वोट को ध्यान में रखकर होगा लोकलुभावन बजट!- चाणक्य
चाणक्य हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि 2022 का आम बजट दो महत्वपूर्ण घटनाओं की पृष्ठभूमि में पेश किया जा रहा है. एक, एअर इंडिया की टाटा समूह के हाथों सुपुर्दगी और दूसरा, देश के पहले बैड बैंक के लिए औपचारिकताएं पूरी होना. साफ है कि ऐसे सुधार जारी रहेंगे. कर राजस्व का लक्ष्य आसानी से पूरा होता दिख रहा है और ऐसे में एलआईसी के आंशिक विनिवेश में भी संदेह नहीं रह गया है जो आईपीओ के जरिए मार्च में होने वाला है. बैड बैंक का असर भी बैंकों पर अगले साल से दिखने लगेगा.
चाणक्य सवाल उठाते हैं कि बीते बजट में महामारी का असर था तो 2022-23 के बजट में किस बात पर जोर रहने वाला है? इसमें संदेह नहीं कि यह बजट वोटों को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा लोकलुभावन बजट हो. इस पर विचार से पहले कुछेक आर्थिक संदर्भों की चर्चा करना जरूरी है.
भारतीय अर्थव्यवस्था 2021-22 और 2022-23 में 9 फीसदी और 2023-24 में 7.1 फीसदी की रफ्तार से बढ़ती दिख रही है. इसका मतलब यह है कि 2019-20 में जो आकार भारतीय अर्थव्यवस्था का था उससे थोड़ा ज्यादा यह 2021-22 के अंत तक हो सकता है.
इस पृष्ठभूमि में वित्तमंत्री आम बजट में शिक्षा पर जोर दे सकते हैं. महामारी के दौर में स्कूली शिक्षा बुरी तरह प्रभावित रही थी. अल्पकालिक रोजगार पैदा करने के लिए ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम की तर्ज पर इसे शहरों में भी शुरू किया जा सकता है. निजी निवेश के लिए वातावरण बनाने पर जोर दिया जा सकता है.
कृषि के लिए नयी घोषणाएं भी संभव हैं. इसके अलावा बीते साल घोषित राहत पैकेज को एक और साल के लिए बढ़ाया जासकता है जिसके तहत गरीब घरों तक अनाज पहुंचाने का प्रावधान है. करदाता वर्ग के लिए राहत की खबर भी सुनने को मिल सकती है. राजस्व घाटे को 6 फीसदी के स्तर पर बनाए रखने की पहल भी दिखनी चाहिए.
चुनावी बजट से गंभीर होंगी चुनौतियां-एके भट्टाचार्य
एके भट्टाचार्य ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन जब पिछला बजट पेश कर रही थीं तब के हालात और आज के हालात में बहुत फर्क है. संभवहै कि 2021-22 के लिए अतिरिक्त संसाधनों की आवश्यकता ना पडे. पिछले बजट में 30 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त संसाधन का प्रावधान किया गया था.
2021 के मुकाबले अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर नजर आती है. 2020-21 में 7.3 फीसदी की गिरावट के बजाए अर्थव्यवस्था 9.2 फीसदी की गति से विकसित हने को तैयार है.
हालांकि हालात ठीक नहीं हैं. असमानता बढ़ी है, रोजगार बढ़ाने की चुनौती हमारे सामने है. निजी खपत की मांग दो साल पहले की तुलना में आज भी कम है. मुद्रास्फीति लगातार बढ़ रही है.
एके भट्टाचार्य लिखते हैं कि कार राजस्व वृद्धि के मोर्चे पर प्रदर्शन अच्छा नहीं है. फिर भीकर दायरा बढ़ाने के क्षेत्र में प्रगति होती नहीं दिखती. जीडीपी में कर की हिस्सेदारी 9-10 फीसदी के स्तर पर ठहरी हुई है. 2018-19 में यह 11 फीसदी के स्तर पर थी.
विनिवेश राजस्व में कमी है. माना जा रहा है कि इसकी भरपाई अर्थव्यवस्था के आकार और खर्च के मोर्चे से हो जाएगी. कई सरकारी विभाग आवंटित राशि खर्च नहीं कर सके हैं. इससे राजकोषी घाटे को जीडीपी के 6.8 फीसदी के स्तर पर सीमित रखने में मदद मिलेगी.
2021 के बजट प्रतिबद्धता की बात करें तो एअर इंडिया को निजी हाथो में बेचना बड़ी उपलब्धि होगी. हालांकि इससे सरकार को महज 3 हजार करोड़ रुपये ही हासिल होंगे. वित्तमंत्री ऐसी घोषणाएं भी कर सकती हैं जिससे पांच राज्यो में चुनाव जीतने में मदद मिले. हालांकि इसकी कीमत आगे चलकर चुकानी होगी.
बुरे दौर में कांग्रेस- तवलीन सिंह
तवलीन सिंह ने जनसत्ता में लिखा है कि जिस सोनिया गांधी के बारे में कहा जाता था कि वे न होतीं तो कांग्रेस पार्टी शायद 20 साल पहले खत्म हो गयी होती, आज उन्हीं के बारे में कहा जा रहा है कि कांग्रेस के वर्तमान कमजोर हाल की जड़ वही हैं.
हालत इतनी खराब हो चुकी है कि बीते दो सालों में जिन नौजवान राजनेताओं को कांग्रेस अपने ताज के सबसे उज्जवल जवाहरात मानती थी कभी, वे एक केबाद एक भारतीय जनता पार्टी में भर्ती हो चुके हैं. हाल में कांग्रेस छोड़ने वाले आरपीएन सिंह ने कहा है कि केवल नरेंद्र मोदी देश के ले कुछ करते दिखते हैं. कांग्रेस अब वह दल नहीं है जो कभी हुआ करती थी.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि गांधी परिवार के सबसे वफादार लोग भी मानते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के पुत्रमोह ने कांग्रेस की जान निचोड़ ली है. कभी राहुल गांधी कहा करते थे कि कांग्रेस का नेतृत्व नयी पीढ़ी के हाथों में आना चाहिए, लेकिन जिस नयी पीढ़ी की वे बात कर रहे थे वे सब चले गये हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, हेमंत बिस्व सरमा, जितिन प्रसाद और अब आरपीएन सिंह.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि कांग्रेस के बुरे दौर के पीछे कई कारण हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण है कि सोनियाजी के दौर में दरबारियों को कार्यकर्ताओं से ज्यादा अहमियत दी गयी है. प्रियंका गांधी ने एक टीवी पत्रकार से बात करते हुए स्वीकार करती हैं कि कांग्रेस को जमीन से लेकर ऊपर तक फिर से निर्मित करना होगा. विचारधारा की कमजोरी की तरफ भी तवलीन सिंह ध्यान दिलाती हैं.
सेक्युलरिज्म के बारे में कभी कांग्रेस नेता बोलते नहीं थकते थे, अब चुप रहते हैं. राहुल गांधी गुरुद्वारों और मंदिरों में जाकर माथा टेकते हैं ठीक वैसे ही जैसे भाजपा के नेता करते हैं. गांधी परिवार के सदस्यों से हमने विचारों के बारे में कम सुना है.
नरेंद्र मोदी की आलोचना वे जरूरत से ज्यादा करते हैं. बारंबार विदेश जाने से भी राहुल की छवि कम गंभीर नेता की बनी है. राहुल प्रधानमंत्री के रूप में नंबर दो पर पसंद जरूर बने हुए हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के मुकाबले अंतर इतना ज्यादा है कि दूसरे नंबर पर होना भी बेमतलब हो जाता है.
सहकारी संघवाद से टकराववादी संघवाद की ओर देश
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 75 साल बाद भी तीन अक्षर आईएएस अपने में चुंबकी गुण समेटे हुए है. ये अक्षर सामाजिक रुतबा, अधिकार, 32 से 35 साल के लिए सुनिश्चित आमदनी, ताउम्र पेंशन, परिलब्धियां, चिकित्सा सुविधाएं और सामान्यता नौकरी संतुष्टि का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसी से मिलती-जुलती सेवा है पुलिस सेवा.
चार सौ पदों के लिए करीब दो लाख युवक-युवतियां चयन प्रक्रिया से जुड़ते हैं. ब्रिटिश शासन में आईएएस और आईपीएस को आसीएस और आईपी कहा जाता था और इसे ‘स्टील फ्रेम’ माना जाता था. अब यह रुतबा घटा है क्योंकि कई बुराइयां इस सेवा में घर कर गयी हैं. राजनीतिक संरक्षण की लालसा और राजनीतिक प्राधिकार में राजनीतिक संरक्षण की इच्छा इसकी मूल वजह है.
चिदंबरम लिखते हैं कि कैडर नियमों में बदलाव की जो मंशा केंद्र सरकार ने दिखलायी है उससे भी पता चलता कि स्टील का ढांचा टूट चुका है. पहले संशोधन का इरादा केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्त होने वाले अधिकारियों की अपर्याप्त संख्या की समस्या का हल निकालना है. लेकिन सवाल यह है कि ऐसी स्थिति बनी क्यों? केंद्रीय प्रतिनियुक्त में जाने से अधिकारी क्यों संकोच दिखाने लगे हैं?
लेखक पहला कारण मोदी सरकार के कामकाज की विषैली संस्कृति को मानते हैं. दूसरी वजह है काम के हालात. तीसरी वजह है पीएमओ में शक्तियों का जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण. निर्देश लेने के लिए रोजाना पीएमओ के सचिव का इंतजार करना पड़ता है. चौथा कारण है अधिकारियों की मनमानी तैनाती. लेखक का सुझाव है कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे सबसे पहले इन नकारात्मक पहलुओं को दूर करें. चिदंबरम लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी के राज में सहकारी संघवाद बहुत पहले ही दफन किया जा चुका है. अब हम टकराववादी संघवाद के दौर में प्रवेश कर चुके हैं.
बहुसंख्यक वर्चस्व के विचार से लड़ते रहे गांधी-रामचंद्र गुहा
रामचंद्र गुहा ने टेलीग्राफ में लिखा है कि दक्षिण अफ्रीका से लौटने के कुछ महीने बाद महात्मा गांधी ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस के छात्रों को संबोधित करते हुए अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले को याद किया जिनका कुछ हफ्ते पहले ही निधन हुआ था. उन्होंने कहा कि एक संन्यासी ने गोखले के सामने प्रस्ताव रखा कि आप सच्चे हिंदू हैं और इसलिए राजनीति ऐसी हो जिसमें मुसलमानों को दबाकर रखा जाए. अपनी बात के समर्थन उन्होंने कई धार्मिक कारण भी गिनाए. जवाब में गोखले ने कहा, “अगर हिंदू होने के लिए अगर मुझे वही करना है जो आप चाहते हैं तो पूरी दुनिया में यह बात बता दो कि मैं हिंदू नहीं हूं.”
रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 20वीं सदी के आरंभ में कुछ हिंदू राजनीतिज्ञों और धार्मिक हिंदुओं का दावा हुआ करता था कि संख्या में अधिक होने की वजह से देश की राजनीति और सरकार का नेतृत्व करने का अधिकार हिंदुओं का है. लेकिन, गांधी ने इस विचार को खारिज कर दिया.
उन्होंने भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने के दबावों को खारिज कर दिया. गांधी ने हमेशा हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ने का काम किया. गांधी की हत्या पर धीरेंद्र के झा की लिखी पुस्तक के हवाले से रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 40 के दशक में नाथूराम गोडसे का आरएसएस के साथ नजदीकी संबंध रहा था. गोडसे की तरह आरएसएस का भी मानना था कि देश की राजनीति और संस्कृति का नेतृत्व करने का हक हिंदुओं का है.
गुहा याद दिलाते हैं कि गांधीजी ने 1945 में एक बुकलेट लिखकर जिन कार्यक्रमों की रूपरेखा रखी थी उनमें पहला था- सांप्रदायिक एकता. छुआछूत का खात्मा, खादी का प्रचार, महिलाओँ की दशा सुधारना और सबके लिए आर्थिक समानता भी उन कार्यक्रमों में शामिल थे. जब दो साल बाद गांधी और कांग्रेस धर्म के आधार पर भारत के विभाजन के लिए राजी हो गये तब भी उन्होंने हार नहीं मानी.
अपनी सारी ऊर्जा मुसलमानों को यह विश्वास दिलाने में लगा दी कि उन्हें यहीं रहना चाहिए. लेखक ने विनोवा भावे के वक्तव्यों के हवाले से आरएसएस की सोच को मुस्लिम विरोध पर आधारित और नफरत फैलाने वाला बताते हैं. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद 2022 में एक बार फिर लोगों को तय करना है कि वे गांधी के बहुलतावादी और समावेशी दर्शन में विश्वास रखते हैं या कि उनकी सोच के खिलाफ खड़े हैं. यह बुद्धिमत्तापूर्ण और बहादुरी का रास्ता है और भारतीय गणतंत्र का भविष्य इसी पर निर्भर करता है.
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