जस्टिस एच आर खन्ना (Justice H R Khanna) न्यायिक स्वतंत्रता के सबसे बड़े प्रतीक थे. आपातकाल के दौरान बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले (एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला 1976) में उन्होंने असहमति जताई थी, जिसकी कीमत उन्हें चीफ जस्टिस (Chief Justice Of India) का पद गंवा कर चुकानी पड़ी थी.
हालांकि जब जजों के बीच बहुमत हुआ, तब एच आर खन्ना का जो निर्णायक मत था, उसने आने वाली भारतीय पीढ़ियों के लिए संविधान के मूलभूत ढांचे को बचा लिया.
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एक बार एक नवनियुक्त जज उनसे सलाह और आशीर्वाद लेने के लिए उनसे मिलने गए. खन्ना ने उनसे कहा कि जज के रूप में नियुक्त व्यक्ति द्वारा आसानी से ज्यादातर मुद्दों पर फैसला ले लिया जाता है.
हालांकि कुछ पल ऐसे भी आएंगे जहां सही के साथ खड़े रहने के लिए जज के साहस की परीक्षा होगी.
इस सलाह के बाद, उस जज ने एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और एक महत्वपूर्ण न्यायाधिकरण के अध्यक्ष के रूप में एक शानदार करियर बनाया.
जजों के कॉलेजियम ने जस्टिस एचआर खन्ना को नियुक्त नहीं किया था. सरकार ने मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद उन्हें नियुक्त करने का निर्णय लिया था.
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हालांकि जिस दौर में प्रतिबद्ध न्यायपालिका की जरूरत थी, वहां खन्ना दृढ़तापूर्वक अड़िग रहे, फिर आपातकाल के बाद का दौर आया, जहां सरकारी चहेतों की न्यायिक नियुक्तियां संस्था की निष्ठा के लिए खतरा बन गईं.
राम जेठमलानी का एक प्रसिद्ध कथन है :
"जज दो तरह के होते हैं. एक जो कानून को जानते हैं और दूसरे जो कानून मंत्री को जानते हैं."
न्यायपालिका को बचाने के लिए, फैसलों की एक श्रृंखला के द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्तियों के प्रस्ताव की प्रक्रिया पर एक तरह से नियंत्रण बना लिया जो सरकार के लिए बाध्यकारी होगा.
2014 में जब बहुमत वाली सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के जरिए नियुक्ति प्रक्रिया पर वापस अपना नियंत्रण बनाना चाहा तब संवैधानिक संशोधन को यह कहते हुए रद्द कर दिया गया था कि यह न्यायिक स्वतंत्रता के विनाशकारी होगा.
तब से लेकर कोर्ट और सरकार के कार्यकारी अंगों के बीच न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में लगातार खींचतान देखी गई है.
एक साहसी उदाहरण और कायम रखने के लिए एक विरासत
सरकार की आपत्तियों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने पांच उम्मीदवारों को लेकर अपनी सिफारिश को दोहराया है. उपर्युक्त पृष्ठभूमि के मद्देनजर हमें कॉलेजियम के इस कदम को साहसिक निर्णय के उदाहरण के तौर पर देखना चाहिए.
यह कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मेरिट के आधार पर न्यायिक नियुक्तियों के सिद्धांत को बनाए रखने के लिए कोर्ट के दृढ़ संकल्प का संकेत देता है.
पिछले कॉलेजियम लंबे समय तक टकराव से बचते रहे हैं, विवादों को छिपाते व दबाते रहे हैं और चुपचाप केवल ऐसे उम्मीदवारों की सिफारिश करते रहे हैं, जिन्हें सरकार की मंजूरी मिलने की संभावना थी.
जस्टिस संजीव खन्ना ने वर्तमान पुनरावृत्ति के लिए अपनी सहमति दे दी है, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में हैं. संयोग से न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति एच आर खन्ना के भतीजे हैं और उनके पास मर्यादा बनाए रखने के लिए एक गौरवशाली विरासत है.
भारत के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस केएम जोसेफ वाले कॉलेजियम ने सार्वजनिक रूप से नामों को लेकर केंद्र की आपत्ति को खारिज करने के कारण बताए हैं, जो यह दर्शाता है कि वे पारदर्शिता के जरिए जनता को अपने पक्ष में करना चाहते हैं.
जज अब केवल अपने निर्णयों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त नहीं करते हैं. कॉलेजियम का ऐसे तर्कपूर्ण कार्य कार्यपालिका और न्यायपालिका की संबंधित स्थितियों के बारे में भी जनता को बताते हैं.
एक स्पष्ट संकेत
सौरभ किरपाल के सेक्सुअल ओरिएंटेशन (गे होने को लेकर) और विदेशी पार्टनर का हवाला देते हुए सरकार द्वारा उनकी उम्मीदवारी आपत्ति जताई गई, वहीं जॉन सत्यन और सोमशेखर सुंदरसन की कथित सरकार विरोधी पोस्ट का हवाला देते हुए सरकार ने ऐतराज जताया था. सरकार इन आपत्तियों पर कायम रही, इसके बाद भी अंतत: इन जजों की नियुक्ति के संबंध में की गई सिफारिशों को दोहराने की बात उभरी है.
हालांकि, कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को अप्रासंगिक माना है और अपनी पिछली सिफारिशों को दोहराया है. कॉलेजियम द्वारा कहा गया कि उम्मीदवारों का चयन उनकी मेरिट (योग्यता) और इंटीग्रिटी (सत्यनिष्ठा) के आधार पर किया गया था. इसके अलावा यह भी कहा गया कि न्यायिक कार्यालय के लिए उनकी योग्यता को लेकर उनकी निजी जिंदगी और व्यक्तिगत आस्था का कोई लेना-देना है.
सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दिया गया यह संकेत इस बात का स्पष्ट संदेश है कि न्यायपालिका अब कार्यपालिका के आगे झुकने को तैयार नहीं है. इसके साथ ही वह अपनी स्वायत्तता और एक स्वतंत्र न्यायपालिका के सिद्धांत की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित है.
यह कानून राज और न्यायपालिका के राजनीतिक प्रभाव या हस्तक्षेप से मुक्त होने के सिद्धांत के प्रति न्यायालय की प्रतिबद्धता के पुन: समर्थन को दर्शाता है.
नियुक्तियों की सिफारिशों को दोहराने का संकल्प कॉलेजियम ने प्रस्तुत किया है वह कानूनी इतिहास में सावधानीपूर्वक किया गया बड़ा योगदान है. जिसका विश्लेषण करने से भविष्य के कानूनी इतिहासकारों को उपयुक्त जानकारी मिलेगी. कॉलेजियम ने सरकार की आपत्तियों का जवाब देते हुए वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार सहित संवैधानिक लोकाचार को बरकरार रखा है.
नियुक्तियों की सिफारिशों के दोहराव और शीघ्र कार्रवाई करने के निर्देश के माध्यम से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सरकारी कार्यों के प्रति आलोचनात्मक पोस्ट करने वाले उम्मीदवारों के खिलाफ सरकार की शिकायत को नकार दिया गया है. सार्वजनिक रूप से व्यक्त की गई कोई भी आलोचनात्मक राय किसी को भी न्यायिक कार्यालय के लिए अयोग्य नहीं ठहराती है.
कॉलेजियम ने दूसरे न्यायाधीशों के मामले (1993) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि चयनित होने वाले उम्मीदवार के पास उच्च सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, कौशल, भावनात्मक स्थिरता का उच्च स्तर, दृढ़ता, स्थिरता, कानूनी गंभीरता, क्षमता और धीरज होना चाहिए और जिन लोगों की सिफारिश की गई है उन सभी में ये सब गुण हैं.
अगर सरकार फिर भी कार्रवाई नहीं करती है...
अगर सरकार अभी भी कॉलेजियम के दोहराव पर कार्रवाई नहीं करती है, तो यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत और न्यायपालिका की स्वायत्तता का उल्लंघन होगा.
आगे चलकर न्यायालय को कार्रवाई करने के लिए बाध्य किया जा सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सिफारिशों को लागू किया गया है. ये अनछुए पहलू हैं जहां संवैधानिक संकट की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है.
व्यापक मायने में, अदालत का दृढ़ता से खड़ा होना लोकतंत्र और पारदर्शिता की जीत है, क्योंकि यह एक स्वतंत्र न्यायपालिका के सिद्धांत को पुष्ट करता है जोकि एक लोकतांत्रिक प्रणाली के समुचित कार्य के लिए महत्वपूर्ण है. इसके अलावा, यह एक कड़ा संदेश भी देता है कि न्यायपालिका अपने मामलों में हस्तक्षेप करने या अपनी स्वतंत्रता से समझौता करने के किसी भी प्रयास को बर्दाश्त नहीं करेगी.
2018 की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस और वर्तमान में सिफारिश का दोहराव : दोनों में क्या समानता है?
कॉलेजियम जजों का एक समूह 2018 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया और भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस की कुछ कार्रवाइयों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया. हालांकि वह प्रेस कॉन्फ्रेंस आंतरिक समस्याओं के खिलाफ एक स्टैंड था, लेकिन वर्तमान में सिफारिशों का जो दोहराव है वह बाहरी आक्रामक रवैयों के खिलाफ एक संस्थागत जवाब है.
दोनों मामले, आंतरिक व बाह्य, दोनों खतरों के सामने न्यायपालिका की अपनी स्वायत्तता पर जोर देने और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने की इच्छा को दर्शाते हैं.
कुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा नियुक्तियों की सिफारिश को लेकर जो दोहराव किया गया है वह एक साहसिक और सराहनीय कदम है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और योग्यता के आधार पर न्यायिक नियुक्तियों के सिद्धांत को बनाए रखने के लिए न्यायालय के दृढ़ संकल्प को दर्शाता है.
यह एक लोकतांत्रिक समाज में एक स्वतंत्र न्यायपालिका के महत्व की याद दिलाता है और कार्यपालिका की ओर से चुनौतियां आने पर न्यायपालिका द्वारा अपनी स्वायत्तता की रक्षा करने की आवश्यकता को दर्शाता है. यह मामला अब पूरी तरह से जनमत की अदालत में है और जनता के सहयोग और समर्थन के बिना किसी भी कानून का अस्तित्व नहीं रह सकता.
(संजय हेगड़े, भारतीय सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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