रामचरितमानस (Ramcharitmanas) पर की गईं कुछ टिप्पणियों के बाद से जिस तरह से मीडिया में बहस शुरू हुई, उससे ऐसा लगता है कि देश में अब और कोई समस्या है ही नहीं. बस बहाने का इंतजार था तो सारे भड़ास निकालने लगे. संविधान विरोधी ताकतों ने पीछे से पूरी ताकत लगी रखी हैं जैसे अन्ना आंदोलन के समय हुआ था.
एक तरफ मीडिया को तेज कर दिया गया है, दूसरी तरफ साधु-संतों को. अन्ना आंदोलन में सिविल सोसायटी को आगे किया गया था. काठ की हांडी जरूरी नहीं है कि बार-बार चढ़े. ''भारत जोड़ो यात्रा'' के प्रभाव को भी कम करने का प्रयास है और कई दिनों से अडानी का मामला तूल पकड़ा है, ऐसे में इस बहस से उसको भी दबाने की कोशिश की जा रही है.
बिहार सरकार में मंत्री चंद्रशेखर यादव ने कहा कि रामचरितमानस का एक अंश भेदभाव करता है. यही बात SP नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी कही. ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हुआ है. ललई यादव ने तो सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी कि रामायण काल्पनिक है और इस पर जीत भी हुई.
क्या है एजेंडा?
डॉक्टर अंबेडकर की ''22 प्रतिज्ञा'' और उनके विचार तो इनसे अधिक तीखे हैं, लेकिन उनसे ये (बीजेपी-संघ) डरते हैं. दक्षिण भारत में रामास्वामी पेरियार ने जो किया वो ये सुन नहीं सकते और सिर पकड़कर बैठ जाएंगे. वहां पर सीता और राम के पुतले जलाए गए. रामायण को जलाया गया. सिख धर्म के गुरु ने भी कहा था वो हिंदू नहीं हैं. इसके पीछे जो एजेंडा है, उसे समझने की जरूरत है. ये सीधे हिंदू राष्ट्र की मांग नहीं कर सकते तो संतों के जरिए सब कहलवाया जा रहा है. 2024 लोकसभा चुनाव के लिए धीरे-धीरे जमीन तैयार की जा रही है. अगर तीसरी बार सत्ता में आते हैं, तो संविधान को नष्ट कर देंगे.
'देश में नफरत फैलाया जा रहा'
हिंदू राष्ट्र और संविधान एक-दूसरे के विपरीत खड़े हैं. एक समय था कि धर्म निरपेक्षता की बात के बगैर राजनैतिक कार्यवाही अपूर्ण रहती है. अब तो धर्म निरपेक्षता की बात करना जैसे कोई अपराध हो रहा है. हिंदू-मुस्लिम को इतना तूल देकर देश को नफरत के आग में झोंक दिया है. लोग बेरोजगारी और महंगाई की मार बर्दाश्त कर रहे हैं.
'झूठ को कुतर्क से सच बताने का प्रयास'
यूरोप और अमेरिका में अश्वेतों के साथ गोरों ने अन्याय किया तो गोरों ने स्वीकार किया और आगे बढ़े. पाठन सामग्री में शामिल किया ताकि गोरों की नई पीढ़ी को यह एहसास हो कि अतीत में भेदभाव हुआ और इसलिए अश्वेतों को वरीयता दी जानी चाहिए. यही वजह है कि अश्वेतों को मिली अतिरिक्त सुविधा का गोरे विरोध नहीं करते. हमारे यहां गलती को जायज ठहराया जाता है और उसे कुतर्क के द्वारा सच बताने का प्रयास किया जाता है. होना यह चाहिए कि कमियों को स्वीकारते और सुधारते आगे देश को बढ़ना चाहिए!
'मूर्ख बनाने की कोशिश'
रामचरितमानस की चौपाई "ढोल, गंवार, शूद्र ,पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी“ को नए तरह से व्याख्यान करने में लगे हैं और इसका अर्थ अब निकाल रहे हैं कि "ताड़न " का मतलब देखना या शिक्षित करना. दिनदहाड़े मूर्ख बनाने की कोशिश हो रही है जैसे कि "ढोल" और "पशु" के लिए विद्यालय और महाविश्वविद्यालय खोलकर पढ़ाया जाए." पूजहि विप्र सकल गुण हीना, शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा” कितना छिपाओगे और कहां-कहां नहीं लिखा गया है.
ऋग्वेद 10वें मंडल के पुरुष सूक्त में वर्णित है कि
"ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्यां शूद्रोऽअजायत।।11।।
(विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए. क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं. वैश्य अर्थात पोषण शक्ति-संपन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।)"
रामचारितमानस पर की गईं टिप्पणियां तो एक बहाना है, निशाना तो वोट है. इसके पहले भी धार्मिक ग्रंथों की कड़ी आलोचना होती रही, लेकिन ऐसा बवाल नहीं हुआ. समय-समय पर ऐसी आलोचना हुई है. संत रविदास की चौपाई तो इससे ज्यादा तीखी हैं, लेकिन कभी झगड़ा नहीं हुआ. संत रविदास की पंक्तियां –
"रैदास बाभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन,
पूजिए चरन चंडाल के जो हो गुन परवीन.
धरम करम जाने नहीं, मन मह जाति अभिमान,
ऐ सोउ ब्राह्मण सो भलो रविदास श्रमिकहु जान."
से भी जातिवाद की विद्रूपताओं को महसूस किया जा सकता है. गीता में चतुर्वर्ण को जायज ठहराया गया है.
'संविधान खत्म करने की कोशिश'
तर्क, ईमानदारी, न्याय, दूरदर्शिता होती तो गोरों की तरह गलतियों को स्वीकारते आगे चलने की बात होती. इससे लगता है कि कथित सवर्ण का इरादा जाति व्यवस्था बनाए रखने में है. संविधान को खत्म करना चाहते हैं. असमानता को बरकरार रखना चाहते हैं.
धार्मिक ग्रंथों में सब कुछ ठीक है, तो व्यवहार से जानें कि क्या ये सही कह रहे हैं? आखिर में भेदभाव के श्रोत तो ग्रंथों के कुछ हिस्से रहे हैं और हैं. क्या पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का पुरी के मंदिर में अपमान नहीं हुआ? क्या बाबू जगजीवन राम के द्वारा वाराणसी में संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण के बाद दूध से नहीं धोया गया? क्या डॉ.अंबेडकर ने तालाब का पानी पीने के लिए आंदोलन नहीं किया? क्या उन्हें गाड़ी वाहक ने जाति जानते ही उतार नहीं दिया था?
भारत सरकार में 89 सचिव में एक-दो दलित और पिछड़े मुश्किल से होंगे. न्यायपालिका में भी इनकी भागेदारी ना के बराबर है. पीएमओ सहित मंत्रियों के स्टाफ के लोग मुश्किल से दलित पिछड़े मिल जाएंगे. दलितों को कितने भारत रत्न दिए गए, मुश्किल से एक या दो को मिला होगा. मीडिया में दलित कम हैं और अगर जाति पता लग जाए तो नौकरी नहीं कर सकता. अखिलेश यादव अगर हिंदू थे तो उनका घर गंगा जल से किसने धुलवाया? राम मंदिर के लिए लठैती में आगे अहीर, मौर्या, लोध, कुर्मी, पासी, खटीक, कोली, पाल आदि आगे थे, तो राम मंदिर मैनेजमेंट ट्रस्ट में सदस्य तो बना सकते थे?
'धार्मिक कट्टरता पैदा करने की कोशिश'
भारतीय समाज में हमेशा वर्तमान की निंदा होती है और अतीत को सुनहरा बताया जाता है. वर्तमान को कलयुग कहा जाता है, जबकि स्त्रियों, दलितों और पिछड़ों के लिए वर्तमान सतयुग है. धार्मिक ग्रंथों के पक्ष और विपक्ष दोनों होते रहे हैं, लेकिन इस बार क्या कोई खास बात है. हां है! चुनाव आ रहा है और यह अच्छा अवसर है कि धार्मिक कट्टरता पैदा किया जाए. संविधान विरोधी ताकतों का प्रभाव वर्तमान में सत्ता पर बहुत है तो लगे हाथ साधु-संतों से हिंदू राष्ट्र की बात उठवा दिया. खुद हिंदू राष्ट्र की बात न करके किसी और को आगे कर दिया. इंतजार सही समय का है, जब मौका मिलेगा तो खत्म कर देंगे.
(डॉ. उदित राज, पूर्व सांसद, राष्ट्रीय चेयरमैन, असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) व राष्ट्रीय प्रवक्ता - कांग्रेस एवं राष्ट्रीय चेयरमैन - अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ)
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