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SC/ST सब-क्लासिफिकेशन का सामाजिक न्याय पर पड़ेगा बड़ा प्रभाव

आरक्षण नीति नागरिकों के एक वर्ग के पिछड़ेपन की सीमा के प्रति उदासीन नहीं हो सकती.

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सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुरुवार, 1 अगस्त को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) का उप-वर्गीकरण (Sub-Classification) किया जा सकता है.

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ (Chief Justice DY Chandrachud) की अगुवाई वाली संवैधानिक पीठ ने 6:1 से फैसला सुनाया और शीर्ष अदालत के 2005 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकारों को आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों की उपश्रेणियां बनाने का कोई अधिकार नहीं है. 2005 के ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार (EV Chinnaiah v State of Andhra Pradesh) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जातियां एक समरूप समूह (homogeneous group) हैं और उन्हें आगे उपवर्गीकृत नहीं किया जा सकता है.

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लेकिन अब, सामाजिक न्याय पर प्रभाव डालने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि कोटे के भीतर कोटा संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता के अधिकार के खिलाफ नहीं है.

हालांकि, शीर्ष अदालत ने माना कि सब-क्लासिफिकेशन ‘मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य’ डेटा के आधार पर होना चाहिए. राज्य न तो किसी उपवर्ग के लिए 100 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित कर सकता है और न ही अपनी मर्जी या राजनीतिक लाभ के आधार पर कार्य कर सकता है; इसके निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं.

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उप-वर्गीकरण का मामला कई सालों से भारत की राजनीतिक और कानूनी व्यवस्था के लिए एक बड़ा मुद्दा बना हुआ था. इन समुदायों के एक वर्ग ने संविधान से मिले अधिकारों का समान वितरण सुनिश्चित करने की मांग की है.

2020 में पंजाब सरकार बनाम दविंदर सिंह (State of Punjab v Davinder Singh) मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुआई वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने कहा था कि राज्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को केंद्रीय सूची में उप-वर्गीकृत कर सकते हैं ताकि कमजोर लोगों में से सबसे कमजोर लोगों को तरजीह दी जा सके. इसके बाद मामले को सात जजों की बेंच के पास भेज दिया गया था.

यह मामला पंजाब सरकार द्वारा बनाए गए एक कानून- पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 से जुड़ा है, जिसमें यह प्रावधान है कि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 50 प्रतिशत सीटें वाल्मीकि और मजहबी सिखों को वरीयता के आधार पर दी जाएंगी.

2010 में पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने ईवी चिन्नैया मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार मानते हुए इस प्रावधान को रद्द कर दिया था. इसके बाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई और सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने मामले को सात जजों की पीठ को भेज दिया, जिसने अब अपना फैसला सुनाया है.

आरक्षण लागू होने से अंतर-वर्गीय संरचना प्रभावित हुई और एक ऐसा अभेद माहौल बना, जिसने आरक्षण के लाभों को सर्वाधिक वंचित वर्ग तक पहुंचने से रोक दिया.

जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले कहा था, "नागरिकों को हमेशा के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा नहीं माना जा सकता; जो लोग ऊपर आ गए हैं उन्हें क्रीमी लेयर की तरह बाहर रखा जाना चाहिए".

उप-वर्गीकरण से संवैधानिक दृष्टि को बढ़ावा

संविधान के अनुच्छेद 16(4) में कहा गया है, “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए कोई प्रावधान करने से नहीं रोकेगी, जिसका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है.” अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को भी नागरिकों के पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया है.

इससे पता चलता है कि आरक्षण की संवैधानिक योजना एक सकारात्मक भेदभाव तंत्र है, जो शिक्षा और रोजगार में असंतुलन को ठीक करके समान न्याय प्रदान करने पर आधारित है.

इसलिए, अगर किसी वर्ग का एक हिस्सा दूसरे को ताक पर रखकर असंगत फायदा उठाता है, तो उस वर्ग का उप-वर्गीकरण संविधान की भावना के अंतर्गत सही है.

पिछड़े वर्गों तक आरक्षण लाभों का समान वितरण सुनिश्चित करने के लिए वरीयता प्रदान करना समानता के अधिकार का एक पहलू है, जो संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है.

जैसा कि जस्टिस अरुण मिश्रा ने संवैधानिक पीठ की ओर से लिखा, “राज्य को विभिन्न वर्गों के बीच गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर का ध्यान रखने और सुधारात्मक उपाय करने की शक्ति से वंचित नहीं किया जा सकता. जब आरक्षण पहले से आरक्षित जातियों के भीतर असमानताएं पैदा करता है, तो राज्य द्वारा उप-वर्गीकरण करके इसका ध्यान रखा जाना आवश्यक है, ताकि राज्य की उदारता कुछ हाथों में केंद्रित न हो और सभी को समान न्याय मिल सके."

इस वजह से सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की पीठ ने अपने ताजा फैसले में ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए फैसले को खारिज कर दिया है. उस फैसले में कहा गया था कि राज्यों को एकतरफा रूप से “अनुसूचित जाति के लोगों के एक वर्ग के अंतर एक अन्य वर्ग बनाने” की अनुमति देना राष्ट्रपति की सूची के साथ छेड़छाड़ करने के समान होगा (ऐसा ही कुछ जस्टिस त्रिवेदी ने भी कहा है, जिन्होंने 2024 के फैसले में असहमति जताई है).

उप-वर्गीकरण से न तो आरक्षण खत्म होगा और न ही यह किसी को इससे अलग करता है. इसके बजाय, इसका उद्देश्य केवल एक समूह के आरक्षण से वंचित होने की समस्या का समाधान करना है, जिसका अन्य समूह असमान रूप से फायदा उठाते हैं.

एक वर्ग को मिले कुल आरक्षण में से उसका कुछ हिस्सा एक उपवर्ग को देने से उस वर्ग को मिल रहा लाभ खत्म नहीं होगा.

जस्टिस अरुण मिश्रा ने अपने फैसले में कहा कि राष्ट्रपति/केन्द्रीय सूची में उप-वर्गीकरण करना उसमें छेड़छाड़ नहीं है. किसी भी जाति को सूची से बाहर नहीं किया जा रहा है. राज्य आंकड़ों के आधार पर व्यावहारिक तरीके से केवल सबसे कमजोर लोगों को वरीयता देगी.

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अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समरूप नहीं हैं

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के उप-वर्गीकरण पर आपत्ति इस आधार पर हो सकती है कि अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां समरूप हैं और आरक्षण की संवैधानिक योजना के लिए उन्हें अपने आप में एक वर्ग के रूप में माना जाना चाहिए.

लेकिन, जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने केरल सरकार बनाम एनएम थॉमस (State of Kerala v N M Thomas) मामले में कहा, संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 (एससी और एसटी आरक्षण से संबंधित प्रावधान) को सरलता से पढ़ने पर यह सर्वोत्कृष्ट अवधारणा सामने आती है कि वे (अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां) जातियों, मूलवंशों, समूहों, जनजातियों, समुदायों का मिश्रण हैं, जो जांच में सबसे निम्न पाए गए हैं और जिन्हें बड़े पैमाने पर सरकारी सहायता की जरूरत है और राष्ट्रपति द्वारा उन्हें इस रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिए.

केन्द्रीय सूची में अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां एक समरूप समूह नहीं हैं. जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के 2020 के फैसले में उल्लेख किया गया है, एक समरूप वर्ग बनाने की आड़ में फलों की पूरी टोकरी दूसरों की कीमत पर शक्तिशाली लोगों को नहीं दी जा सकती.

वास्तविक रूप से पिछड़े लोगों को लाभ पहुंचाना

आरक्षण ने आरक्षित जातियों के भीतर ही असमानताएं पैदा कर दी हैं. आरक्षित वर्ग के भीतर जातिगत संघर्ष चल रहा है क्योंकि आरक्षण का लाभ कुछ ही लोग हड़प रहे हैं.

इसलिए, आरक्षण नीति नागरिकों के एक वर्ग के पिछड़ेपन की सीमा के प्रति उदासीन नहीं हो सकती क्योंकि सकारात्मक कार्रवाई का मकसद सबसे अधिक दबे-कुचले और सबसे वंचित लोगों का उत्थान करना है.

अगर अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत एक वर्ग के लोगों को ऐसे लाभों से वंचित पाया जाता है, तो राज्य के पास संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के अंतर्गत आरक्षण के लिए ऐसे समूह बनाने की विशेष विधायी शक्ति है.

ऐतिहासिक इंद्रा साहनी फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी, “किसी राज्य द्वारा पिछड़े वर्गों को पिछड़ा और अधिक पिछड़ा के रूप में वर्गीकृत करने पर कोई संवैधानिक या कानूनी रोक नहीं है…”

अगर उन सभी का एक ग्रुप बना कर दिया जाए और आरक्षण दे दिया जाए, तो इसका यह परिणाम होगा कि कम पिछड़े सभी आरक्षित पदों को ले लेंगे और अधिक पिछड़ों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा.

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इंद्रा साहनी मामले में कोर्ट ने आगे कहा कि, "अगर जोड़ने वाली कड़ी सामाजिक पिछड़ापन है, तो यह मोटे तौर पर किसी भी वर्ग में समान होना चाहिए. अगर कुछ सदस्य सामाजिक रूप से बहुत अधिक एडवांस हैं (जिसका अर्थ इस संदर्भ में अनिवार्यतः आर्थिक रूप से और शैक्षिक रूप से भी हो सकता है) तो उनके और शेष वर्ग के बीच का संपर्क सूत्र टूट जाता है. वे उस वर्ग में फिट नहीं होंगे. सिर्फ उन्हें बाहर करने के बाद क्या वो वर्ग जुड़ा रहेगा? इस तरह के बहिष्कार से वास्तव में पिछड़े लोगों को लाभ होता है."

वसंत कुमार मामले में जस्टिस चिन्नप्पा रेड्डी ने कहा: "हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सिद्धांततः पिछड़े वर्गों और अधिक पिछड़े वर्गों में वर्गीकरण क्यों नहीं किया जा सकता, जबकि दोनों वर्ग न केवल थोड़े पीछे हैं, बल्कि सबसे एडवांस वर्गों से बहुत पीछे हैं. वास्तव में, अधिक पिछड़े वर्गों की सहायता के लिए ऐसा वर्गीकरण जरूरी होगा; नहीं तो पिछड़े वर्गों के वे लोग, जो अधिक पिछड़े वर्गों की तुलना में थोड़े अधिक एडवांस होंगे, सभी सीटें उनके पास चली जाएगी."

सब-क्लासिफिकेशन के लिए सावधानी बरतने की जरूरत

हालांकि, राज्यों को संवैधानिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियाों के सब-कैटिगराइजेशन या सब-क्लासिफिकेशन करते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए.

इंद्रा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी देते हुए कहा था, "हालांकि, वास्तव में दिक्कत लाइन खींचने में है- लाइन कैसे और कहां खींची जाए? लाइन खींचते समय यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि एक हाथ से जो दिया गया है उसे दूसरे हाथ से छीन न लिया जाए. बाहर निकालने का आधार केवल आर्थिक नहीं होना चाहिए, जब तक कि आर्थिक उन्नति का मतलब सामाजिक उन्नति न हो.”

जम्मू और कश्मीर सरकार बनाम त्रिलोकी नाथ खोसा एवं अन्य (Jammu and Kashmir v Triloki Nath Khosa and Ors.) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, "इसलिए, वर्गीकरण वास्तव में पर्याप्त अंतरों पर आधारित होना चाहिए जो एक साथ समूहीकृत व्यक्तियों को समूह से बाहर रखे गए व्यक्तियों से अलग करते हों और ऐसे विभेदकारी विशेषताओं का, तय उद्देश्यों के साथ न्यायोचित और तर्कसंगत संबंध होना चाहिए."

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इस प्रकार, सात न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के साथ भारतीय न्यायशास्त्र का समापन अब इस प्रकार होता है:

  1. अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों का सब-कैटिगराइजेशन या सब-क्लासिफिकेशन, वंचितों के पक्ष में सकारात्मक कार्रवाई के संवैधानिक दृष्टिकोण को आगे बढ़ाता है.

  2. ऐसे में उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है जो समानता की गारंटी देता है.

  3. सब-क्लासिफिकेशन संविधान के अनुच्छेद 341 का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि उक्त अनुच्छेद आरक्षण का आधार नहीं है, बल्कि केवल अनुसूचित जातियों की पहचान के लिए प्रक्रिया प्रदान करता है.

  4. अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां समरूप नहीं हैं, बल्कि जाति, समुदाय आदि का मिश्रण हैं, और इसलिए उप-वर्गीकरण उचित वर्गीकरण की कसौटी पर खरा उतरता है.

  5. संविधान का अनुच्छेद 16(4) या कोई अन्य संवैधानिक प्रावधान राज्य को आरक्षित श्रेणियों का उप-वर्गीकरण करने से नहीं रोकता है.

  6. हालांकि, उप-वर्गीकरण प्रायोगिक आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए जो न्यायिक जांच का सामना कर सकें.

  7. आरक्षण की नीति, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों की स्थिति में समय के साथ होने वाले मात्रात्मक और गुणात्मक बदलाव के मद्देनजर स्थिर और अनभिज्ञ नहीं रह सकती.

  8. वास्तव में, उप-वर्गीकरण नहीं होने से आरक्षण का लाभ ‘अधिक पिछड़े’ लोगों की कीमत पर ‘कम पिछड़े’ लोगों द्वारा हड़प लिया जाएगा.

  9. हालांकि, राज्य को इस बात को लेकर सतर्क रहना चाहिए कि उप-वर्गीकरण के लिए सीमांकन रेखा कहां और कैसे खींची जाए.

  10. राजनीतिक फायदा या राज्य की सनक उप-वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकती.

अंत में, भारतीय नागरिक यह सोच रहे हैं कि हमारा न्यायशास्त्र हमें आगे कहां ले जाएगा. क्या यह ऐतिहासिक फैसला वाकई में यह दर्शाता है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, और हम सभी समान स्तर पर खड़े हैं? या यह एक मानव पिरामिड है जो बस ढहने का इंतजार कर रहा है?

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