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ममता मीम केस: गुनाह साबित होने से पहले माफी मांगने को कहना सही है?

क्या सोशल मीडिया पर सियासी नेताओं का मीम शेयर करने वालों को जेल भेजना चाहिए?  

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क्या सोशल मीडिया पर सियासी नेताओं का मीम शेयर करने वालों को जेल भेजना चाहिए?

सीधे शब्दों में सुप्रीम कोर्ट के सामने यही सवाल होना चाहिए था. लेकिन इन दिनों शायद कुछ खास वजह से देश के सुप्रीम कोर्ट का रवैया ढुलमुल दिख रहा है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का एक मीम शेयर करने के ‘संगीन अपराध’ में चार दिन से जेल में बंद एक महिला की जमानत अर्जी पर अदालत का रुख कुछ यही कहता है. इस रुख ने अभिव्यक्ति की आजादी के उस मौलिक अधिकार पर सवाल खड़े कर दिये हैं, जिसमें एक ऐसी टिप्पणी के लिए एक शख्स को माफी मांगने को कहा जाता है, जो टिप्पणी गैर-कानूनी साबित हुई ही नहीं.

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जिन वजहों से हमें ये सवाल करना पड़ रहा है, वो गंभीर हैं. अभिव्यक्ति की आजादी की अवहेलना के मामलों का अदालतों में जिस प्रकार निपटारा हो रहा है, वो एक गलत परम्परा की शुरुआत है.

क्यों? ये जानने के लिए इस घटना को विस्तार से जानना होगा.

पश्चिम बंगाल में बीजेपी के युवा मोर्चा (BJYM) की नेता प्रियंका शर्मा ने फेसबुक पर एक मीम शेयर किया, जिसमें ममता बनर्जी के चेहरे पर प्रियंका चोपड़ा की हाल की एक तस्वीर चिपका दी गई, जो Met Gala में खींची गई थी. इस तस्वीर में कुछ खास नहीं था, और न ही इसे सेक्सी कहा जा सकता है. मीम में आपत्तिजनक टेक्स्ट भी नहीं लिखा हुआ था.

टीएमसी के एक स्थानीय नेता ने इस तस्वीर को संज्ञान में लिया (जबकि शर्मा ने मीम बनाई भी नहीं थी, कई दूसरे लोगों की तरह सिर्फ ऑनलाइन तस्वीर को शेयर किया था) और शर्मा के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दी.

प्रियंका शर्मा के खिलाफ इंडियन पीनल कोड के Information Technology Act के अनुच्छेद 500 (मानहानि), अनुच्छेद 67A (आपत्तिजनक तस्वीर प्रकाशित करना) और अनुच्छेद 66A (आपत्तिजनक संदेश) के तहत शिकायत दर्ज की गई और 14 दिनों की हिरासत में भेज दिया गया.

इस पूरी कवायद से बदनीयती की दुर्गंध आती है. साथ ही ये ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के विरोधियों को चेतावनी देने की कोशिश है. जिस व्यक्ति की कथित मानहानि हो रही है, उसके बजाय किसी तीसरे व्यक्ति की शिकायत पर जबरदस्ती IT एक्ट का अनुच्छेद 66A थोपा जाता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने चार साल पहले ही श्रेया सिंघल मामले में समाप्त कर दिया था.

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अदालत से नाउम्मीदी

आगे देखिये. सुप्रीम कोर्ट से किसी ने इस मामले में दखल देने और गलत शिकायत को खत्म करने को नहीं कहा. फिर भी अच्छा होता कि अगर कोर्ट खुद दखल दे रहा है, तो अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त करने से जुड़े बेवजह शिकायत को समाप्त करने का निर्देश देती.

इसके अलावा कोर्ट इस बात में भी दखल दे सकता था कि क्या इस मामले में हिरासत में रखने की कोई जरूरत थी (दरअसल नहीं थी)? इस आधार पर विचार किया जाना चाहिए था कि शर्मा को जमानत दी जाए या नहीं. होना तो यही चाहिए था. इनमें न तो पुलिस में शिकायत दर्ज करने पर विचार करना था, न ही मामला खारिज करने की शर्मा की किसी याचिका पर. नियमों के मुताबिक उचित कार्रवाई का निर्देश देकर जज भी अपना कर्तव्य निभाते.

इसके बजाय जस्टिस इन्दिरा बनर्जी और जस्टिस संजीव खन्ना के वैकेशन बेंच ने उस वक्त कोर्टरूम में मौजूद सभी लोगों को भौंचक्का कर दिया, जब उन्होंने बीजेपी युवा मोर्चा की नेता को मुख्यमंत्री से माफी मांगने को कहा. जस्टिस बनर्जी मीम से नाखुश थीं. उन्होंने कहा कि हालांकि वो प्रियंका शर्मा की जमानत मंजूर कर रही हैं, लेकिन उन्हें इस पोस्ट के लिए माफी मांगनी होगी.

इस आदेश ने हर किसी को हैरत में डाल दिया कि ये क्या हो रहा है? क्या कोर्ट ने बिना सुनवाई चले ये मान लिया कि शर्मा ने कुछ गलत किया है? क्या मीम संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के तहत नहीं आता?

जस्टिस खन्ना ने इसे समझाने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि माफीनामा इस मामले के कानूनी पहलू से अलग है. ये जमानत देने की शर्त नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी के प्रति किये गए जुर्म के लिए माफी मांगनी चाहिए.

“कानूनी रूप से क्या गलत है, ये उससे जुड़ा नहीं है. लेकिन वो चुनाव लड़ने वाली एक राजनीतिक पार्टी की नेता हैं. वो कोई सामान्य नागरिक होतीं तो कोई समस्या नहीं थी.”
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हुंह?

इस बात का क्या मतलब हो सकता है? अगर कोई राजनीतिक पार्टी में शामिल हो जाए, तो क्या अभिव्यक्ति का उसका मौलिक अधिकार खत्म हो जाता है? क्या अनुच्छेद 19(2) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी के साथ कोई नया प्रतिबंध लग गया है, जिसके मुताबिक एक राजनीतिक विपक्षी के लिए आपत्तिजनक बयान पर माफी मांगना जरूरी है? और वो भी तब, जब बयान के गैरकानूनी होने का कोई सुबूत नहीं?

शर्मा की पैरवी कर रहे सीनियर वकील नीरज किशन कौल ने इसपर उचित संज्ञान लिया. उन्होंने कहा कि ऐसे आदेश का अभिव्यक्ति का आजादी पर बुरा असर पड़ेगा. सिर्फ इस आधार पर माफी मांगने को नहीं कहना चाहिए कि किसी को राजनीतिक व्यंग्य पसंद नहीं आया. उन्होंने विरोध जताते हुए कहा, “तो कल की तारीख में किसी को भी मीम शेयर करने के गुनाह में गिरफ्तार किया जा सकता है और जमानत के लिए माफी मांगने को कहा जा सकता है?”

कौल ने शर्मा से निर्देश लेकर उन्हें माफी देने पर मजबूर करने के खिलाफ विस्तार से बहस करने की पेशकश की है (जबकि ये जमानत की शर्त भी नहीं थी), जो उनके मौलिक अधिकार का हनन है.

मामला गरमाता देखकर जजों ने शर्मा को रिहाई के फौरन बाद लिखित माफीनामा देने की शर्त पर जमानत देने का फैसला कर दिया. ये फैसला उनके वकील समेत कोर्ट रूम में मौजूद हर व्यक्ति को हैरान करने वाला था. यहां तक कि पश्चिम बंगाल सरकार के वकील को भी इस फैसले पर हैरानी हुई, जो वाजिब थी.

जमानत की शर्तें ये तय करने के लिए तैयार की जाती हैं कि आरोपी भाग न जाए या सुबूतों से छेड़छाड़ न हो या चश्मदीद को धमकी न मिले. किसी मामले में पहले से तय फैसले को लागू करने के लिए जमानत की शर्तें तय नहीं होती हैं, जैसा इस मामले में माफीनामे के रूप में सामने आया. जजों ने ये फैसला कैसे कर लिया कि वो पोस्ट किसी से माफी मांगने के स्तर तक आपत्तिजनक थी? जैसा जस्टिस खन्ना ने कहा कि अगर ये कानूनी रूप से गलत नहीं था, तो माफीनामे को जमानत के लिए कानूनी जरूरत कैसे बनाया जा सकता है?

इस स्तर पर जस्टिस बनर्जी का ये बयान बेमतलब था कि अभिव्यक्ति की आजादी दूसरों के अधिकारों को नहीं छीन सकती. बेशक ये कहा जा सकता था कि जब तक मुकदमा चल रहा हो, तब तक शर्मा का पोस्ट हटाया जाए, जो शर्मा पहले ही कर चुकी थीं. ये अनुच्छेद 19(2) के मुताबिक एक उचित प्रतिबंध होता.

एक माफीनामा पूरी तरह कुछ और होता है. यहां इसका मतलब है कि मामले में चाहे कुछ भी हुआ हो, लेकिन शर्मा ने वाकई कुछ आपत्तिजनक किया है. निश्चित रूप से ये उचित कदम नहीं है और माफीनामे को जमानत की शर्त बनाने का कोई कानूनी आधार नहीं है.
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बदतर होता मामला

अगर आपको लगता है कि एक दिन के लिए इतना ही विवाद काफी था, तो ऐसा नहीं है. आदेश देने के कुछ ही मिनट बाद जजों ने सभी पक्षों के वकीलों को बुलाकर साफ किया कि दरअसल माफीनामा जमानत की शर्त नहीं था.

इस सफाई ने मामले को और बदतर बना दिया. अगर जमानत की शर्त के रूप में माफी मांगना कोई आधार नहीं है, तो माफी मांगने का आदेश किस आधार पर दिया गया?

निश्चित रूप से पूरी तरह इंसाफ करने के लिए कोर्ट के पास कई प्रकार के अधिकार हैं, लेकिन किसी को एक ऐसे बयान के लिए माफी मांगने का आदेश देना कहां का इंसाफ है, जिसे गैरकानूनी करार तक न दिया गया हो?

माफीनामा अनिवार्य बनाने के लिए किस मानक का पालन किया जा रहा है? क्या ये तस्वीर के लिए जस्टिस बनर्जी की नापसंदगी का नतीजा है? क्या टीएमसी ने इसे इतनी बड़ी गलती माना है?

हमें इनमें से किसी भी सवाल का जवाब नहीं मालूम. क्योंकि जजों ने सफाई दी, कि ये आदेश “विशेष तथ्यों और मामले की विशेष परिस्थिति” को देखते हुए दिया गया है. अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़े कानून पर छुट्टियां खत्म होने के बाद बहस हो सकती है.

कोर्ट के लिखित आदेश में कुछ भी साफ नहीं है. आदेश में सिर्फ यही कहा गया है, “आरोपी को रिहाई को समय अपने फेसबुक अकाउंट में शिकायत की गई तस्वीर अपलोड करने/शेयर करने के लिए लिखित माफी मांगनी होगी.”

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अदालत में कानून से अलग विचार?

गंभीर बात ये है कि न सिर्फ बिना 'कथित पीड़ित' ममता बनर्जी की याचिका के अदालत ने माफी मांगने का आदेश दे दिया, बल्कि कानूनी और गैर-कानूनी मामलों को मिलाने का बीड़ा भी खुद ही उठा लिया, जैसा कि जस्टिस खन्ना ने खुद स्वीकार किया.

अलग-अलग मामलों को मिलाने की नाइंसाफी पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश में भी देखने को मिली थी, जो जैन मुनि तरुणसागर पर विशाल ददलानी और तहसीन पूनावाला के ट्वीट पर थी और जिसकी काफी आलोचना हुई.

जजों ने पाया कि कोई अपराध नहीं हुआ, फिर भी दोनों को मुआवजे के तौर पर मुनि सागर को 10-10 लाख रुपये देने का आदेश दिया गया. मुआवजे की वजह थी जैन समुदाय की भावनाओं को आहत करना और ये तय करना कि भविष्य में लोकप्रियता हासिल करने के लिए दोनों किसी धर्मगुरु का मजाक न उड़ाएं.

हालांकि इस आदेश के पीछे कोई कानूनी आधार नहीं था, और ये माना जा रहा था कि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में इस आदेश के खिलाफ अपील पर फैसला बदल जाएगा. लेकिन वैकेशन बेंच के मौजूदा आदेश के बाद अब ऐसा होना निश्चित नहीं माना जा सकता.

जिन्हें कानून का रक्षक बनाया गया है, वो कानून से परे जाकर कानूनी फैसले पर असर कैसे डाल सकते हैं? ममता मीम के इस मामले ने ये गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है.

ये अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को नजरअंदाज करता है. इस अधिकार पर प्रतिबंध लगाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? ये न्यायिक फैसले लेने के बुनियादी नियमों को नजरअंदाज करता है कि एक न्यायिक आदेश फॉर्म और सब्सटांस के आधार पर ही देना चाहिए. ये पुराने उदाहरणों के विपरीत नया न्यायिक उदाहरण बनाता है, क्योंकि जज ऐसा करना चाहते हैं.

इस कदम से आम नागरिकों में उस आत्मविश्वास को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा कि उनके मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं.

इतना ही काफी नहीं है, अब तो कोलकाता पुलिस की साइबर सेल ने मजिस्ट्रेट के सामने क्लोजर रिपोर्ट भी प्रस्तुत कर दी है, जिसमें प्रियंका शर्मा के खिलाफ मामला खत्म करने का निवेदन है.

तो कहा जा सकता है कि मूल रूप से अदालत का एक व्यक्ति को एक पद से माफी मांगने का आदेश देना कितना सही है, जो किसी आपराधिक मामले की सुनवाई या जांच का हिस्सा भी नहीं है.

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