Russia-Ukraine conflict : यूक्रेन पर रूस के हमले के जवाब में अमेरिका और यूरोपीय सहयोगियों ने रूसी अर्थव्यवस्था पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं.
प्रतिबंधों की शुरुआत 630 अरब (630 बिलियन) डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार को फ्रीज करने से हुई थी. कुछ पूंजी नियंत्रण यानी कैपिटल कंट्रोल लागू किए गए, जिसमें एक देश से दूसरे देश (रूस के बाहर) में निवेश यानी Planned Investments की आवाजाही को प्रतिबंधित करने के साथ-साथ नागरिकों को विदेशी खातों में पैसा जमा करने से रोक दिया गया. इसके साथ ही रूस को स्विफ्ट SWIFT पेमेंट सिस्टम से भी अलग कर दिया गया, जो दुनिया के बाकी फाइनेंसियल सिस्टम से इसके अलगाव को और ज्यादा गंभीर बना देता है.
इन प्रतिबंधों के परिणाम पहले से ही महसूस किए जा रहे हैं. प्रतिबंधों ने रूस की अर्थव्यवस्था पर कहर बरपाना शुरू कर दिया है, रूस की मुद्रा तेजी से गिर रही है (रूबल 30 प्रतिशत से अधिक गिर गया). स्टॉक मार्केट क्रैश हो रहा है, मुद्रास्फीति दर या महंगाई दर बढ़ रही है, केंद्रीय बैंक की ब्याज दरें 9.5 प्रतिशत से बढ़कर 20 फीसदी हो गई हैं. (मुद्रास्फीति का मुकाबला करने और उधार लेने की लागत बढ़ाने के लिए) और सरकार का (बाहरी) ऋण-से-जीडीपी अनुपात बढ़ रहा है.
रूसी अर्थव्यवस्था पर भारी प्रतिबंधों का प्रभाव आने वाले हफ्तों और महीनों में इसकी वित्तीय प्रणाली को वैश्विक मौद्रिक प्रणाली से और भी ज्यादा अलग कर देगा. इसका अंदाजा लगाने के लिए आइए कुछ आंकड़ों या प्वॉइंटर्स पर नजर डालते हैं...
पहला : रूसी मुद्रा Vs यूएस डॉलर
करेंसी के बारे में बात करें तो गिरते रूबल उन रूसी नागरिकों के लिए चिंता का कारण बन रहे हैं, जो एटीएम ATM पर लंबी-लंबी कतार लगाए खड़े हैं. यदि जमाकर्ता बैंकों से अपना सारा पैसा निकालना शुरू कर देते हैं तो इसके परिणामस्वरूप वे रूस की बैंकिंग प्रणाली पर कहर बरपा सकते हैं. मुद्रास्फीति पहले से ही बढ़ रही है, जिससे रूबल की क्रय शक्ति समय के साथ कम होती जा रही है, जिससे आवश्यक वस्तुओं की लागत बढ़ने लगी है.
दरअस, बढ़ती मुद्रास्फीति की वजह से सरकार के प्रति अविश्वास पैदा होता है और यह बहुत जल्द रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बारे में जनता की राय को प्रभावित कर सकती है, जिसकी वजह से निरंकुश सत्ताधारी के खिलाफ सड़कों पर अधिक विरोध हो सकता है.
दूसरा : मुद्रास्फीति दर का ऊपर चढ़ना
बहुत ही कम समय में मुद्रास्फीति की दर 9 फीसदी के आस-पास पहुंच चुकी है. बढ़ती ब्याज दरों पर केंद्रीय बैंक की प्रतिक्रिया का उद्देश्य मुद्रास्फीति को कम करना है, लेकिन यह बैंकों से उधार लेने की लागत को बढ़ाता है, जिससे घरों और व्यवसायों के लिए उधार लेना और भी मुश्किल हो जाता है. क्रेडिट फ्रीज होने और इसकी लागत और ब्याज बढ़ने की वजह से रूस में और उसके साथ व्यापार करना और भी मुश्किल हो जाएगा.
तीसरा : केंद्रीय बैंक की ब्याज दर
जब हम कंज्यूमर-बिजनेस कॉन्फिडेंस के आंकड़ों को देखते हैं, जो कि अनिश्चित रूप से कम है, तो हम इन प्रवृत्तियों के कुछ नतीजों को देख सकते हैं. यह दर्शाता है कि रूस जैसी सैन्य महाशक्ति के लिए भी, जिसमें उसके अधिकांश लोगों के साथ व्यवसाय भी शामिल हैं, इस समय युद्ध के संभावित परिणामों या इसके कारक को समझने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थे, विशेष रूप से COVID की वजह से लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था में; जहां व्यवसाय, फर्म, घर और सरकारें (उच्च राजकोषीय व्यय के कारण) पहले से ही बुरी तरह प्रभावित हों.
चौथा : कंज्यूमर कॉन्फिडेंस का स्तर तेजी से नीचे गिरा
इसके परिणाम स्वरूप रूस के मध्यम से दीर्घकालिक परिदृश्य में देखें तो इसमें लगातार उच्च मुद्रास्फीति शामिल हो सकती है. वहीं, एक खराब मूल्य वाली मुद्रा अपने बैंकों पर से विश्वास को कम करती है, जिससे उधार लेने की लागत बढ़ जाती है. यह निजी निवेश को भी प्रभावित करेगा, जिसके बारे में ब्लूमबर्ग ने अनुमान लगाया है कि यह सकल घरेलू उत्पाद यानी GDP को 1.5 प्रतिशत से अधिक का नुकसान पहुंचा सकता है, जिसके कारण दीर्घकालिक मंदी हो सकती है.
पांचवां : वैश्विक परिणाम क्या होंगे?
वैश्विक शेयर बाजार में देखे गए उतार-चढ़ाव और तेल की कीमतों के बारे में चिंताओं के बावजूद, एक लड़खड़ाई रूसी (और यूक्रेन) अर्थव्यवस्था का वैश्विक प्रभाव अभी भी सीमित होने की संभावना है. रूस में चालू खाते का जीडीपी अनुपात काफी कम है (जैसा कि नीचे दिए गए चित्र से स्पष्ट है). यह दुनिया के 2 फीसदी से कम माल का निर्यात करता है और वैश्विक शेयर बाजार पूंजीकरण के 1 फीसदी से भी कम इसकी जीडीपी है. इन्हीं कारकों में यूक्रेन की हिस्सेदारी क्रमशः 0.01 फीसदी और 0.3 फीसदी से भी कम है.
छठवां : ऋण-जीडीपी अनुपात और राजकोषीय खर्च
किसी देश की सेना कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, लेकिन जब वह किसी भी युद्ध को फाइनेंस करती है तो उस देश की वित्तीय सीमा बढ़ती है. यह दुनिया के बाकी हिस्सों के लिए सरकार के बकाया (ऋण) दायित्वों को भी बढ़ाता है, इसमें ऋण से लेकर बांड के रूप में सरकार द्वारा खरीदे गए ऋण तक शामिल होते हैं. जब रूबल का मूल्य गिरता है (जैसा कि वर्तमान में हो रहा है), तब सभी कर्ज का बाह्य मूल्य बढ़ेगा और इसी तरह सभी ब्याज भुगतानों (interest payment) के मूल्य में भी वृद्धि होगी.
COVID-19 के बाद के हालातों में देखें तो सरकारों की अधिक खर्च करने की क्षमता निश्चित रूप से कमजोर हुई है. ऐसे में यह रूसी क्षमताओं का परीक्षण होगा. राजकोषीय खर्च में आया हालिया उछाल भविष्य की एक धुंधली तस्वीर पेश करता है. एक ओर रूबल लगातार नीचे गिर रहा है तो वहीं दूसरी ओर पूरे यूक्रेन में सैन्य अभियानों में वृद्धि हो रही है. इन सैन्य अभियानों का समर्थन करने से वास्तविक 'लागत' में बढ़ोत्तरी हो रही है, जो रूसी खजाने पर भारी पड़ सकती है.
सातवां : भारत-रूस आर्थिक संबंधों का क्या?
भारतीय आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2020 और मार्च 2021 के बीच द्विपक्षीय व्यापार 8.1 अरब डॉलर था. भारत का निर्यात कुल 2.6 अरब डॉलर था, जबकि रूस से आयात कुल 5.48 अरब डॉलर था.
इसी अवधि के दौरान रूसी आंकड़ों पर गौर करें तो उसका द्विपक्षीय व्यापार 9.31 अरब डॉलर था, जिसमें भारतीय निर्यात 3.48 बिलियन डॉलर और आयात कुल 5.83 बिलियन डॉलर था.
जैसा कि पहले कहा गया है, भारत के सबसे बड़े हथियार आपूर्तिकर्ताओं में से रूस एक है और यह एक प्रमुख रणनीतिक सहयोगी भी है. अमेरिका के साथ भारत के निकट संबंधों के बावजूद हाल ही में मोदी ने पुतिन को भारत आने का न्योता दिया था, जिसे रूस के साथ घनिष्ठ रणनीतिक गठबंधन बनाए रखने के एक तरीके के रूप में देखा गया था.
इसका एक कारण रूस-चीन संबंधों को मजबूत होने से बचाना हो सकता है, जो अब प्रतिबंधों के वित्तीय दबाव में और अधिक घनिष्ठ हो सकता है.
रूस-भारत सैन्य संबंधों की प्रकृति को परिभाषित करते हुए समीर लालवानी और अन्य ने हाल ही में तर्क दिया : "भारतीय सेना में रूसी मूल के प्लेटफार्मों का विस्तार, जो हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि 60 प्रतिशत के आंकड़े के बजाय 85 प्रतिशत प्रमुख भारतीय हथियार प्रणालियों का सृजन करता है, इसने 'लॉक-इन' प्रभाव पैदा किया है, जबकि भारत के प्रौद्योगिकी आधार और रणनीतिक प्रणालियों के सापेक्ष समर्थन की गहराई ने प्रमुख रणनीतिक क्षेत्रों में अपेक्षाकृत उच्च स्तर की ऋणग्रस्तता और विश्वास पैदा किया है.
इसके बावजूद भारतीय शस्त्रागार में रूसी योगदान की मात्रा और संवेदनशीलता, ऐसी विशेषताएं जो अमेरिकी नीति निर्माताओं के संबंध को और मजबूत बनाए रख सकती हैं, को काफी हद तक कम करके आंका गया है. ”
दूसरे शब्दों में, भारत और रूस के बीच पिछले शीत युद्ध संबंधों के परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच पथ-निर्भर संबंध बने हैं. हालांकि, भारत के लिए निकट भविष्य में आर्थिक रूप से क्षतिग्रस्त और प्रतिबंधों से प्रभावित रूसी अर्थव्यवस्था के साथ व्यापार करना और उसे जारी रखना मुश्किल होगा. वहीं. रक्षा खरीद और हथियारों की आपूर्ति जैसे क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अकुशल (या आवश्यक) रूसी आयात के लिए व्यापार विकल्प खोजना बेहद मुश्किल हो सकता है.
कुछ लोग इस बात का तर्क दे सकते हैं कि "क्या पुतिन को इस सब का पूर्वाभास नहीं था?" यह देखते हुए कि उनकी क्या योजना थी, क्या उन्हें नहीं पता होगा कि प्रतिबंधों का रूसी अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा? या क्या उन्होंने 'गलत अनुमान' लगाया और उम्मीद की कि यूक्रेन में उनकी आक्रामकता के लिए वैश्विक वित्तीय प्रतिक्रिया 2014 के क्रीमिया अधिग्रहण के बाद की तरह ही होगी (जो काफी कमजोर और कम समन्वित थी)? इन सवालों का जवाब देना मुश्किल होगा.
लेकिन यह समय पहले से अलग नजर आ रहा है. वैश्विक वित्तीय और मौद्रिक प्रणाली भी अतीत की तुलना में बहुत अलग है. हां, डॉलर अभी भी प्रमुख रिजर्व विदेशी मुद्रा है, लेकिन इसकी उतनी प्रमुख भूमिका नहीं है जितनी एक दशक या उससे पहले थी. चीनी सरकार और चीनी पैसा निस्संदेह रूस को उसकी वित्तीय जिम्मेदारियों में सहायता करने में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, लेकिन हम नहीं जानते कि किस हद तक.
आठवां : रूस की प्रमुख कमजाेरियां
अगर अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगी रूस को लंबी अवधि तक परेशान करना चाहते हैं तो रूस पर प्रतिबंधों के राजनीतिक अर्थव्यवस्था के निहितार्थ कहीं अधिक खराब हो सकते हैं. ऐसे में यह संभव है कि कोई पाइपलाइन सौदे नहीं हो सकते हैं, नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन प्रोजेक्ट पहले से ही खतरे में है. रूस में और उसके बाहर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सीमित होगा. आखिर कौन ऐसे देश में दीर्घकालिक वित्तीय प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ना चाहेगा, जिसका शासक तानाशाह है और जिसने अपने ही कानून के प्रति लापरवाह तरीके से अवहेलना का प्रदर्शन किया है?
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर रूसी कुलीन वर्ग, जिन्होंने पुतिन को घेर रखा है और उन्हें सत्ता में बने रहने में मदद की है, उनकी विशाल विदेशी संपत्ति को सीज या फ्रीज करने की इच्छाशक्ति अमेरिका और उसके सहयोगी दिखाते हैं, तो पुतिन साम्राज्य की स्थिति कहीं ज्यादा खराब हो सकती है, संभवतः यह कदम पुतिन के साम्राज्य के पतन का कारण भी बन सकता है.
जैसा कि फिलिप नोवोकमेट, थॉमस पिकेटी और गेब्रियल ज़ुकमैन ने बताया है कि 1990 के दशक की शुरुआत से रूस में हर साल बड़े पैमाने पर व्यापार सरप्लस रहा है, जिसके परिणामस्वरूप विदेशी संपत्ति का एक बड़ा संचय होना चाहिए था. लेकिन आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि रूस की विदेशी संपत्ति उसकी देनदारियों से थोड़ी ही अधिक है.
पॉल क्रुगमैन ने इसे देखते हुए कहा :
"यह कैसे संभव है? इसका सबसे स्पष्ट उत्तर यह है कि धनी या कुलीन रूसी बड़ी मात्रा में धन की निकासी कर रहे हैं और इसे विदेशों में जमा कर रहे हैं. इसमें शामिल आंकड़े चौंकाने वाले हैं. नोवोकमेट और अन्य के अनुसार, धनी रूसियों की छिपी हुई विदेशी संपत्ति 2015 में रूस के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 85 फीसदी थी. यह ठीक वैसा ही है जैसे कि अमेरिकी राष्ट्रपति के साथी, विदेशी खातों में $20 ट्रिलियन छिपाने में कामयाब रहे हैं. ज़ुकमैन द्वारा सह-लिखित एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि रूस में "कुलीन वर्ग के धन का विशाल हिस्सा ऑफशोर अकाउंट में रखा जाता है." अब तक कोई यह नहीं बता सका है कि रूस का अमीर वर्ग विदेशों में कहां पैसा रखा है. अब तक के इतिहास में इसका कोई उदाहरण नहीं है. ऐसे में यह एक बड़ी कमजोरी हो सकता है, जिसका फायदा पश्चिम उठा सकता है.
क्या रूसी अमीरों के पीछे जाने का जोखिम पश्चिम उठा सकता है?
सवाल यह है कि क्या दुनिया भर में लोकतांत्रिक सरकारें सामूहिक रूप से रूस के खिलाफ एक गहरे असमान धन परिदृश्य में ऐसा करने के लिए गठबंधन कर सकती हैं. उनके अपने कई शक्तिशाली लोगों और व्यवसायियों के व्यापार और राजनीति दोनों में रूसी कट्टरपंथियों के साथ व्यापक संबंध हैं. यह सच्चाई न केवल अमेरिका में बल्कि ब्रिटेन और यूरोप के अधिकांश हिस्सों में भी है.
यदि कोई रूसी अमीरों और ऑफशोर खातों में रखी उनकी संपत्ति के पीछा जाता है, तो इससे अधिकांशत: उन अमीरों के लिए प्रतिकूल परिणाम दिखने की संभावना है, जिनके इन खातों में पैसे हैं और उनके संचालन रूसियों से जुड़े हैं.
भविष्य जो भी हो, वह पुतिन के रूस के राजनीतिक धैर्य और आर्थिक क्षमता के परीक्षण के साथ-साथ लोकतांत्रिक दुनिया की 'इच्छा' के साथ खड़ा होगा.
(लेखक, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वर्तमान में आप कार्लटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. ये ट्विटर पर @Deepanshu_1810 पर उपलब्ध हैं. यह लेख एक विचार है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)