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संडे व्यू : सुक्खू सरकार पर खतरा बरकरार, सरकारी आंकड़ों में खत्म होती गरीबी!

Sunday View: आज पढ़ें अदिति फडणीस, तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, प्रभु चावला और सुनंदा के. दत्ता रे के विचारों का सार.

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सुक्खू सरकार पर खतरा बरकरार

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि कांग्रेस ने बार-बार साबित किया है कि वह अपनी बड़ी दुश्मन स्वयं है. हिमाचल प्रदेश के हालिया घटनाक्रम भी इस बात की तस्दीक करते हैं. हिमाचल में कांग्रेस सरकार गिरने के कगार पर है और पार्टी के समर्थक अब तक सोच रहे हैं कि आखिर हालात अचानक कैसे बिगड़ गये. सुक्खू ने उम्मीदें जगाईं थीं कि वह संघर्षों का सामना करके नेता के तौर पर उभरे हैं और जमीनी स्तर पर लोगों से उनका सीधा जुड़ाव है. चुनावी जीत के बाद कांग्रेस को वीरभद्र परिवार की प्रतिभा सिंह/ विक्रमादित्य सिंह और सुखविंदर सुक्खू के बीच चयन करना था.

सुक्खू को प्रियंका गांधी और अधिसंख्य विधायकों का समर्थन प्राप्त था. सो, सुक्खू मुख्यमंत्री हो गये. चूंकि राज्य में केवल 12 ही मंत्री हो सकते हैं इसलिए वफादारों को पुरस्कृत करने के लिए अन्य तरीके अपनाए गये. जैसे एक मंत्री का विभाग लेकर दूसरे विधायक को दिया गया.

अदिति फडणीस लिखती हैं कि जिन विधायकों ने विभाग खो दिए उन्हें मंत्री रहते हुए सार्वजनिक तौर पर अपमान का सामना करना पड़ा. इनमें विक्रमादित्य भी शामिल हैं. पूर्व सीएम पीके धूमल को हराने वाले सुजानपुर के विधायक राजिंदर राणा को मंत्री नहीं बनाए जाने की शिकायत सामने आयी. उनका अतीत बीजेपी से है. उन्हें बीजेपी की सहानुभूति भी मिली. 15 में से 10 सीटें देने वाले कांगड़ा से एक ही मंत्री बना. प्रतिभा सिंह की लोकसभा सीट रही मंडी को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला. वहीं शिमला जिले से तीन मंत्री बने. सुक्खू ग्रामीण परिवेश से जुड़े जरूर हैं और जमीनी व्यक्ति भी. लेकिन, उनके बारे में कहा जाता है कि वे राजनेता नहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस आलाकमान को यह बात महसूस करनी चाहिए थी और उन्हें उचित सलाह व निर्देश देना चाहिए था. कांग्रेस को राज्यसभा सीट पर शर्मनाक तरीके से अपमान सहना पड़ा. यह तय है कि सुक्खू सरकार के लिए खतरा टला नहीं है.

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मोदी मुफासा हैं, मुख्यमंत्री सिम्बा

प्रभु चावला ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि नरेंद्र मोदी राजा शेर मुफासा हैं और राज्यों में उनके वफादार मुख्यमंत्री सिम्बा. 8 हफ्ते की लंबी वोट यात्रा पर निकले इन मुख्यमंत्रियों से बीजेपी को उम्मीद है कि इससे उनकी आभा का विस्तार होगा. बीजेपी के लिए मुख्यमंत्री दूसरा इंजन हैं. बीजेपी के 12 मुख्यमंत्रियों में छह पहली बार लोकसभा चुनाव में अपने राज्य का नेतृत्व करेंगे. इनमें शामिल हैं गुजरात, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और असम. महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में चुनाव होंगे. इन सात राज्यो में 158 सीटें हैं. बीजेपी और उसकी सहयोगी शिवसेना ने इनमें से 142 सीटों पर जीत हासिल की थी.

प्रभु चावला लिखतें हैं कि सभी मुख्यमंत्रियों को तीन मापदंडों पर परखा जाएगा- प्रदर्शन, कनेक्टिविटी और स्वीकार्यता. ज्यादातर मुख्यमंत्री आरएसएस और उसकी छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से हैं. मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की जगह कम चर्चित 58 वर्षीय मोहन यादव 19वें मुख्यमंत्री बने हैं. नपातुला जोखिम उठाया गया है. हिन्दुत्व के एजेंडे को मजबूती से आगे बढ़ा रहे हैं. वे मोदी की मंत्रमुग्ध कर देने वाली अपील को वोटों में बदलने के लिए बेहतर स्थिति में हैं. 26 सीटों वाले गुजरात में बीजेपी तीन दशक से सत्ता में है. भूपिंदर रजनीकांत पटेल पर दारोमदार है कि गुजरात से एक भी सीट नहीं हारने का रिकॉर्ड लोकसभा में बरकरार रखें. 25 सीटों वाला राजस्थान बीजेपी का सबसे कमजोर राज्य है. यहां भजनलाल शर्मा 14वें मुख्यमंत्री बने हैं. उनके पास नेतृत्व का अनुभव नहीं रहा है. मोदी के करिश्मा पर ही वे निर्भर हैं. 14 सीटों वाले असम में बीते चुनाव में बीजेपी ने 9 सीटें जीती थीं. अब नेतृत्व हेमंत बिस्वा शर्मा के पास है, जिन पर बीजेपी निर्भर करती है. शर्मा पर संख्या बढ़ाने का दबाव रहेगा.

प्रभु चावला लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ में विष्णु देव साई अनुभवी नेता हैं जो केंद्रीय मंत्री, पार्टी अध्यक्ष और राज्य मंत्री रह चुके हैं. 11 में से 9 सीटें जीतने वाली बीजेपी की उम्मीद उन पर टिकी है. उत्तराखण्ड में पुष्कर सिंह धामी लोकसभा चुनाव का नेतृत्व पहली बार कर रहे हैं. उन पर सभी पांच सीटें जिताने का दबाव है. विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी प्रधानमंत्री की पसंद होकर मुख्यमंत्री बने. कॉमन सिविल कोड लागू कर उन्होंने उम्मीद जगाई है. लेखक का मानना है कि प्रधानमंत्री को तीसरा कार्यकाल जीतने के लिए सहयोगियों की आवश्यकता नहीं है. वे स्वयं माध्यम और संदेश हैं. मुख्यमंत्री तो उनके दूत मात्र हैं.
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देश में कोई गरीब नहीं

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में गरीबी को लेकर नीति आयोग के दावे पर आश्चर्य जताया है. उन्होंने लिखा है कि नीति आयोग ने गरीबी का आंकड़ा 11.28 प्रतिशत बताया था. अब वह इसे 5 फीसद बता रहा है. इसके लिए वह राष्ट्रीय नमूना सर्लवेक्षण कार्यालय द्वारा प्रकाशित घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के नतीजों को आधार बना रहा है. प्रतिदिन 70 रुपये खर्च करने वाला ग्रामीण गरीब नहीं है और प्रतिदिन 100 रुपये खर्च करने वाला शहरी भी गरीब नहीं है. लेखक का दावा है कि नीति आयोग के हर अधिकारी को सरकार 2100 रुपए देकर गांव में भेज दे और फिर वे बताएं कि वहां उनका जीवन कितना रईसी वाला था.

चिदंबरम एचसीईसी के हवाले से बताते हैं कि भोजन की हिस्सेदारी ग्रामीण क्षेत्रो में घटकर 46 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 39 फीसदी हो गयी है. खाद्य उपभोग की मात्रा में बढ़त वैसी ही बनी हुई है या फिर धीमी गति से बढ़ रही है. एससी और एसटी सबसे गरीब सामाजिक समूह हैं. वे औसत से नीचे हैं. ओबीसी औसत के करीब हैं. राज्यवार आंकड़े भी कुछ अलग कहानी बयां करते हैं.

लेखक का कहना है कि उन्हें यह दावा परेशान करता है कि भारत में गरीब कुल आबादी के पांच फीसद से अधिक नहीं हैं. इसका निहितार्थ यह है कि गरीब एक लुप्त होती जनजाति है और हमें अपना ध्यान और संसाधनों का प्रवाह मध्यवर्ग और अमीरों की तरफ केंद्रित करना चाहिए. अगर यह दावा सच है तो सरकार 80 करोड़ लोगों की प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलो मुफ्त अनाज क्यों बांटती है? अगर गरीब पांच फीसद से ज्यादा नहीं हैं तो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 क्यों किया गया? यह खुलासा करता है कि 6 से 59 महीने की उम्र के बच्चे खून की कमी से पीड़ित हैं और उनका प्रतिशत 67.1 है. लेखक पूछते हैं कि क्या नीति आयोग ने दिल्ली की सड़कों पर भीख मांगते बच्चों की तरफ से अपनी आंखें बंद कर ली हैं? मनरेगा के तहत 15.4 करोड़ सक्रिय पंजीकृत श्रमिक क्यों हैं? उज्जवला लाभार्थी एक साल में औसतन केवल 3.7 सिलेंडर क्यों खरीद पाते हैं?

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गंदगी भगाना जरूरी

तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस में स्वच्छता, शिक्षा और स्वास्थ्य की अहमियत बतायी है. श्रीलंका दौरे पर ताजा अनुभव और अतीत के अनुभव की तुलना करते हुए वह लिखती हैं कि स्थिति बिल्कुल बदल गयी है. गांवों और शहरों में गुजरते हुए कहीं वैसी गंदगी नहीं दिखती जो भारत में नजर आती है. भारत के शहरों में नगरपालिकाएं कुछ हद तक सक्रिय हैं लेकिन गांवों की सीमाओं पर आपको गहर जगह दिखेंगे सड़ते कचरे के ढेर. इनके आस,पास ही होते हैं स्कूल, अस्पताल, रेस्तरां और बाजार. बरसात के मौसम में यह कचरा इन जगहों के अंदर बह जाता है. हमारे देश के अधिकतर बच्चे जब पांच बरस से कम उम्मर में ही मर जाते हैं तो कारण होताहै कोई न कोई ऐसी बीमारी जो गंदगी से पैदा हुई है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि दशकों तक हमारे शासकों ने इस गंदगी को अनदेखा किया है. गरीब होने को इसकी वजह बता दी जाती है. श्रीलंका हमसे कहीं ज्यादा गरीब देश है लेकिन सीख चुका है कि किस तरह कचरे के साथ निपटना चाहिए. वहां हर नगरपालिका और पंचायत की जिम्मेदारी है प्लास्टिक कचरे को अलग करके उसका रीसाइकलिंग करवाना. हर आम नागरिक की जिम्मेवारी है बाकी गीले कचरे से खाद बनाना. लेकिन, सबसे बड़ा कारण कि शासकों ने स्वच्छता पर ध्यान दिया है. भारत में नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने 2014 में लालकिले की प्राचीर से स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा की थी.

लेखिका का कहना है कि ग्रामीण स्कूलों और अस्पतालों को देखकर गहरी मायूसी होती है. मोदी की गारंटी के बावजूद पिछले दशक में खास परिवर्तन नहीं या है. अब जबकि मोदी की गारंटी है कि तीसरी बार भी वही प्रधानमंत्री बनने वाले हैं तो उनसे यही प्रार्थन है कि इन चीजों पर वे पूरा ध्यान दें जिन्हें पत्रकार भी मामूली मानते हैं.
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थ्योरी 'प्रलय के दिन' की

सुनंदा के दत्ता रे ने टेलीग्राफ में लिखा है कि भारत ऐसे चुनाव की ओर बढ़ रहा है जो विनाशकारी साबित होगा. सवाल यह नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी एक और शानदार जीत हासिल करेगी. सवाल यह है कि वह अपनी जीत का उपयोग कैसे करेगी. लेखक ने नीरद सी चौधरी से 1962 में मुलाकात और टाइम मैगजीन में शताब्दी श्रद्धांजलि के शब्दों की याद दिलायी है. अपने फ्लैट की बालकनी से सड़क के पार तंबू के बिखरे हिस्से पर लेखक की राय जानी थी. यह सुनकार कि वे निर्माण मजदूर हैं जो काम पूरा होने के बाद चले जाते हैं, उन्होंने कहा था, “वे कभी दूर नहीं जाएंगे. यह एक तरह से हिन्दू भारत का आगमन है.“

सुनंदा के दत्ता रे लिखते हैं कि नीरद सी चौधरी के मन में रुडयार्ड किपलिंग की लघु कहानी ‘द मिरेकल ऑफ पुरुण भगत’ की सौम्यता नहीं थी. इसमें लेखक ने नस्लवाद के आरोपों का खंडन करते हुए इस बात की पुष्टि की थी, “जब तक भारत में बांटने के लिए एक टुकड़ा है, न तो पुजारी और न ही भिखारी भूखा मरेगा.” लेखक उत्तराखण्ड को प्रतिष्ठित हिंदू मंदिरों का घर और हिमाचल को पहाड़ी पर पैरों की बड़ी जोड़ी बताते हैं. वे भारतीय की समावेशी परिभाषा गढ़ने में इन्हें सहायक मानते हैं. वे तीन नये कानूनों को सभी के लिए जीवन आसान बना देने वाला मानते हैं. नौकरशाही, विज्ञान और प्रोद्योगिकी, परिवहन और बुनियादी ढांचे में हुई सभी प्रगति को पहले की उपलब्धियों की ऋणी बताते हैं. इस बाबत आइजैक न्यूटन के कथन को याद करते हैं, “यदि मैंने आगे देखा है तो वह दिग्गजों के कंधों पर खड़ा होकर है.”

पानी के भीतर पूजा के बाद मोदी की घोषणा का भी लेखक जिक्र करते हैं. यह शासन व्यवस्था को देवताओं के स्तर तक ऊपर उठाता हुआ अहसास जगाता है. ‘भारत दैट इज इंडिया’ का स्वर अब ‘इंडिया दैट इज भारत’ नहीं रह गया है. अंग्रेजी कम कहने की भाषा है. यह वाणी और व्यवहार पर विशेष रूप से अभारतीय प्रतिबंध लगाता है. लेखक याद दिलाते हैं जब 700 तमिल हरिजनों द्वारा हिंदू रूढ़िवादिता के गुस्से और पीड़ा के कारण इस्लाम में परिवर्तित हो जाते हैं. तब आठ महीने बाद विद्वान डॉ करण सिंह ने अपने विराट हिंदू समाज की शुरुआत की. कुरुक्षेत्र के बाद से धर्म के नाम पर इतनी बड़ी संख्या में हिंदू इकट्ठे नहीं हुए थे. डॉ सिंह का संदेश था कि अस्पृश्यता धर्म का हिस्सा नहीं है बल्कि एक सामाजिक घटना है जिसे समाप्त किया जा सकता है. यदि कोई हिंदू एक पेड़, पत्थर और किसी भी चीज में भगवान की अभिव्यक्ति देख सकता है तो वह अपने साथी इंसान में भगवान को क्यों नहीं देख सकता?

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