भारतीय सेना के सबसे प्रतिष्ठित सेनाध्यक्षों में से एक रहे स्वर्गीय फील्ड मार्शल सैन मानेकशॉ ने एक बार कहा था: “‘यस मैन’ बेहद खतरनाक आदमी होता है. वो एक मुसीबत है. वो बहुत आगे जाता है. वो एक मंत्री बन सकता है, एक सचिव या एक फील्ड मार्शल बन सकता है लेकिन वो कभी भी एक नायक नहीं बन सकता, उसकी कभी इज्जत नहीं हो सकती. उसके वरिष्ठ अधिकारी उसका इस्तेमाल करते हैं, उसके साथी उसे नापसंद करते हैं और उसके अधीन काम करने वाले उससे नफरत करते हैं. इसलिए ‘यस मैन’ को अलग रखो.”
ये धरती पर कोविड-19 के हमले, सर्विस चार्टर के नए आदेश, या चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जैसे सेना के उच्च पदों के बनाए जाने से काफी पहले की बात है. लेकिन आज भी ऊपर लिखे सैम बहादुर, जैसा कि लोग उन्हें प्यार से बुलाते थे, के ये शब्द सच साबित हो रहे हैं. समय की सीमाओं से पार ये संदेश पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए नेतृत्व के प्रकाशस्तंभ की तरह है.
प्रेस कांफ्रेंस में सशस्त्र सेनाओं का ‘यस सर’ सिंड्रोम नजर आता है
अगर सैम बहादुर जिंदा होते, इस तरह की परेड देखकर शर्मिंदा हो जाते. 1 मई, 2020 को सीडीएस जनरल बिपिन रावत के साथ सेना के तीनों अंगों के प्रमुख एक साथ प्रेस कांफ्रेंस में नजर आए. इसको लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे, लेकिन जो सुनने को मिला उससे कुछ ही देर में लोग निराश हो गए, इसमें ज्यादातर सीडीएस जरनल रावत का लंबा नीरस भाषण था. दूसरे सेना प्रमुख ज्यादा से ज्यादा एक या दो लाइन ही बोल पाए. सेना के पिछली पीढ़ी के लोगों के लिए यह तमाशा जितना हैरान करने वाला रहा होगा उतना ही निराशाजनक भी रहा होगा. जो बयान दिए गए ज्यादातर राजनीति से जुड़े थे.
सिर्फ एक संदर्भ कि ‘कोविड-19 से सशस्त्र सेनाएं दो सिद्धातों के आधार पर लड़ रही हैं: शक्ति संरक्षण और नागरिक प्राधिकरणों की मदद’ क्षतिपूर्ति करने वाला था, जिसमें सर्विस चार्टर की झलक दिख रही थी. इसके अलावा जो था उसमें उपदेश भरपूर था और काम की बात कम थी; विशिष्ट पदों पर आसीन सेना के जिस नेतृत्व से दृढ़ मुद्रा बनाए रखने की उम्मीद होती है उससे बेहद अलग.
अब, ये बात किसी से छिपी नहीं है कि हर काम के लिए ऊपर के अधिकारियों पर निर्भर होना और ‘यस सर’ की बीमारी सशस्त्र सेना में चौंकाने वाली तेजी से बढ़ गई है. सेना में जो जिम्मेदारियां पहले सूबेदारों के पास थी, वायुसेना में वॉरंट ऑफिसर्स के पास थी या नौसेना में पेट्टी ऑफिसर्स के पास होती थी वो काम अब सजी हुई टोपी वाले बड़े अधिकारी करते हैं. जूनियर लीडरशिप की ताकत बढ़ाने और सबसे निचले स्तर तक जिम्मेदारियों का बंटवारा करने की बजाय, आत्मप्रवंचना और प्रचार की भूख रोज की बात हो गई है. आखिरी प्रेस कांफ्रेंस ने इस बीमारी की नई निम्न रेखा तय कर दी. इसमें नए विचारों का अकाल और नकल करने की प्रवृति भी नजर आई.
क्या वाकई ये सेना का काम है?
मुझे याद है, करगिल युद्ध जब चरम पर था, ऐसी कोई ज्वाइंट प्रेस वार्ता ना तो बुलाई गई ना ही इसकी कोई जरूरत महसूस की गई. इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना योद्धा लोगों की जान बचाने की मुहिम में लगे हैं, जबकि पीपीई की भयंकर कमी है और उन्हें हिंसा और बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है. ये रक्षक सम्मान के योग्य हैं और देश ने, बार-बार, सामूहिक तौर पर इनका आभार जताया है.
लेकिन सेना के चार सबसे बड़े अधिकारी अगर एक पैनल पर बैठ कर ‘कोरोना योद्धाओं’ के अभिनंदन के लिए पूरे देश में फ्लाई पास्ट, आर्मी बैंड का प्रदर्शन, अस्पतालों पर फूलों की बौछार और युद्धपोतों को रौशनी से सजाने का ऐलान करते हैं, तो उस वक्त माइक संभालने कौन सामने आएगा जब इक्कीसवीं सदी के युद्ध की पहली गोलियां चलाई जाएंगी?
वर्दी को अपनी सेवा देने वाला हर आदमी याद कर सकता है किस तरह अनदेखी जरूरतों के हालात में बार-बार सिविल और मिलिट्री एजेंसियों की तरफ से ‘कुछ करने’ के अनुरोध, कभी-कभी नासमझी भरे सलाह, आने लगते हैं.
ऐसी गुजारिशों का न्यायपूर्ण विश्लेषण और सशस्त्र बलों का मान रखते हुए उनसे निपटने में स्टाफ को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. बारीक अध्ययन से ही गलतियों की संभावनाओं का अंदाजा लगता है, बड़े स्तर ‘मिशन’ का ऐलान करने वाले उन बातों का ख्याल नहीं रख पाते.
हमेशा ‘कुछ करना’ जरूरी नहीं है
बांग्लादेश में विशाल शरणार्थी संकट और खूनखराबे जैसे हालात में, तब प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी ने सैम मानेकशॉ से ‘कुछ करने’ के लिए कहा. सैम ने किसी खिलौने की तरह कूद कर तुरंत ‘जी, मैम’ नहीं कह दिया. उल्टा, उन्होंने बिना सोचे-समझे कोई कार्रवाई करने से बचने की सलाह दी, कई वरिष्ठ मंत्रियों से इस मसले पर सवाल-जवाब किए, तैयारी के लिए वक्त मांगा, ऐसी संभावनों का सामना भी किया जब ऐसा लगा कि इंदिरा उन्हें हटा देंगी.
लेकिन अपने इरादों पर अडिग रहकर उन्होंने इतिहास में अपने लिए जगह बना ली. उसके बाद सामने आया वो ऑपरेशन जो दूसरों के लिए मिसाल बन गया, जिसने पूर्वी पाकिस्तान को आजाद कराया और नए मुल्क बांग्लादेश को जन्म दिया.
मिलिट्री कॉलेज में दिया उनका शानदार भाषण, जो इंदिरा गांधी से उनके ‘भिड़ंत’ की याद दिलाती है, उन लोगों के लिए एक सबक होनी चाहिए जो कंधों पर सितारे लगाकर बैठे तो नजर आते हैं, लेकिन अपनी बातों से लोगों का ध्यान तक नहीं खींच पाते, अपनी जमीन को संभालना और जंग जीतना तो बहुत दूर की बात है.
स्वर्गीय एडमिरल आर एल परेरा ने एक बार कहा था कि नेतृत्व और विश्वसनीयता पर्यायवाची शब्द हैं; एक के बगैर दूसरा मुमकिन नहीं है. उनके शब्दों में, ‘विश्वसनीयता के बगैर नेतृत्व तो बस झूठे नेतृत्व की सफेद कब्र जैसा है. इसकी कोई उपयोगिता नहीं है, इसका कोई शरीर नहीं होता और वाकई इससे कुछ हासिल नहीं होता बजाय किसी की जेब भरने के; और उसे नेतृत्व तो बिलकुल नहीं कहते.’
बड़ी कीमत: ऊंची लागत और सोशल डिस्टेंसिंग से समझौता
इतिहास साक्षी रहेगा कि 2020 में, वैश्विक कोविड-19 महामारी के दौरान भारत में, तीनों सेनाओं के प्रमुख और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, सब-के-सब 4 सितारे वाले सेनाधिकारी, एक साथ ऐसे पैनल पर बैठे दिखे जिसके लिए उनका कोई भी प्रवक्ता काफी था, क्योंकि उन्हें सिर्फ फ्लाई पास्ट, बैंड के प्रदर्शन और जहाजों को रौशन करने जैसा ऐलान करना था.
लॉकडाउन की वजह से उड़ान से जुड़ी गतिविधियां कम होने के बाद अगले कुछ दिनों तक देश के कोने-कोने में फ्लाई पास्ट के इतंजाम किए गए, फाइटर क्रू के पास सिर्फ दो दिनों का वक्त था. जहां सन्नाटा पसरा है वहां हेलीकॉप्टर से फूल बरसाए गए और हॉस्पीटल के आगे मिलिट्री बैंड को देखने के लिए भीड़ जुटने का डर था, जबकि महामारी के दौरान ऐसा होना ठीक नहीं है. मुंबई के मरीन ड्राइव और विशाखापट्टनम के रामकृष्ण तट पर जहाजों पर रौशनी को देखने के लिए भी भीड़ जुटने की आशंका थी.
यहां तक कि अमेरिका में भी, जहां से हमने इस नासमझी से भरे विचार की नकल की है, फ्लाई पास्ट को देखने के लिए लोगों की भीड़ जुट गई थी और सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ी थी.
कुछ लोगों ने ऐसे तमाशे पर होने वाले खर्च को लेकर सवाल उठाए हैं, क्योंकि इस वक्त सेना के बजट में कटौती की बात मुखर हो चुकी है. दुख की बात ये है कि कुछ दिनों पहले ही ‘ऑपरेशनल कॉस्टिंग रिर्टन्स’ को खत्म कर दिया गया. हालांकि लोक प्रशासन की तरफ से आने वाली खास मांगों को पूरा करने पर उनसे पैसे वसूले जाते हैं, कई सारी योजनागत गतिविधियां अब ‘ऑपरेशन से जुड़ी तैयारियों और ट्रेनिंग’ के तहत दिखा दी जाएंगी. इसलिए हमें कुछ पता भी नहीं चलेगा.
रियर एडमिरल सुधीर पिल्लई, जो कि नेवल एविएशन के पूर्व फ्लैग ऑफिसर थे, ने ट्विटर पर लिखा: ‘उम्मीद है इस तरह के उड़ान की कीमत तय करने की प्रणाली होगी और ‘आउटकम बजट’ के सिद्धांतों के तहत इसकी समीक्षा होगी. आउटकम बजट के जरिए किसी भी मंत्रालय के खर्च का हिसाब-किताब और उस पर नियंत्रण रखा जाता है ताकि खर्च का अनुशासन बना रहे. इसकी हर तीन महीने पर जांच भी होती है.’
भारत में लोक स्वास्थ्य के क्षेत्र में दीर्घकालिक निवेश और आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है. पुलिस सुधार की जरूरत को हर सरकार दरकिनार कर देती है. कोरोना योद्धाओं को पीपीई चाहिए, बेहतर मजदूरी चाहिए, काम करने के बेहतर हालात और संरक्षणवादी शासन से सुरक्षा चाहिए. उन्हें खाली प्रतीकवाद नहीं चाहिए. इस सैन्य-तमाशे से उन्हें क्या मिलेगा ये किसी समझदार व्यक्ति को समझ नहीं आ रहा. और इसके खिलाफ कोई आवाज भी नहीं उठा रहा. हम जो बनते जा रहे हैं उससे सावधान रहने की जरूरत है.
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