राहुल गांधी का वायनाड से चुनाव लड़ना क्या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है? ताज्जुब है कि यह सवाल उस देश में उठ रहे हैं जहां हर सीट पर जातीय और धार्मिक तुष्टिकरण ही उम्मीदवार तय करने का आधार रहे हैं. कोई राजनीतिक पार्टी इससे ऊपर उठ ही नहीं पाती है. वायनाड की सीट पर राहुल का चुनाव लड़ना इस परम्परा को तोड़ने जैसा है. इसे देखने के तरीके में खोट है.
क्या बीजेपी के किसी बड़े नेता में कभी हिम्मत हुई कि वह अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्र में चुनाव लड़ सकें? हिंदू होकर हिंदू बहुल इलाकों में चुनाव जीत लेना ही क्या बहादुरी है? अगर जम्मू में मुस्लिम उम्मीदवार और कश्मीर में हिंदू उम्मीदवार चुनाव जीतने लगें, तो जम्मू-कश्मीर में कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी. राहुल गांधी के वायनाड जाने को इस रूप में क्यों नहीं देखा जा रहा है?
सामान्य सीटों पर क्यों नहीं होते SC-ST उम्मीदवार?
बात सिर्फ हिंदू और मुसलमान की नहीं है. दलितों और आदिवासियों को उनके लिए सुरक्षित सीटों के अलावा कितनी सामान्य सीटों पर राजनीतिक दल उम्मीदवार बनने का मौका देते हैं? जीतकर आना तो बहुत दूर की बात है. जब ऐसा सम्भव होने लगेगा कि सुरक्षित सीट से अलग भी दलित और आदिवासी चुनकर आने लगेंगे, तो लोकतंत्र अपने आप समावेशी हो जाएगा.
जमशेदपुर का उल्लेख यहां करना जरूरी लगता है जहां 80 के दशक में सीपीआई ने एक आदिवासी नेता टीकाराम मांझी को पहली बार किसी सामान्य सीट से उम्मीदवार बनाया था. तब टीकाराम मांझी के बतौर उम्मीदवार की अधिकृत घोषणा से पहले शहर में चुनाव प्रचार करने की पहल करने वाले जेपी सिंह को सीपीआई ने अनुशासनहीनता का दोषी करार दिया था.
मगर ये उदाहरण है जब एक अगड़ी जाति के व्यक्ति को सामान्य सीट पर किसी आदिवासी को चुनाव लड़ाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी में भी लड़ाई लड़नी पड़ी थी और अनुशासनहीनता झेलनी पड़ी थी. ऐसे उदाहरण मिलते कहां हैं! सुरक्षित सीट से बाहर किसी आदिवासी के चुनाव जीतने का उदाहरण बाद में यही सीट बनी.
मुस्लिम उम्मीदवारों से परहेज भी तुष्टिकरण
बीजेपी का मुस्लिम उम्मीदवारों से परहेज करना क्या तुष्टिकरण नहीं है? उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से एक भी सीट पर मुसलमान उम्मीदवार पार्टी ने नहीं दिया. पूरे देश में बमुश्किल दो मुस्लिम उम्मीदवार बीजेपी अब तक घोषित कर पायी है.
कई सीटों पर लड़े थे अटल बिहारी वाजपेयी
बीजेपी में मुसलमानों को जोड़ने की कोशिश हुई है क्या? श्यामा प्रसाद मुखर्जी या उनके बाद के जनसंघ और बीजेपी के नेता, चाहे वे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी हों या आज के दौर के कोई अन्य नेता। इन्होंने कभी गैर हिंदू इलाकों से चुनाव लड़ने की हिम्मत क्यों नहीं दिखलायी? यह सवाल सिर्फ जीत हार का नहीं है क्योंकि हिंदू इलाकों में भी ये सीट हारते रहे हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी 1952 में पहली बार दो-दो सीटों से चुनाव लड़े. वही 1957 में भी ये दोहराया गया. वे चाहते तो एक सीट अल्पसंख्यक बहुल भी चुन सकते थे. या फिर भौगोलिक रूप से उत्तर और दक्षिण भी चुन सकते थे. क्यों नहीं चुनी? क्यों उन्होंने मथुरा, बलरामपुर और लखनऊ को ही चुना?
वायनाड जैसी सीट चुनने का साहस सबमें नहीं
कांग्रेस की नेता इंदिरा, सोनिया और अब राहुल उत्तर से लेकर दक्षिण तक जाते रहे हैं. अगर राहुल ने अल्पसंख्यक बहुल सीट का चुनाव अपने लिए किया है, तो ये काम सिर्फ वही कर सकते हैं. ये हिम्मत दूसरे नेता नहीं दिखला सकते.
महात्मा गांधी से सीख लेने की जरूरत
आज के बीजेपी नेताओं का जोर चले तो वे महात्मा गांधी को भी तुष्टिकरण का दोषी ठहरा दें. मगर, क्या कोई सांप्रदायिक दंगे के बाद महात्मा गांधी का कोलकाता में अनशन कर हिंदुओं को शांत करना और नोआखाली जाकर मुसलमानों को शांत कराना भुला सकता है? विभिन्न समुदायों में यह पकड़ और अख्तियार क्या अलग समुदायों से दूर रहकर सम्भव है?
धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति खतरनाक है. इससे देश को बचाने के लिए यह जरूरी है कि राजनीतिक दल न सिर्फ धार्मिक बल्कि जातीय और क्षेत्रीय आधारों पर भी उम्मीदवारों से लेकर राजनीतिक मुद्दों तक में समन्वय दिखलाने की सियासत करें.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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