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क्यों सीलबंद हुए झूठ?राफेल के साए में जरूरी थी मोदी-गोगोई मुलाकात?

सीलबंद लिफाफे में सरकार का जवाब अब तक गोपनीयता, राष्ट्रहित का प्रतीक था, लेकिन अब इस पर संशय बढ़ेगा

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सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार (या किसी भी सरकार) का जवाब. अब तक यह उच्चस्तरीय गोपनीयता का प्रतीक था, राष्ट्रहित और संवेदनशीलता के प्रति चिन्ता का प्रतीक था.

मगर, 14 दिसंबर के बाद ऐसा नहीं रहा. यह सुप्रीम आंखों में धूल झोंकने का प्रतीक बन गया है, उच्चस्तरीय मामले की लीपापोती की कोशिश बन गयी है. इसने एक सवाल को जन्म दिया है क्या सीलबंद लिफाफे में झूठ की ज़ुबान होती है?

सुप्रीम कोर्ट ने 14 दिसम्बर को राफेल मामले में याचिकाओं का निस्तारण करते हुए जो आदेश सुनाया है, उसने सीलबंद लिफाफे के मजमून की पोल खोल कर रख दी है. इस मजमून पर सुप्रीम कोर्ट ने आंखें बंद कर विश्वास किया. कहने की ज़रूरत नहीं कि देश भी सुप्रीम कोर्ट पर आंखें बंद कर विश्वास करता आया है. जनता सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम आंखें समझती-मानती आयी है.

सुप्रीम कोर्ट पर विश्वास करने के कारण ही राहुल गांधी और उनके समर्थकों के पास बीजेपी के इस सवाल का जवाब नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट से क्या ऊपर हैं राहुल गांधी? ऐसे प्रश्न खुद ही जवाब होते हैं और प्रश्नकर्ता के मन के अनुकूल होते हैं. क्या ऐसे प्रश्नों से वे प्रश्न दब सकते हैं जो सीलबंद लिफाफे में बदबूदार झूठ से पैदा हो रहे हैं?

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सुप्रीम आंखें जो देख सकीं वह शब्दों में सुप्रीम आदेश का हिस्सा इस रूप में बना है,

“कीमत का विवरण, बहरहाल, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (आगे से ‘सीएजी’ के रूप में संदर्भित) से साझा किए गये हैं और सीएजी की रिपोर्ट का परीक्षण लोक लेखा समिति (आगे से ‘पीएसी’ के रूप में संदर्भित)” ने किया है. केवल रिपोर्ट का संशोधित हिस्सा ही संसद में रखा गया और यह सार्वजनिक डोमेन में है.’’

देखें वीडियो- राफेल के बारे में आपको क्‍या जानना है? हम सब बता रहे हैं

पीएसी प्रमुख हैं मल्लिकार्जुन खड़गे. उनको पता नहीं है कि राफेल पर सीएजी रिपोर्ट उन्हें मिली है. उस रिपोर्ट का परीक्षण करना तो बहुत दूर की बात है. मल्लिकार्जुन खड़गे ने राहुल गांधी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेन्स करते हुए इसे ‘झूठ’ बताया है.

उन्होंने कहा है कि वे पीएसी के मेम्बरों से आग्रह करने वाले हैं कि अटार्नी जनरल को बुलाया जाए. उन्होंने सीएजी के प्रमुख से भी पूछताछ करने की बात कही है कि आखिर कब यह रिपोर्ट सदन में रखी गयी.

साफ है कि सीलबंद लिफाफे में तीन झूठ सच की तरह पेश किए गये-

  • एक, राफाल डील से जुड़ी कीमत का विवरण सीएजी से साझा किए गये.
  • दूसरा, सीएजी का परीक्षण लोक लेखा समिति ने किया.
  • तीसरा, सीएजी रिपोर्ट का संशोधित हिस्सा सदन में रखा गया, जो पब्लिक डोमेन में है.

क्या ऐसे ही झूठ को थोपने के लिए केंद्र सरकार ने सीलबंद लिफाफे में जवाब देने की इजाजत सुप्रीम कोर्ट से मांगी थी? सवाल और भी पैदा होते हैं-

सीलबंद लिफाफे में संवेदनशील तथ्य किसे माना जाए- राफेल से जुड़े तथ्यों को, जिनके सार्वजनिक होने से देश का हित प्रभावित होने वाला था? या उन तथ्यों से जुड़े झूठ को, जो सत्य को दबाने के लिए संवेदनशील बनाकर लिफाफे में सीलबंद किए गये?

सवाल तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की मुलाकात पर भी उठेंगे. मुलाकात से 20 दिन बाद एक ऐसा सुप्रीम फैसला आया है, जिससे दोनों जुड़े हुए हैं. एक सरकार का मुखिया हैं, दूसरा राफेल पर फैसला देने वाले सुप्रीम पीठ के प्रमुख. संविधान दिवस के मौके पर एक यथोचित परम्परागत नैतिकता का पालन करना जरूरी नहीं समझा गया.

प्रधानमंत्री के सुप्रीम कोर्ट नहीं जाने की परम्परा यूं ही नहीं रही है. इस परम्परा के पीछे कोशिश रही है कि कार्यपालिका के दबाव की आंच सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंचे. पीएम और सीजेआई की अकेले में मुलाकात! यह भी टाली जा सकती थी. इसकी जरूरत तो कतई नहीं थी. खासकर तब जब राफेल जैसे मुद्दे पर फैसला आना था.

यह हरगिज नहीं माना जा सकता कि कार्यपालिका प्रमुख और न्यायपालिका प्रमुख अनजाने में मिले हों या नहीं मिलने की परम्परा या नैतिकता से अनजान रहे हों. फिर इसकी परवाह उन्होंने क्यों नहीं की?

अब सवाल ये नहीं है कि राहुल गांधी सुप्रीम कोर्ट से ऊपर हैं या नहीं क्योंकि इस सवाल का जवाब तो असंदिग्ध है. सुप्रीम कोर्ट से ऊपर इस देश में कोई नहीं है. सवाल ये है कि झूठ के आधार पर सच की बुनियाद रखने की कोशिश से पीड़ित कौन होगा? क्या कोई न्यायिक फैसला झूठ के आधार पर टिका रह सकता है? सीलबंद लिफाफे का प्रचलन और इसका अस्तित्व ही अब सवालों के घेरे में है.

(प्रेम कुमार जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्‍व‍िंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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