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पंजाब में 'बेअदबी' : चुप्पी और ध्यान भटकाने से कैसे सामान्य हो जाती है लिंचिंग!

राजनीतिक दल लीचिंग जैसे मामले में कार्रवाई या सख्त एक्शन लेने की बजाय चुप्पी साध लेते हैं.

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आइए इस तरह की सामान्य कहानी या प्रथा को नकारना शुरु करते हैं :- पालघर (Palghar) जिले में साधुओं की लिंचिंग और दादरी (Dadri) में मोहम्मद अखलाक दोनों ही निंदनीय और शर्मनाक हैं. ये न तो न्यायसंगत है, न ही इसके लिए किसी युक्तिकरण की आवश्यकता है, क्योंकि कानून को हाथों में नहीं लिया जा सकता है. यहीं पर बात खत्म हो जाती है. सीधे शब्दों में कहें तो यह जंगलीपन या vigilantism को दर्शाता है जिसमें लोग बर्बर तरीके से कानून को अपने हाथों में ले रहे हैं, इनमें से कोई भी उचित नहीं है. अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में गुरु ग्रंथ साहिब को अपवित्र करने के प्रयास में भीड़ द्वारा एक व्यक्ति की हत्या करने के एक दिन बाद, पंजाब के कपूरथला जिले में सिख ध्वज का अनादर करने के लिए एक अन्य व्यक्ति को लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला.

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हमारे लिए सभी के जीवन का मूल्य एक जैसा नहीं है

कट्‌टरपंथी तत्व लिंचिंग जैसे हर मामले के बाद ‘whataboutery’ यानी ध्यान भटकाना या मुद्दा बदलने जैसी तकनीक का सहारा लेने के अभ्यस्त हो चुके हैं. सफलतापूर्वक यह सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाली प्रथा बन गई है जिसकी वजह से हम लिंचिंग की बर्बरता को अलगाववादी या कट्‌टरपंथी नजरिए के परे नहीं देख पाते हैं.

चिंताजनक रूप से हमने पीड़ित के धर्म / जातीयता / राजनीतिक संबद्धता, या किसी अन्य सांस्कृतिक 'विभाजन' के आधार पर मानव जीवन के मूल्य में असमानता को सामान्य करना शुरू कर दिया है. इस तरह का ध्रुवीकरण और भेदभावपूर्ण रवैया सऊदी अरब जैसी सत्तावादी संस्कृतियों में दीया या दीयात (ब्लड मनी) की अवधारणा के समान है, जहां जीवन या मृत्यु का मूल्य व्यक्ति के धर्म पर निर्भर करता है.

दिशात्मक नजरिए के तौर पर देखें तो दुनिया की सबसे बड़ा लोकतंत्र, मध्य पूर्व के घुटनवाले रूढ़िवादी, बुहसंख्यकवादी शेखों के शासन की तरह इसका सामान्यीकरण नहीं कर सकता, ना हीं इस दिशा में बढ़ सकता है. ऐसे समाज में जमाल खशोगी जैसी विरोधी सुर वाले व्यक्ति को किसी दूसरे देश में उठा लेना, उसके बाद उसका गला घोंटना, उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करना और उसके कटे हुए शरीर को तेजाब में डालना एक आम बात हो सकती है.

जब कोई समाज 'दूसरों' (ऐतिहासिक प्रतिशोध के नाम पर) के लिए बर्बरता स्वीकार करता है, तो वह गलती से या अनजाने में सभी के लिए बर्बर हो जाता है.

नियंत्रण रेखा (LoC) के पार पाकिस्तान में 1980 के दशक में जनरल जिया की शरियाकरण की परियोजना की शुरुआत के साथ असहिष्णुता की ओर दौड़ में पाकिस्तान ने भारत को पीछे छोड़ दिया था. शरियाकरण प्रोजेक्ट साथ ही वहां के समाज में रेविज्निज्म (societal revisionism), प्यूरेटेज्निम (puritanism) और 'अन्य' (‘othering’) की अपरिवर्तनीय श्राप का बीज बाेया गया था.

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पीड़ितों की सबसे बड़ी संख्या 'अन्य' समूह में है

आज के दौर में लिंचिंग एक स्वाभाविक समर्थक अपराध है, जिसमें अधिकांश पीड़ित 'अन्य' नागरिक हैं. बिना सोचे समझे धार्मिक असहिष्णुता के राक्षस ने हाल ही में पाकिस्तान में एक श्रीलंकाई प्रवासी की भयानक लिंचिंग की. झूठी संवेदनाओं और ढोंगों के साथ-साथ दोनों तरफ के राजनेताओं ने धर्म को राजनीति में मिलाया और जानबूझकर तथाकथित "कट्टरवादी तत्वों" को खास तरीके से संदेश देकर और ईको चैंबर (एक ऐसा वातावरण दिया जिसमें एक व्यक्ति केवल उन विश्वासों या विचारों का सामना करता है जो उनके स्वयं के साथ मेल खाते हैं) प्रदान करने का काम करते हुए महौल में जहर घोलने का काम किया. उस समय जब परिस्थिति स्पष्ट निंदा और कार्रवाई की मांग करती है तब या तो वे मुंह फेर लेते हैं या चुप्पी साध लेते हैं.

विभाजनकारी या पक्षपातपूर्ण राजनीति में मौन या चुप्पी एक उत्कृष्ट साधन है, जो कैडरों को गलत तरीके से जारी रखने के लिए राजी करता है. अगर आधिकारिक तौर पर यदि सच को उजागर कर दिया जाता तो यह प्रशंसनीय होता, लेकिन चूंकि प्रधानमंत्री 'तालिबान खान' धार्मिक उग्रवाद से निपटने के लिए खुद को काफी एक्टिव बता रहे हैं और इसे रोकने की बात कर रहे हैं. लेकिन अब न केवल उन्हें आतंकवाद के वित्तपोषण के लिए FATF अधिकारियों की बदनामी का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि इसमें लिंचिंग के आंकड़े भी जुड़ रहे हैं.

जिस तरह से भीड़ द्वारा मारे गए श्रीलंकाई व्यक्ति के जलते शरीर के आस-पास खड़े होकर सैकड़ों लोगों ने बड़े ही उल्लास के साथ सेल्फियां लीं जबकि वहां पुलिस असहाय होकर खड़ी रही. इससे सामान्य पाकिस्तानी को डराना चाहिए, फिर चाहे भले ही उसका सामाजिक संप्रदाय कुछ भी हो.

उपमहाद्वीप के प्राचीन साम्राज्यों के और इसके अपेक्षाकृत नए राष्ट्रों का राजनीति में धार्मिकता का एक जटिल और निर्विवाद इतिहास रहा है. कुछ मान्यताएं ऐसी होती हैं जिनमें वास्तविक या काल्पनिक दोष रेखाएं होती हैं जिन्हें ठीक करने की आवश्यकता होती है. इन्हें चुनावी उद्देश्यों के लिए सरकार या राजनेताओं द्वारा उठाना या कुरेदना नहीं चाहिए. जबकि इसके दूसरी ओर ये अचेतन दोष, राजनीतिक सोने की खदानें हैं जिनका सभी राजनीतिक दलों द्वारा नियमित रूप से दुरुपयोग किया गया है.

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राजनेता उठाते हैं फायदा

पाकिस्तान या भारत की तुलना में बांग्लादेश और उसके राजनेताओं (अपनी खामियों के बावजूद) ने धर्म से ऊपर उठकर सामाजिक-आर्थिक विकास पर जोर देने का बेहतर काम किया है. तीन देशों (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में बांग्लादेश सबसे युवा है लेकिन उसने प्रति व्यक्ति आय, विकास और कई अन्य सामाजिक संकेतकों के मामले में भारत और पाकिस्तान को पीछे छोड़ दिया है.

भारत में आने वाले राज्यों के चुनावों और इसकी 'निर्मित भावनाओं' को प्रभावित करने वाली बहसों, आकांक्षाओं और कारकों पर एक सरसरी नजर से हमें यह बताना चाहिए कि क्या हम वास्तव में उन मुद्दों पर विकास को प्राथमिकता देते हैं जिनमें राज्य के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, जैसे कि व्यक्तिगत विश्वास आदि.

जमात-बीएनपी गठबंधन की दुर्गा पूजा बर्बरता (जो धर्म और राजनीति को जोड़ती है) की हालिया खबरों के बावजूद, बांग्लादेश में लिंचिंग के बहुत कम मामले हैं क्योंकि यह देश धर्म और राजनीति को अलग करता है और ऐसा करने वालों को दंडित करता है. बांग्लादेश की एक अदालत ने हाल ही में छह छात्रों की पीट-पीट कर हत्या करने के आरोप में 13 लोगों को मौत की सजा और 19 लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है, जिससे यह स्पष्ट संदेश जाता है कि किसी भी गलत काम या उल्लंघन का मुकाबला करने के लिए समाज की ओर से हिंसा का उपयोग करने का अधिकार केवल कानून प्रवर्तन एजेंसी के पास है.

धार्मिक पुनरुत्थान, उत्पीड़न और यहां तक कि बेअदबी भी नागरिकों को कानून को अपने हाथों में लेने के लिए प्रेरित और सशक्त कर रही है. वहीं इन परिस्थितयों में राजनेता खामोश रहते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि आधिकारिक तंत्र भी चुप रहे.

आखिरकार चुनावी फसल को मतभेद और जोश के साथ ही काटा जाना है. लोकतंत्र में राजनेताओं द्वारा जानबूझकर इस तरह के मतभेद घुसाये जाते हैं जो विभिन्न संस्थानों और संवैधानिक जनादेश को कमजोर करते हैं. इसकी वजह से एक सहभागी लोकतंत्र में जांच और आंकलन की तारें कमजोर होती है.

राजनीतिक वर्ग की 'दिखावटी तौर पर नैतिक' (‘holier than thou’) बनने की लड़ाई किसी हास्यास्पद तमाशे से कम नहीं है. इसका सीधा शिकार जनता बनती है, वह राजनेताओं के दिखावे के आधार पर महत्वपूर्ण निर्णय लेती है. इन सबके बीच 'विकास' कहीं गुम हो जाता है! ऐसे समय में मजबूत विभाजनकारी शक्तियां भीड़तंत्र के कृत्यों के लिए आवश्यक कवर और अनुकूल माहौल तैयार करती है. इसके बाद अक्सर भयानक क्षण तब आता है जब लिंचिंग को भी सामान्य और स्वीकृत किया जाता है.

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काफी बेहतर है 'आइडिया ऑफ इंडिया'

पावर यानी सत्ताधारियों द्वारा दिए गए गुप्त समर्थन का परिणाम है लिंचिंग. क्या इस भावना को और भी ज्यादा बढ़ावा मिलना चाहिए? अगर सरकार जमीनी स्तर पर स्थानीय मशीनरी को कानूनी तरीके से इससे निपटने के लिए छूट देती है तो इस तरह की जानलेवा प्रवृत्तियां अपने आप समाप्त हो जाएंगी.

प्रशासनिक रूप से ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए राज्य मशीनरी के पूर्ण प्रभाव और क्षमता को कम आंका जाता है. इसके साथ ही विडंबना यह भी है कि इसे उस स्तर तक कम करके आंका जाता है जहां उपद्रवियों को प्रोत्साहित किया जाता है.

सरकार के उच्चतम स्तरों से एक या दो तटस्थ सार्वजनिक बयान जिम्मेदार लोगों पर स्पष्ट रूप से उंगली उठाने, उन्हें तुरंत न्याय दिलाने और किसी भी प्रकार के कॅन्टेस्ट (संदर्भ) / ‘whataboutery’ यानी ध्यान भटकाने या मुद्दा बदलने वाले किसी भी व्यक्ति को अस्वीकार करने के लिए आवश्यक हैं. लेकिन क्या यह हमारी संघीय समाज में राजनीतिक विभाजन के पार हुआ है?

गहन सभ्यतागत और नैतिक 'भारतीय विचार', विशेष रूप से धर्म के नाम पर लिंचिंग जैसे घृणित अत्याचारों को जानबूझकर सामान्य बनाने से कहीं बेहतर है.

(लेफ्टिनेंट जनरल भूपेंदर सिंह (रिटायर्ड) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट ना तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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