सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे सीनियर जजों ने शुक्रवार को जो विस्फोटक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, उससे वैसी तकलीफ नहीं होनी चाहिए थी, जैसी हो रही है. इसके बाद जजों ने जो चिट्ठी जारी की, उससे साफ हो गया कि उन्होंने जो सवाल उठाए, वो न्यायिक प्रक्रिया और परंपरा से जुड़े हैं. इससे खास बेंच को चुनिंदा मामले सौंपे जाने की बात भी सामने आई. यह संकेत भी मिला कि किस आधार पर मुकदमे बेंच को सौंपे जा रहे हैं.
हालांकि, यह मामला जैसे मुकदमों से जुड़ा हुआ है और चार जजों ने जिस तरह विवाद को परदे के पीछे रखने के बजाय सार्वजनिक करने का फैसला किया, वह हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पड़ाव है.
कार्यपालिका की विश्वसनीयता कम है
आज देश के संस्थान संकट का सामना कर रहे हैं. वहीं, नीति-निर्माताओं और कार्यपालिका की नुमाइंदगी जो राजनीतिक वर्ग कर रहा है, उस पर लोग ऐतबार नहीं करते. ऐसे में लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है. निष्पक्ष न्यायपालिका इसकी बुनियाद है.
कोई छोटा अपराध हो या संवैधानिक संकट से जुड़ा मामला, जनता मानती है कि निष्पक्ष जज इंसाफ करेंगे. इसीलिए लोकतंत्र पर लोगों का भरोसा बना हुआ है.
स्वायत्तता है न्यायपालिका की आत्मा
सरकार के दूसरे अंगों से अलग स्वायत्तता न्यायपालिका की आत्मा है. इस आजादी का मतलब सिर्फ सरकार के उसके कामकाज में दखल नहीं देने तक ही सीमित नहीं है. इसका मतलब यह भी है कि कोर्ट को भी किसी पूर्वग्रह से ग्रस्त नहीं होना चाहिए.
जस्टिस चेलमेश्वर की यह बात बिल्कुल सही है कि हमारे लोकतंत्र की ताकत काफी हद तक अदालतों की विश्वसनीयता पर निर्भर करती है.
यह कहना गलत नहीं होगा कि न्यायपालिका और सेना देश के दो सबसे सम्मानित संस्थान हैं, लेकिन इनकी विश्वसनीयता उनके पारदर्शी कामकाज के तरीके की वजह से है. इसी वजह से अदालतों का फैसला बहुत लंबा होता है. उसमें फैसले के आधार के बारे में तफसील से जानकारी दी जाती है.
देश के लिए चिंता की बात
इसलिए जब सुप्रीम कोर्ट के चार माननीय जज (मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर) प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं, तो यह देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए. इन लोगों ने मीडिया को संबोधित करने का अप्रत्याशित कदम उठाया. इससे साबित होता है कि सुप्रीम कोर्ट की अंदरूनी प्रशासनिक व्यवस्था इस मसले को सुलझाने में नाकाम रही. जैसा कि चार जजों ने बताया कि सिर्फ प्रशासनिक सहूलियत के लिए मुख्य न्यायाधीश का ओहदा सबसे ऊपर माना जाता है. यह एक परंपरा रही है.
यह भी समझ बनी रही है कि कोर्ट के प्रशासनिक मामलों में कॉलेजियम के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श करके और मिल-जुलकर फैसले किए जाएंगे. ऐसे में इस विवाद का समाधान खुद न्यायपालिका को निकालना होगा, यह काम उनके लिए कोई और नहीं कर सकता.
ताकि अंगुली न उठे
चार जजों ने चिट्ठी में दो मुकदमों का संकेत दिया है, जो उन्हें परेशान कर रहा है. यह कहना गलत नहीं होगा कि सीजेएआर केस को लेकर लीगल कम्युनिटी और पूरे देश में चिंता जाहिर की गई थी.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में जस्टिस गोगोई ने यह संकेत भी दिया कि जज लोया के मुकदमे को किस तरह हैंडल किया जाना चाहिए, इसे लेकर सीनियर जजों में मतभेद है. न्यायपालिका को इस तरह से काम करना चाहिए, जिससे किसी के अंगुली उठाने की गुंजाइश न रहे.
सरकार पर भी सवाल
इस मामले से केंद्र सरकार की तरफ भी अंगुलियां उठ रही हैं. चारों जजों ने अपनी चिट्ठी में हायर ज्यूडिशियरी में जजों की नियुक्ति में सरकार की नाकामी की तरफ इशारा किया है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने जजों की नियुक्ति के लिए संसद से पास एनजेएसी कानून, 2014 को रद्द कर दिया था, लेकिन उसने हायर ज्यूडिशियरी के लिए जजों की नियुक्ति की खातिर मेमोरैंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) की जरूरत मानी थी.
चिट्ठी में लिखा गया है कि देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने मार्च, 2017 में एमओपी का फाइनल वर्जन केंद्र सरकार के पास भेजा था, लेकिन अभी तक उसकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है. इससे केंद्र सरकार पर सवाल खड़े होते हैं. खास तौर पर इस वजह से, क्योंकि देशभर में कई ज्यूडिशियल वेकेंसी हैं, जिन्हें भरा जाना है.
चिट्ठी में यह भी कहा गया है कि जजों की नियुक्ति के लिए एमओपी बहुत महत्वपूर्ण है. अदालत की सहमति के साथ मुख्य न्यायाधीश को इस पर चर्चा करनी चाहिए.
जजों के मीडिया से बात करने को कुछ लोग गलत बता सकते हैं. कुछ लोग यह भी कहेंगे कि अगर मुख्य न्यायाधीश ने उनके साथ बात करके मसले का हल निकाल लिया होता, तो यह नौबत नहीं आती. हालांकि अब इन बातों को कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जो होना था, वह हो चुका है.
मीडिया ने इस संकट को पूरी डिटेल के साथ टीवी चैनलों पर दिखाया. हमें यह भी याद रखना चाहिए कि मीडिया हमारे लोकतंत्र का सबसे जिम्मेदार संरक्षक नहीं रहा है. यह विवाद देश के सामने है और देश चाहता है कि लोकतंत्र के हित में इसे हल किया जाए.
मुख्य न्यायाधीश और जजों को इसे सुलझाने की पहल करनी होगी. जजों ने देश के संविधान की रक्षा की शपथ ली है. इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए अदालतों का स्वायत्त होना और संविधान की रक्षा के धर्म को निभाना जरूरी है.
(संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अंडर-सेक्रेटरी-जनरल शशि थरूर कांग्रेस के सांसद और लेखक हैं. उनसे @ShashiTharoor पर संपर्क कर सकते हैं. इस लेख में उनके विचार हैं , इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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