आखिर हालिया विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की अगुआई वाले महागठबंधन की धमाकेदार जीत की क्या वजह थी? विश्लेषक इसके लिए न जाने कितने कारक गिनवा देंगे—बीजेपी का नकारात्मक चुनाव अभियान, आरएसएस प्रमुख का आरक्षण पर बयान, विकास पुरुष के रूप मे नीतीश की छवि और लालू प्रसाद और जेडीयू के बॉस के बीच बेहतर तालमेल, उनमें से महज कुछ ही हैं.
हालांकि इसमें एक तथ्य बगैर नोटिस के रह जाता है. वह है महिलाओं के बीच नीतीश को मिला समर्थन. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसायटी के सर्वे के मुताबिक, महागठबंधन ने अपने प्रतिद्वन्द्वी गठजोड़ के मुकाबले 9 फीसद अधिक महिला वोट हासिल किए. यही बात अंतर पैदा करने वाली रही.
नीतीश को मिला महिला शक्ति का साथ
महिलाओं के बीच नीतीश को मिला पुरजोर समर्थन महज लड़कियों के लिए साइकिल योजना की वजह से नहीं है. मुमकिन है कि बिहार के मुख्यमंत्री को यह जरा भी इल्म न हो कि उनके एक फैसले की वजह से उनकी पार्टी और सूबे को कितना ज्यादा फायदा हुआ है— पंचायतों में 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित करने का फैसला.
बिहार ही पहला सूबा है, जिसने स्थानीय निकायों में साल 2006 में ही महिलाओं के लिए आधी सीटें आरक्षित कर दीं और उसके बाद 14 और राज्यों ने भी ऐसा ही किया. इसी एक फैसले ने, जो उस वक्त महज प्रतीकात्मक कदम नजर आ रहा था, राज्य में ऐसे बदलाव की बयार बहा दी, जिसका तजुर्बा बिहार को कभी नहीं हुआ था. पंचायतों में महिलाओं के बढ़ते प्रतिनिधित्व का यही रुझान पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी कई बदलाव लेकर आया है.
आंकड़े दे रहे हैं गवाही
कुछ तथ्यों पर ध्यान दीजिए. पिछले दशक में बिहार और यूपी में शादी की औसत उम्र में बढ़ोतरी उतनी ही है, जितनी उससे पहले के चार दशकों में हुई है. दोनों राज्यों में शादी की औसत उम्र अब केरल और तमिलनाडु जैसे अगड़े राज्यों जैसी ही हो गई है.
अतीत के इन पिछड़े राज्यों (जिनको अब शक्तिसंपन्न कार्यकारी समूह राज्य कहा जाने लगा है) में देर से हो रही शादियों ने यूपी में बढ़ती आबादी पर लगाम लगाई है. उत्तर प्रदेश में 2001 से 2011 के बीच दशकीय जनसंख्या वृद्धि 6 प्रतिशत बिन्दु तक घटी है, जबकि बिहार में यह दर 3.5 प्रतिशत बिन्दु तक घटी है. वृद्धि दर में आई यह कमी 1951 के बाद से पहली बार हुई है.
यही वह दौर है, जब इन दोनों ही राज्यों में शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में भारी कमी आई है और गर्भनिरोधकों का प्रयोग बढ़ा है. बिहार के मामले में, शिशु मृत्यु दर साल 2000 में 64 से घटकर 2012 में घटकर 43 हो गई है. यह तकरीबन 33 फीसद का सुधार है. इसी अवधि में यूपी में शिशु मृत्यु दर 84 से घटकर 53 हो गई है. जनांकिकी के जानकार तर्क देते हैं कि घटा हुआ शिशु मृत्यु दर छोटे परिवारों को बढ़ावा देता है.
सकारात्मक सामाजिक बदलाव
- बिहार और यूपी में शादी की औसत उम्र केरल और तमिलनाडु जैसे अगुआ सूबों के लगभग बराबर.
- देर से हो रही शादियों की वजह से यूपी में प्रजनन में आई कमी.
- बिहार और यूपी में वृद्धि दर में आई कमी 1951 के बाद पहली बार हुई है.
- दोनों राज्यों में शिशु मृत्यु दर में कमी आई है और गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल बढ़ा है.
- इस अहम बदलाव की एक बड़ी वजह महिला सशक्तिकरण हो सकती है.
गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल और देर से हो रही शादियां, ये दोनों वजहें देश में आबादी की वृद्धि दर को थामने में बेहद कारगर साबित हुई हैं. दोनों पिछड़े राज्यों द्वारा बाकी देश के औसत को छूने की यह घटना बताती है कि भारत के इन दोनों बड़ी आबादी वाले राज्यों में कुछ खास तो हुआ है. खासकर देहातों में यह बदलाव अधिक दिख रहा है.
पंचायतों में अधिक महिलाएं
इस बदलाव को किसने हवा दी? इस खास सीधे बदलाव के पीछे जाहिर है, पंचायतों में महिलाओं की बढ़ती तादाद और उससे हुआ महिला सशक्तिकरण ही वजह है. इसी महीने में यूपी में 44 फीसद महिला प्रधान चुनी गई हैं, यानी यह एक दशक पहले के आंकड़े से 5 प्रतिशत अधिक है.
इसी तरह, बिहार में पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के अनुपात बढ़ा है और यह 2001 के तकरीबन शून्य से पांच साल बाद 55 फीसद तक बढ़ गया. यह अनुपात उसके बाद से यही रहा है. यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर भी, पिछले 15 साल में अधिक से अधिक महिलाएं स्थानीय निकायों में चुनकर आ रही हैं.
साल 2001 में 27 फीसद के आंकड़े से पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं का अनुपात बढ़कर साल 2007-08 में 37 फीसद तक पहुंच गया है. आखिरी आंकड़े बताते हैं कि देश में यह संख्या कुल मिलाकर तकरीबन 44 फीसद के आसपास है.
स्कूलों में बढ़ती लड़कियों की संख्या
बिहार और यूपी के ग्राम पंचायतों में बहुत सारी महिलाओं ने यह सुनिश्चित किया है कि बच्चियां स्कूल जरूर जाएं. दुनिया-जहान की जानकारी से उनमें अपने अधिकारों के बारे में जागरूकता आती है. इससे शादियों की उम्र में बढ़ोतरी देखी जा रही है. गर्भनिरोधकों के बारे में जागरूकता ने यह तय किया है कि वह अब खुद को ढेर सारे बच्चों को पालने-पोसने के लंबे वक्त खपाऊ बोझ से बच गई हैं.
इस तरह, महिलाएं सशक्तिकरण के ऐसे बदलावों की वजह से खुद को लेकर पहले से अधिक आश्वस्त हैं. हालांकि अभी लंबा सफर बाकी है, लेकिन शुरुआत तो हो ही चुकी है. कोई हैरत की बात नहीं कि उस पुरुषों को, जिसने महिला सशक्तिकरण के इस लंबे सफर का पहला कदम उठाया है, उसे महिलाओं के वोट ने रेकॉर्ड तीसरे कार्यकाल का तोहफा दिया है.
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं)
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