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इकनॉमिक सुपरपावर बनना है तो आत्मनिर्भर भारत के साथ TRUST चाहिए

इस समय आत्मनिर्भर भारत की चारों ओर चर्चा है जिसे कोई संरक्षणवाद बता रहा है, तो कोई स्वावलंबन का प्रतीक.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शब्दों के पहले अक्षरों से नए शब्द गढ़ने के शौकीन हैं जिन्हें एक्रोनिम्ज कहा जाता है. उनके ऐसे शब्द वायरल हो जाते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि वह ऊर्जा से भरे हुए और अविश्वसनीय तरीके से उनका प्रचार करते हैं. इस समय आत्मनिर्भर भारत की चारों ओर चर्चा है जिसे कोई संरक्षणवाद बता रहा है, तो कोई स्वावलंबन का प्रतीक.

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संरक्षणवाद की दुहाई देने वाले आलोचक पचास से सत्तर के दशक की याद दिलाते हैं- जब भारत एक गरीब देश था. यहां व्यापार करना आसान नहीं था, चूंकि भारत अपनी अक्षम अर्थव्यवस्था के कारण खुद पर भरोसा नहीं करता था.

दूसरी तरफ प्रशंसक इस निराशा को नकारते हुए कहते हैं कि मोदी एक नए भारत का आह्वान कर रहे हैं. चीन से मुकाबले के लिए ऐसे राष्ट्रवादी नुस्खे की जरूरत भी है ताकि हम आर्थिक महाशक्ति बन सकें- चूंकि यह हमारी नियति है. 

सच्चाई क्या है? हम पचास के दशक की तरफ लौट रहे हैं या 2050 की ओर मजबूती से बढ़ रहे हैं

मेरे दोस्त, इसका जवाब देना बहुत आसान है. इसमें कोई शक नहीं कि आत्मनिर्भर भारत में नेहरू के दौर की आर्थिक सोच की गूंज सुनाई देती है:

  • पचास के दशक में नेहरू/महालनोबिस की जोड़ी ‘इंफेन्ट इंडस्ट्रीज़’ की हिमायती थी. अब 2020 में मोदी/सीतारमन ‘चैंपियन सेक्टर्स’ बनाने पर जोर दे रहे हैं. इन जोड़ियों की अपनी-अपनी दलील थी. उनका कहना था कि विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा कुछ उद्योगों को लील सकती है. इसलिए हमें उन्हें ‘संरक्षण’ देना चाहिए- टैरिफ, कोटा, आयात पर पाबंदी/लाइसेंस और सबसिडी की मदद से.
  • इन दोनों जोड़ियों के तरीकों में काफी समानता है. अगर हमारे टीवी और मोबाइल फोन मैन्यूफैक्चरर्स कोरियाई और चीनी आयातों की मार सह रहे हैं तो आयात शुल्क को बढ़ा दिया जाए. इससे हमारे घरेलू व्यापारियों को फायदा होगा. या आयात लाइसेंस जरूरी होगा. जिससे युवाओं को एक निश्चित सीमा तक विदेशी वस्तुएं उपलब्ध हों. यह नेहरू/इंदिरा का मॉडल था जिसे मोदी/सीतारमन ने अपनाया है.
  • अगर आपको पूंजी जुटाने में दिक्कत हो रही है तो एक चीज होती है, डायरेक्ट लेंडिंग. प्राथमिक क्षेत्र के लिए निम्न ब्याज दर पर प्रिफरेंशियल कैपिटल एलोकेशन, वैधानिक गारंटी, ‘बैड लोन थ्रेशहोल्ड्स’ से छूट- आप नाम लेते जाएं, हमारे पास सब कुछ है.
  • अगर इससे भी काम नहीं चलता तो डायरेक्ट कैश से बेहतर क्या होगा? मोदी/सीतारमन इसे पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इनसेंटिव) कहते हैं, नेहरू/इंदिरा के पास दूसरे तरीके की योजनाएं थीं- ड्यूटी ड्रॉबैक्स, ईपीसीजी (एक्सपोर्ट प्रमोशन कैपिटल गुड्स स्कीम), एक्साइज रीफंड, रियायती दर पर ऋण वगैरह- इस तरह निर्यातकों को कैश सबसिडी दी जाती थी. इंतजार कीजिए कि मोदी/सीतारमन कब पीएलआई के दूसरे स्वरूप की घोषणा करेंगे- मुझे पूरी उम्मीद है कि जल्द इस एक्रोनिम के एक-एक अक्षर के नए अर्थों का खुलासा होगा और नई योजना सामने आएगी.
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लेकिन, मैं यहां कुछ बेजा बात कर रहा हूं. बेशक, दोनों मॉडल्स की सतह में संरक्षणवाद के बीज दबे हुए हैं, इसे लेकर नेहरू/इंदिरा की दलील रक्षात्मक थी. पचास के दशक में हमारा देश छोटा और कमजोर था. इसके विपरीत, मोदी/सीतारमण की मुद्रा आक्रामक है. आज हम मजबूत अर्थव्यवस्था हैं. इसलिए संरक्षणवाद का नतीजा एकदम अलग होने वाला है. जैसे स्टेरॉइड्ज किसी मरते हुए मरीज (पचास के दशक की अर्थव्यवस्था) को भले न बचा पाएं लेकिन एक ताकतवर पहलवान को ओलंपिक में मेडल दिलवा सकते हैं, जो कि हम आज हैं( जीडीपी 2.5 ट्रिलियन डॉलर और विदेशी मुद्रा भंडार 0.5 ट्रिलियन डॉलर).

तो क्या मोदी/सीतारमन का संरक्षणवाद हमें सफलता दिलाएगा?

शायद नहीं, क्योंकि एक संरक्षित अर्थव्यवस्था, लालफीता शाही और भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी, नौकरशाहों के संशय और विवेक के साथ कभी पनप नहीं सकती. उसे निशाना बनाना सबसे आसान है.

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आत्मनिर्भर भारत देश को महाशक्ति बनाए, जो कि उसकी नियति है.

एक बात सबसे जरूरी है- आत्मनिर्भर भारत को TRUST के साथ हाथ मिलाना होगा. ये TRUST क्या है- आइए, इस एक्रोनिम को समझें

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T...फॉर ट्रस्टिंग मार्केट फोर्सेस (बाजार की शक्तियों पर भरोसा)

भारत के नौकरशाह हमेशा रेगुलेटेड मार्केट पर संदेह करते रहे हैं. इसीलिए वे नतीजों को माइक्रो मैनेज करते रहे हैं. जानिए कि कैसे:

  • एक संस्था है, मुनाफाखोरी रोधी प्राधिकरण. इसका काम यह है कि नए जीएसटी रेजीम से होने वाले ‘सुपर प्रॉफिट्स’ को कॉरपोरेट्स से उलीचा जा सके. क्या आपको विश्वास होगा? क्या सरकारी अधिकारी एक फ्री मार्केट में व्यापार करने वाली कंपनियों के ‘सुपर प्रॉफिट्स’ को कैलकुलेट कर सकती हैं? इसलिए नतीजा क्या होता है-अजीबो गरीब किस्म के जुर्माने, लीगल फीस, वसूलियां और भ्रष्टाचार. दूसरी तरफ अगर आप सचमुच प्रतिस्पर्धी बाजार तैयार करना चाहते हैं तो ‘सुपर प्रॉफिट्स’ अपने आप गायब हो जाएंगे, पर यह हमारे नीति निर्धारक कब समझेंगे?

  • अब यह देखिए कि उन्होंने हमारी ई-कॉमर्स नीति में क्या गड़बड़झाला किया है. इसे ‘मार्केट प्लेस मॉडल’ कहा जाता है. इनके अंतर्गत अमेजन और वॉलमार्ट जैसी विदेशी कंपनियां उपभोक्ताओं को सीधे सामान नहीं बेच सकतीं. उन्हें ‘थर्ड पार्टी’ को ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म देना होता है जिसमें उनका इक्विटी स्टेक अधिकतम 26 परसेंट है. इसका मकसद विदेशी ‘शैतानी’ मंसूबों को काबू में करना है. इसके बावजूद कि ये कंपनियां बड़ी छूट और फ्रीबीज देती हैं.

  • यह मेरा पसंदीदा है- हम एनर्जी की फ्री प्राइसिंग करते हैं जिसमें तेल भी शामिल है लेकिन एंटरटेनमेंट टैरिफ पर नियंत्रण लगाते हैं. हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि फार्मा प्राइज फ्री हों, नियंत्रित, सीमित या कुछ और. कुछ जरूरी दवाओं पर ग्लोबल प्रोड्यूसर्स नियंत्रण रखते हैं.

  • हम पाबंदी, फिर से पाबंदी, एक बार फिर से पाबंदी लगाने के शौकीन हैं. नब्बे के दशक में अनलिस्टेड भारतीय कंपनियां दूसरे देशों में शेयर्स फ्लोट नहीं कर सकती थीं. 2000 की शुरुआत में उन्हें इसकी मंजूरी दी गई. फिर 2000 के मध्य में उन पर पाबंदी लगा दी गई. अब उन्हें फिर इसकी मंजूरी मिल जाएगी. इसी तरह विदेशी निवेशकों के लिए पुट/कॉल ऑप्शंस हैं. फिर डिविडेंड डिस्ट्रिब्यूशन टैक्स भी हैं. और लिस्टेड इक्विटी शेयरों पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स का मामला भी है.

ऐसे लाखों उदाहरण और हैं जो बताते हैं कि हमारे नीति निर्धारक कितने उलझे हुए या यूं कहें कि हास्यास्पद हैं.

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R...रीकैपिटलाइजेशन, नॉट डिस्ट्रॉइंग, एसेट्स (पुनर्पूंजीकरण करें, एसेट्स को नष्ट नहीं)

हमने एक के बाद एक महत्वपूर्ण एसेट को दिवालिया होने दिया, जबकि हमें उन सभी को बचाना चाहिए था. यह आईएलएफसी के साथ शुरू हुआ लेकिन फिर डीएचएफएल, दूसरी रियल एस्टेट कंपनियों, जेट एयरवेज, पीएमसी तक पहुंच गया- आगे इस क्रम में कौन होगा, पता नहीं. मैं यह कब से लिखता और चेतावनी देता आ रहा हूं. तो, गलती करने वालों को सजा दें- एसेट को बचाइए.

U...अन क्रिमिनलाइजिंग बिजनेस

व्यापार जगत का ‘क्रिमिनलाइजेशन’ इन दिनों बेहिसाब हो गया है. छोटी गलतियों पर लोगों को धरा जा रहा है. इसे रोका जाना चाहिए. सचमुच.

S...फॉर सॉवरेन, नॉट सुप्रीम कोर्ट, मेकिंग इकनॉमिक पॉलिसी (सुप्रीम कोर्ट नहीं, सरकार आर्थिक नीति बनाए)

एजीआर (एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू) के जुर्माने पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश देखिए. पहले सरकार एक अस्पष्ट सा नियम बनाती है जिसके तहत टेलीकॉम कंपनी के शेयरेबल ऑपरेटिंग रेवेन्यू के कैलकुलेशन में नॉन ऑपरेटिंग इनकम जैसे किराए और विदेशी मुद्रा लाभ को जोड़ा जा सकता है. जब सुप्रीम कोर्ट इस नियम को बरकरार रखता है, 1.50 लाख करोड़ रुपए की वसूली की बात करता है और संकट ग्रस्त टेलीकॉम कंपनियों पर आर्थिक जोखिम मंडराता है तो सरकार अपनी गलतियों को दुरुस्त करने की बजाय चुप्पी साध लेती है.

आप ऋण पर चक्रवृद्धि ब्याज की वैधता पर भी सवाल कर सकते हैं, जो कि कोविड के कारण मोरेटोरियम के अंतर्गत आ गए थे.

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां अदालती आदेशों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को जोर का झटका दिया है. इसीलिए मोदी सरकार को अपनी नीतिगत त्रुटियों की जिम्मेदारी उठानी चाहिए और उन्हें दुरुस्त करना चाहिए.

T...टैक्स टेरिरिज्म के लिए

इस पर काफी लिखा गया है- क्या कोई वोडाफोन और केयर्न के बारे में कुछ कह रहा है? ईमानदारी से कहूं तो मुझे सरकारी उत्पीड़न का कोई सबूत देने की जरूरत नहीं है.

अंत में, मोदी/सीतारमन को TRUST की नींव पर आत्मनिर्भर भारत की इमारत खड़ी करनी चाहिए. तभी भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन सकता है. वरना, सब माया है.

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