन से पूर्व तेज गेंदबाज और क्यूरेटर सलगांवकर की पोल खुली. इसके लिए पत्रिका की तारीफ होनी चाहिए.

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तूल ना दें और ना ही इग्नोर करें

स्टिंग ऑपरेशन में सलगांवकर की आवाज सुनाई पड़ती है. वह पिच के बारे में रिपोर्टर्स के सवालों के जवाब दे रहे हैं. ऐसी खबरें आई हैं कि सलगांवकर ने पिच के बारे में सूचनाएं देने के लिए रिश्वत मांगी थी. अगर यह सच है तो शर्मनाक है. मेरा मानना है कि इस मामले को अधिक तूल नहीं देना चाहिए, लेकिन इग्नोर भी नहीं किया जाना चाहिए. इंसान में कुछ बुनियादी कमजोरियां होती हैं. सलगांवकर प्रकरण इसकी तरफ इशारा करता है. इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय क्रिकेट किसी गहरे संकट में है.

मैच फिक्सिंग से क्रिकेट को हुआ नुकसान

देश में साल 2000 में पहली बार मैच फिक्सिंग का मामला सामने आया था. उसके बाद से इससे निपटने की जो पहल हुई हैं, मैं निजी तौर पर उनसे वाकिफ हूं. तब भारतीय क्रिकेट टीम के कैप्टन मोहम्मद अजहरूद्दीन का नाम मैच फिक्सिंग स्कैंडल में जुड़ा था, जिसकी उन्होंने भारी कीमत चुकाई और उनके दोबारा क्रिकेट खेलने पर रोक लगा दी गई थी. हालांकि, बाद में तकनीकी कारणों की वजह से उन्हें अदालत ने इस मामले में आरोपमुक्त कर दिया.

तब मैं सीबीआई डायरेक्टर था. मेरी ही देखरेख में अजहर मैच फिक्सिंग मामले की जांच हुई थी. मैं अंडरवर्ल्ड और भारतीय क्रिकेटरों के रिश्तों से दंग रह गया था. आखिर, हमारे क्रिकेटरों को पैसों की कमी नहीं थी. इस स्कैम से दुनिया भर के क्रिकेट प्रशंसकों और एडमिनिस्ट्रेटर्स को भी झटका लगा था.

उसके बाद से मैच देखते वक्त हर किसी के मन में मैच फिक्सिंग का खटका लगा रहता, जो सबसे बड़ी त्रासदी थी. साल 2000 स्कैंडल के बाद से खुद मेरी दिलचस्पी गेम में काफी कम हो गई.

क्यों चुप हैं सलगांवकर?

अभी मेरे मन में कई सवाल हैं. क्या पुणे में जो हुआ, वह इक्का-दुक्का मामला है या यह देश भर में फैली समस्या का छोटा हिस्सा है? हमें पता लगाना होगा कि सलगांवकर अकेले यह काम कर रहे थे या इसमें दूसरे लोग भी शामिल हैं? पता लगाना होगा कि वह बेईमान हैं या उनके मुंह से ये बातें यूं ही निकल गईं. इसकी जांच होनी चाहिए. इस मामले के खुलासे के बाद सलगांवकर चुप हैं. यह चौंकाने वाली बात है. क्या यह उनके दोषी होने की निशानी है? उन्हें अपनी बात रखने का मौका देना चाहिए, ताकि इंसाफ हो सके.

पुणे एपिसोड से पता चलता है कि जिस तरह हमारी जिंदगी के दूसरे हिस्सों से करप्शन को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता, वैसा ही क्रिकेट के जादुई खेल के साथ भी है. इसलिए हमें ऐसा सिस्टम बनाने पर ध्यान देना चाहिए, जिससे ऐसे मामलों को कम किया जा सके.

दोषियों को तुरंत सजा मिले

आईसीसी और बीसीसीआई की भ्रष्टाचार-विरोधी इकाइयों में काम करने वालों की संख्या बहुत कम है. इसलिए उनके करिश्मे की उम्मीद नहीं की जा सकती. ऐसी गलती करने वालों को तुरंत सजा मिलनी चाहिए, जिससे वे दोबारा ऐसा ना कर सकें. इसमें अपराध की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करने को कहा जा सकता है.

हर लेवल पर क्रिकेटरों और अधिकारियों की मेंटरिंग होनी चाहिए. अभी भी यह काम हो रहा है. क्या इस प्रोसेस को और बेहतर बनाया जा सकता है, इस बारे में सोचने की जरूरत है. इसके लिए आईसीसी और बीसीसीआई मिलकर काम कर सकते हैं. इन सबके बीच मीडिया को वॉचडॉग की भूमिका निभाते रहनी चाहिए. वह उस काम को बखूबी कर भी रहा है.

(डॉ. आर.के. राघवन सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं. यह एक विचारात्मक लेख है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है ना ही इनके लिए जिम्मेदार है.)

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