पठान के शाहरुख खान और भारत जोड़ो यात्रा के राहुल गांधी. एक पर्दे के 'राज', दूसरे को विपक्ष कहता है 'युवराज'. संयोग ही है कि लगभग 'सौतेली' हो चुकी मीडिया की सुर्खियों में दोनों ने इन दिनों 'ममता' पाई है. संयोग ही है कि पूछा जा रहा है कि क्या पठान की कामयाबी से शाहरुख की डूबती नैया संभलेगी? लगभग उसी सांस में पूछा जा रहा है कि क्या भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी कांग्रेस की डूबती नैया को संभाल पाएंगे? फौरी तौर पर तो यही लगता है कि शाहरुख और राहुल गांधी दोनों ने जमकर 'कमाई' की है. लेकिन क्या ये 'धन' टिकने वाला है?
शाहरुख खान
शुरुआती दिनों में शाहरुख की पठान ने बॉक्स ऑफिस पर कई रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. बुधवार से लेकर रविवार पठान पर दर्शक नोट उड़ाते नजर आए. लेकिन अहम सवाल है कि ये शाहरुख के प्रति दर्शकों की ममता है या फिल्म की क्षमता. कोविड के बाद का दौर, शाहरुख जैसे सुपरस्टार का शोर और मौसम भी पुरजोर, यानी मौका भी है और दस्तूर भी. फिल्म में ऐसी कम ही चीजें नजर आती हैं जो इसे ब्लॉक बस्टर बना दे. इससे पहले कि शाहरुख के फैन्स 'रक्तबीज' लेकर मेरे पीछे पड़ जाएं, मेरे कुछ सवाल हैं.
क्या आपने हॉलीवुड में सालों पहले बर्फ पर बाइकिंग वाला सीन नहीं देखा है?
क्या आपने ट्रेन पर फाइट सीन नहीं देखे हैं?
क्या आपने जासूसी की ऐसी कहानियां नहीं देखी हैं?
क्या आपको पठान के विजुअल और साउंड इफेक्ट देखकर साउथ की फिल्मों की याद नहीं आई?
क्या आपको अल्लू अर्जुन से लेकर महेश बाबू और विजय ऐसे ही विलेन को उड़ा उड़ाकर मारते नहीं दिख चुके हैं?
ऐसा लगता है कि इस फिल्म में दक्षिण से लेकर पश्चिम तक की बेस्ट चीजें लेकर चिपका दी गई हैं. कहते हैं नकल में भी अकल की जरूरत है. और यहां ये काम शाहरुख ने बखूबी किया है. जब वो एक्शन के सीन कर रहे हैं तो जबरिया कोशिश नहीं लग रही. (वैसे एडिटर की तारीफ करना मत भूलिएगा). कहानी में ट्विस्ट और टर्न हैं, जो जासूसी पटकथाओं के लिए जरूरी है.
ये देश शाहरुख से प्यार करता है. दो पीढ़ियां उनकी मुरीद हैं. उनका टूटता सितारा चमकता रहे, इसके लिए शाहरुख की कोशिश में दर्शकों ने दिल लगा दिया है. वैसे भी जब बात आस्था की हो तो तर्क के लिए जगह कहां?
आस्था ने अपना काम कर दिया है. 25 जनवरी से 29 जनवरी तक पठान का जश्न जारी रहा. 30 तारीख को जब वीकेंड खत्म हुआ तो रविवार की तुलना में शायद कलेक्शन आधे से भी कम पर आ गया है. इसे किंगखान की किंगसाइज फिल्म बनना है तो क्या वीकेंड और क्या हफ्ते का कामकाजी दिन, पार्टी जारी रहनी चाहिए.
बॉलीवुड को फिर से बॉक्स ऑफिस का बादशाह बनना है तो नकल से नहीं असल से हो पाएगा. और ये बात शाहरुख से लेकर आमिर खान, अक्षय कुमार और सलमान खान तक पर लागू होती है. फैंटसी हो या रियल, कंतारा से लेकर बाहुबली तक, भारत दिखा तो बिन भाषा की दीवारें टूट गईं, कमाई के रिकॉर्ड टूट गए. किरावनी ने अपनी धुन बजाकर कहा कि 'नाचो-नाचो' देश ही नहीं दुनिया नाच रही है.
बॉक्स ऑफिस छोड़िए गोल्डन ग्लोब से ऑस्कर की आस जगी है. तकनीक से लेकर लोकेशन तक और पटकथा से लेकर परिधान तक, ओटीटी के जमाने में और उस जमाने में जब मार्वल वाले न्यू यॉर्क और न्यू दिल्ली में एक ही दिन फिल्में रिलीज करते हैं, तो भारतीय दर्शकों को चौंकाना मुश्किल है.
क्रिकेट से लेकर स्टार्टअप तक ये देश अपने रंग में है, अपने रंग देखना चाहता है. पिछली कुछ सफल फिल्मों और वेब सीरीज को याद कीजिए तो आपको कहीं वासेपुर, कहीं मिर्जापुर और कहीं पंचायत दिखेगी.
जब हॉलीवुड 'अवतार' ले चुका, जब साउथ 'बाहुबली' बन चुका तो हिंदी हार्ट लैंड के दिल तक पहुंचने के लिए दिल की बात कहनी होगी. अपनी कहानियों पर लौटना होगा, लिखने वालों के पास लौटना होगा. कहानी ही सुपर स्टार है. अफसोस बॉलीवुड की आखें सितारों की चमक से अब भी चौंधियाई हुई हैं. कलम ही वो बुनियाद है जिसपर फिल्मों को खड़ा होना होगा. वो नहीं तो सुपर स्टार हो या तकनीक, भव्य इमारत नहीं बनेगी. अफसोस बॉलीवुड के पास ऑरिजनल कहानियां नहीं हैं.
दक्षिण और पश्चिम से टीपेंगे तो नंबर दो बनेंगे, नंबर एक नहीं. ऐसा नहीं है कि हिंदी में लिखने वाले नहीं हैं, अफसोस इस बात का है कि बॉलीवुड में जिनके पास पैसा है वो लिखने वालों की इज्जत करने को आज भी तैयार नहीं.
राहुल गांधी
भारत जोड़ो यात्रा 3,500 किलोमीटर तय कर खत्म हुई. 12 राज्यों से गुजरी इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने कुछ अच्छी सुर्खियां बटोरीं. जिस मीडिया ने लगभग पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया था, उसे नजर-ए-इनायत करनी पड़ी. यात्रा के दौरान की कई तस्वीरें, कई वीडियो वायरल हुए. कभी राहुल गांधी सोनिया गांधी के जूतों के फीते बांधते दिखे, कभी किसी बच्ची को कंधे पर लेकर चलते हुए नजर आए तो कभी अपनी बहन के साथ इमोशनल पल दिखाए.
कर्नाटक में बारिश में बोलते रहे तो कश्मीर में बर्फबारी के बीच भाषण देते रहे. ये सब गुड टेलीविजन है, सो गोदी मीडिया भी गोदी से उतर कर यात्रा में 'सहयात्री' बन गया. सुषुप्त अवस्था में जा चुकी पार्टी और उसका नेता जमीन पर उतरा, थोड़ी कोशिश तो जनता को अच्छा लगा है. उम्मीद बंधी है. तो वो साथ-साथ चला. उसने उसका दिया. हाइप अच्छा क्रिएट हुआ. पॉलिटिक्स में परसेप्शन की अहमियत है, तो इसका फायदा जरूर मिलेगा.लेकिन क्या इतना रन बनेगा कि मैच जीत जाएं?
शाहरुख की तरह राहुल गांधी की अपनी फैन फॉलोइंग है. लेकिन राहुल को चाहने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर क्या ये कह सकते हैं कि इससे राहुल गांधी की रुकी हुई गाड़ी चल पड़ेगी? कांग्रेस की फ्लॉप कहानी सुपरहिट हो जाएगी?
अच्छी बात है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कई मौके आए जब राहुल ने मेहनत करने का जज्बा दिखाया है. वो नए लोगों से जुड़े हैं-नए लोग उनसे जुड़े हैं. अपने बारे में परसेप्शन को कुछ हद तक बदला है, अब पार्टी को भी ऐसा ही कुछ करना होगा. ग्राउंड लेवल के नेताओं और कार्यकर्ताओं तक ये बात पहुंचानी होगी कि मेहनत करनी होगी.
फिल्म एक अभिनेता से नहीं बनती, पार्टी एक नेता से नहीं बनती. दूसरों की, दूसरों के हुनर की इज्जत करनी होगी, उनका इस्तेमाल करना होगा. 'राज' से लेकर 'युवराज' दोनों के लिए ये जरूरी है. न शाहरुख खान के पास काबिल लोगों की कमी है और न ही राहुल गांधी के पास.
शाहरुख के साथ ही अगर राहुल गांधी को भी अच्छी ओपनिंग की पार्टी जारी रखनी है तो बेसिक्स ठीक करने होंगे. नहीं तो सुर्खियों का सुख क्षणिक हो सकता है. 'पठान' हो या 'तपस्वी' को अच्छी ओपनिंग मिली है. हैप्पी एंडिंग का इंतजार रहेगा. परदे को भी पॉलिटिक्स को भी.
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